उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०
दोहा
एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि ।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥१२१ -क॥
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान ।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान ॥१२१ -ख॥
चौपाला
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी । सोक हरष भय प्रीति बियोगी ॥
मानक रोग कछुक मैं गाए । हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए ॥
जाने ते छीजहिं कछु पापी । नास न पावहिं जन परितापी ॥
बिषय कुपथ्य पाइ अंकुरे । मुनिहु हृदयँ का नर बापुरे ॥
राम कृपाँ नासहि सब रोगा । जौं एहि भाँति बनै संयोगा ॥
सदगुर बैद बचन बिस्वासा । संजम यह न बिषय कै आसा ॥
रघुपति भगति सजीवन मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं । नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं ॥
जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई । जब उर बल बिराग अधिकाई ॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई । बिषय आस दुर्बलता गई ॥
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई । तब रह राम भगति उर छाई ॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद । जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद ॥
सब कर मत खगनायक एहा । करिअ राम पद पंकज नेहा ॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं । रघुपति भगति बिना सुख नाहीं ॥
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा । बंध्या सुत बरु काहुहि मारा ॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला । जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला ॥
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना । बरु जामहिं सस सीस बिषाना ॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै । राम बिमुख न जीव सुख पावै ॥
हिम ते अनल प्रगट बरु होई । बिमुख राम सुख पाव न कोई ॥
दोहा
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥१२२ -क॥
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥१२२ -ख॥
श्लोक
विनिच्श्रितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे ।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥१२२ग॥
चौपाला
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा । ब्यास समास स्वमति अनुरुपा ॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी । राम भजिअ सब काज बिसारी ॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही । मोहि से सठ पर ममता जाही ॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा । नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥
पूछिहुँ राम कथा अति पावनि । सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥
सत संगति दुर्लभ संसारा । निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी । मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन । प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥
दोहा
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन ।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन ॥१२३ -क॥
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ ॥१२३॥
चौपाला
सुमिरि राम के गुन गन नाना । पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना ॥
महिमा निगम नेति करि गाई । अतुलित बल प्रताप प्रभुताई ॥
सिव अज पूज्य चरन रघुराई । मो पर कृपा परम मृदुलाई ॥
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ । केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ ॥
साधक सिद्ध बिमुक्त उदासी । कबि कोबिद कृतग्य संन्यासी ॥
जोगी सूर सुतापस ग्यानी । धर्म निरत पंडित बिग्यानी ॥
तरहिं न बिनु सेएँ मम स्वामी । राम नमामि नमामि नमामी ॥
सरन गएँ मो से अघ रासी । होहिं सुद्ध नमामि अबिनासी ॥
दोहा
जासु नाम भव भेषज हरन घोर त्रय सूल ।
सो कृपालु मोहि तो पर सदा रहउ अनुकूल ॥१२४ -क॥
सुनि भुसुंडि के बचन सुभ देखि राम पद नेह ।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ बिगत संदेह ॥१२४ -ख॥
चौपाला
मै कृत्कृत्य भयउँ तव बानी । सुनि रघुबीर भगति रस सानी ॥
राम चरन नूतन रति भई । माया जनित बिपति सब गई ॥
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए । मो कहँ नाथ बिबिध सुख दए ॥
मो पहिं होइ न प्रति उपकारा । बंदउँ तव पद बारहिं बारा ॥
पूरन काम राम अनुरागी । तुम्ह सम तात न कोउ बड़भागी ॥
संत बिटप सरिता गिरि धरनी । पर हित हेतु सबन्ह कै करनी ॥
संत हृदय नवनीत समाना । कहा कबिन्ह परि कहै न जाना ॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता । पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता ॥
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ । तव प्रसाद संसय सब गयऊ ॥
जानेहु सदा मोहि निज किंकर । पुनि पुनि उमा कहइ बिहंगबर ॥
दोहा
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर ।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयँ राखि रघुबीर ॥१२५ -क॥
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन ।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान ॥१२५ -ख॥
चौपाला
कहेउँ परम पुनीत इतिहासा । सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा ॥
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा । उपजइ प्रीति राम पद कंजा ॥
मन क्रम बचन जनित अघ जाई । सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई ॥
तीर्थाटन साधन समुदाई । जोग बिराग ग्यान निपुनाई ॥
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना । संजम दम जप तप मख नाना ॥
भूत दया द्विज गुर सेवकाई । बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई ॥
जहँ लगि साधन बेद बखानी । सब कर फल हरि भगति भवानी ॥
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई । राम कृपाँ काहूँ एक पाई ॥
दोहा
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास ।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास ॥१२६॥
चौपाला
सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ग्याता । सोइ महि मंडित पंडित दाता ॥
धर्म परायन सोइ कुल त्राता । राम चरन जा कर मन राता ॥
नीति निपुन सोइ परम सयाना । श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना ॥
सोइ कबि कोबिद सोइ रनधीरा । जो छल छाड़ि भजइ रघुबीरा ॥
धन्य देस सो जहँ सुरसरी । धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ॥
धन्य सो भूपु नीति जो करई । धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई ॥
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी । धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी ॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा । धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा ॥
दोहा
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ॥१२७॥
चौपाला
मति अनुरूप कथा मैं भाषी । जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी ॥
तव मन प्रीति देखि अधिकाई । तब मैं रघुपति कथा सुनाई ॥
यह न कहिअ सठही हठसीलहि । जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि ॥
कहिअ न लोभिहि क्रोधहि कामिहि । जो न भजइ सचराचर स्वामिहि ॥
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ । सुरपति सरिस होइ नृप जबहूँ ॥
राम कथा के तेइ अधिकारी । जिन्ह कें सतसंगति अति प्यारी ॥
गुर पद प्रीति नीति रत जेई । द्विज सेवक अधिकारी तेई ॥
ता कहँ यह बिसेष सुखदाई । जाहि प्रानप्रिय श्रीरघुराई ॥
दोहा
राम चरन रति जो चह अथवा पद निर्बान ।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान ॥१२८॥
चौपाला
राम कथा गिरिजा मैं बरनी । कलि मल समनि मनोमल हरनी ॥
संसृति रोग सजीवन मूरी । राम कथा गावहिं श्रुति सूरी ॥
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना । रघुपति भगति केर पंथाना ॥
अति हरि कृपा जाहि पर होई । पाउँ देइ एहिं मारग सोई ॥
मन कामना सिद्धि नर पावा । जे यह कथा कपट तजि गावा ॥
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं । ते गोपद इव भवनिधि तरहीं ॥
सुनि सब कथा हृदयँ अति भाई । गिरिजा बोली गिरा सुहाई ॥
नाथ कृपाँ मम गत संदेहा । राम चरन उपजेउ नव नेहा ॥
दोहा
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस ।
उपजी राम भगति दृढ़ बीते सकल कलेस ॥१२९॥
चौपाला
यह सुभ संभु उमा संबादा । सुख संपादन समन बिषादा ॥
भव भंजन गंजन संदेहा । जन रंजन सज्जन प्रिय एहा ॥
राम उपासक जे जग माहीं । एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं ॥
रघुपति कृपाँ जथामति गावा । मैं यह पावन चरित सुहावा ॥
एहिं कलिकाल न साधन दूजा । जोग जग्य जप तप ब्रत पूजा ॥
रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि । संतत सुनिअ राम गुन ग्रामहि ॥
जासु पतित पावन बड़ बाना । गावहिं कबि श्रुति संत पुराना ॥
ताहि भजहि मन तजि कुटिलाई । राम भजें गति केहिं नहिं पाई ॥
छंद
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना ।
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना ॥
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे ।
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥१॥
रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं ।
कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं ॥
सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै ।
दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्रीरघुबर हरै ॥२॥
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो ।
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को ॥
जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदासहूँ ।
पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥३॥
दोहा
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर ।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥१३० -क॥
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥१३० -ख॥
श्लोक
यत्पूर्व प्रभुणा कृतं सुकविना श्रीशम्भुना दुर्गमं
श्रीमद्रामपदाब्जभक्तिमनिशं प्राप्त्यै तु रामायणम् ।
मत्वा तद्रघुनाथमनिरतं स्वान्तस्तमःशान्तये
भाषाबद्धमिदं चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ॥१॥
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं
मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् ।
श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये
ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥२॥
मासपारायण , तीसवाँ विश्राम
नवान्हपारायण , नवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
सप्तमः सोपानः समाप्तः ।
उत्तरकाण्ड समाप्त