किष्किन्धाकाण्ड दोहा १ से १०
दोहा
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार ।
की तुम्ह अकिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार ॥१॥
चौपाला
कोसलेस दसरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए ॥
नाम राम लछिमन दौउ भाई । संग नारि सुकुमारि सुहाई ॥
इहाँ हरि निसिचर बैदेही । बिप्र फिरहिं हम खोजत तेही ॥
आपन चरित कहा हम गाई । कहहु बिप्र निज कथा बुझाई ॥
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना । सो सुख उमा नहिं बरना ॥
पुलकित तन मुख आव न बचना । देखत रुचिर बेष कै रचना ॥
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही । हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही ॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं । तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं ॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना । ता ते मैं नहिं प्रभु पहिचाना ॥
दोहा
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान ।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ॥२॥
चौपाला
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें । सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा । सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई । जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें । रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ॥
अस कहि परेउ चरन अकुलाई । निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ॥
तब रघुपति उठाइ उर लावा । निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ॥
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना । तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ । सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥
दोहा
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥३॥
चौपाला
देखि पवन सुत पति अनुकूला । हृदयँ हरष बीती सब सूला ॥
नाथ सैल पर कपिपति रहई । सो सुग्रीव दास तव अहई ॥
तेहि सन नाथ मयत्री कीजे । दीन जानि तेहि अभय करीजे ॥
सो सीता कर खोज कराइहि । जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि ॥
एहि बिधि सकल कथा समुझाई । लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई ॥
जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा । अतिसय जन्म धन्य करि लेखा ॥
सादर मिलेउ नाइ पद माथा । भैंटेउ अनुज सहित रघुनाथा ॥
कपि कर मन बिचार एहि रीती । करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती ॥
दोहा
तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ ॥
पावक साखी देइ करि जोरी प्रीती दृढ़ाइ ॥४॥
चौपाला
कीन्ही प्रीति कछु बीच न राखा । लछमिन राम चरित सब भाषा ॥
कह सुग्रीव नयन भरि बारी । मिलिहि नाथ मिथिलेसकुमारी ॥
मंत्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा । बैठ रहेउँ मैं करत बिचारा ॥
गगन पंथ देखी मैं जाता । परबस परी बहुत बिलपाता ॥
राम राम हा राम पुकारी । हमहि देखि दीन्हेउ पट डारी ॥
मागा राम तुरत तेहिं दीन्हा । पट उर लाइ सोच अति कीन्हा ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा । तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई । जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई ॥
दोहा
सखा बचन सुनि हरषे कृपासिधु बलसींव ।
कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव ॥५॥
चौपाला
नात बालि अरु मैं द्वौ भाई । प्रीति रही कछु बरनि न जाई ॥
मय सुत मायावी तेहि नाऊँ । आवा सो प्रभु हमरें गाऊँ ॥
अर्ध राति पुर द्वार पुकारा । बाली रिपु बल सहै न पारा ॥
धावा बालि देखि सो भागा । मैं पुनि गयउँ बंधु सँग लागा ॥
गिरिबर गुहाँ पैठ सो जाई । तब बालीं मोहि कहा बुझाई ॥
परिखेसु मोहि एक पखवारा । नहिं आवौं तब जानेसु मारा ॥
मास दिवस तहँ रहेउँ खरारी । निसरी रुधिर धार तहँ भारी ॥
बालि हतेसि मोहि मारिहि आई । सिला देइ तहँ चलेउँ पराई ॥
मंत्रिन्ह पुर देखा बिनु साईं । दीन्हेउ मोहि राज बरिआई ॥
बालि ताहि मारि गृह आवा । देखि मोहि जियँ भेद बढ़ावा ॥
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी । हरि लीन्हेसि सर्बसु अरु नारी ॥
ताकें भय रघुबीर कृपाला । सकल भुवन मैं फिरेउँ बिहाला ॥
इहाँ साप बस आवत नाहीं । तदपि सभीत रहउँ मन माहीँ ॥
सुनि सेवक दुख दीनदयाला । फरकि उठीं द्वै भुजा बिसाला ॥
दोहा
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान ।
ब्रम्ह रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान ॥६॥
चौपाला
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी । तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना । मित्रक दुख रज मेरु समाना ॥
जिन्ह कें असि मति सहज न आई । ते सठ कत हठि करत मिताई ॥
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा । गुन प्रगटे अवगुनन्हि दुरावा ॥
देत लेत मन संक न धरई । बल अनुमान सदा हित करई ॥
बिपति काल कर सतगुन नेहा । श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ॥
आगें कह मृदु बचन बनाई । पाछें अनहित मन कुटिलाई ॥
जा कर चित अहि गति सम भाई । अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ॥
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी । कपटी मित्र सूल सम चारी ॥
सखा सोच त्यागहु बल मोरें । सब बिधि घटब काज मैं तोरें ॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा । बालि महाबल अति रनधीरा ॥
दुंदुभी अस्थि ताल देखराए । बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए ॥
देखि अमित बल बाढ़ी प्रीती । बालि बधब इन्ह भइ परतीती ॥
बार बार नावइ पद सीसा । प्रभुहि जानि मन हरष कपीसा ॥
उपजा ग्यान बचन तब बोला । नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला ॥
सुख संपति परिवार बड़ाई । सब परिहरि करिहउँ सेवकाई ॥
ए सब रामभगति के बाधक । कहहिं संत तब पद अवराधक ॥
सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं । माया कृत परमारथ नाहीं ॥
बालि परम हित जासु प्रसादा । मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा ॥
सपनें जेहि सन होइ लराई । जागें समुझत मन सकुचाई ॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँती । सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥
सुनि बिराग संजुत कपि बानी । बोले बिहँसि रामु धनुपानी ॥
जो कछु कहेहु सत्य सब सोई । सखा बचन मम मृषा न होई ॥
नट मरकट इव सबहि नचावत । रामु खगेस बेद अस गावत ॥
लै सुग्रीव संग रघुनाथा । चले चाप सायक गहि हाथा ॥
तब रघुपति सुग्रीव पठावा । गर्जेसि जाइ निकट बल पावा ॥
सुनत बालि क्रोधातुर धावा । गहि कर चरन नारि समुझावा ॥
सुनु पति जिन्हहि मिलेउ सुग्रीवा । ते द्वौ बंधु तेज बल सींवा ॥
कोसलेस सुत लछिमन रामा । कालहु जीति सकहिं संग्रामा ॥
दोहा
कह बालि सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ ॥७॥
चौपाला
अस कहि चला महा अभिमानी । तृन समान सुग्रीवहि जानी ॥
भिरे उभौ बाली अति तर्जा । मुठिका मारि महाधुनि गर्जा ॥
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा । मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा ॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला । बंधु न होइ मोर यह काला ॥
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ । तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा । तनु भा कुलिस गई सब पीरा ॥
मेली कंठ सुमन कै माला । पठवा पुनि बल देइ बिसाला ॥
पुनि नाना बिधि भई लराई । बिटप ओट देखहिं रघुराई ॥
दोहा
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि ।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि ॥८॥
चौपाला
परा बिकल महि सर के लागें । पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें ॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ । अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ ॥
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा । सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा ॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा । बोला चितइ राम की ओरा ॥
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई । मारेहु मोहि ब्याध की नाई ॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा । अवगुन कबन नाथ मोहि मारा ॥
अनुज बधू भगिनी सुत नारी । सुनु सठ कन्या सम ए चारी ॥
इन्हहि कुद्दष्टि बिलोकइ जोई । ताहि बधें कछु पाप न होई ॥
मुढ़ तोहि अतिसय अभिमाना । नारि सिखावन करसि न काना ॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी । मारा चहसि अधम अभिमानी ॥
दोहा
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि ।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि ॥९॥
चौपाला
सुनत राम अति कोमल बानी । बालि सीस परसेउ निज पानी ॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना । बालि कहा सुनु कृपानिधाना ॥
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं । अंत राम कहि आवत नाहीं ॥
जासु नाम बल संकर कासी । देत सबहि सम गति अविनासी ॥
मम लोचन गोचर सोइ आवा । बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा ॥
छंद
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं ।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं ॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही ।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही ॥१॥
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ ।
गहि बाहँ सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ ॥२॥
दोहा
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग ।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग ॥१०॥
चौपाला
राम बालि निज धाम पठावा । नगर लोग सब ब्याकुल धावा ॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा । छूटे केस न देह सँभारा ॥
तारा बिकल देखि रघुराया । दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया ॥
छिति जल पावक गगन समीरा । पंच रचित अति अधम सरीरा ॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा । जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी । लीन्हेसि परम भगति बर मागी ॥
उमा दारु जोषित की नाई । सबहि नचावत रामु गोसाई ॥
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा । मृतक कर्म बिधिबत सब कीन्हा ॥
राम कहा अनुजहि समुझाई । राज देहु सुग्रीवहि जाई ॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा । चले सकल प्रेरित रघुनाथा ॥