लंकाकाण्ड दोहा १११ से १२१
दोहा
बिनय कीन्हि चतुरानन प्रेम पुलक अति गात ।
सोभासिंधु बिलोकत लोचन नहीं अघात ॥१११॥
चौपाला
तेहि अवसर दसरथ तहँ आए । तनय बिलोकि नयन जल छाए ॥
अनुज सहित प्रभु बंदन कीन्हा । आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा ॥
तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ । जीत्यों अजय निसाचर राऊ ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढ़ी । नयन सलिल रोमावलि ठाढ़ी ॥
रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना । चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ़ ग्याना ॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो । दसरथ भेद भगति मन लायो ॥
सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं । तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं ॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा । दसरथ हरषि गए सुरधामा ॥
दोहा
अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस ।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ॥११२॥
छंद
जय राम सोभा धाम । दायक प्रनत बिश्राम ॥
धृत त्रोन बर सर चाप । भुजदंड प्रबल प्रताप ॥१॥
जय दूषनारि खरारि । मर्दन निसाचर धारि ॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ । भए देव सकल सनाथ ॥२॥
जय हरन धरनी भार । महिमा उदार अपार ॥
जय रावनारि कृपाल । किए जातुधान बिहाल ॥३॥
लंकेस अति बल गर्ब । किए बस्य सुर गंधर्ब ॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग । हठि पंथ सब कें लाग ॥४॥
परद्रोह रत अति दुष्ट । पायो सो फलु पापिष्ट ॥
अब सुनहु दीन दयाल । राजीव नयन बिसाल ॥५॥
मोहि रहा अति अभिमान । नहिं कोउ मोहि समान ॥
अब देखि प्रभु पद कंज । गत मान प्रद दुख पुंज ॥६॥
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव । अब्यक्त जेहि श्रुति गाव ॥
मोहि भाव कोसल भूप । श्रीराम सगुन सरूप ॥७॥
बैदेहि अनुज समेत । मम हृदयँ करहु निकेत ॥
मोहि जानिए निज दास । दे भक्ति रमानिवास ॥८॥
छंद
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं ।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं ॥
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुज तनु अतुलितबलं ।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं ॥
दोहा
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल ।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल ॥११३॥
चौपाला
सुनु सुरपति कपि भालु हमारे । परे भूमि निसचरन्हि जे मारे ॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना । सकल जिआउ सुरेस सुजाना ॥
सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी । अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई । केवल सक्रहि दीन्हि बड़ाई ॥
सुधा बरषि कपि भालु जिआए । हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए ॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर । जिए भालु कपि नहिं रजनीचर ॥
रामाकार भए तिन्ह के मन । मुक्त भए छूटे भव बंधन ॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा । जिए सकल रघुपति कीं ईछा ॥
राम सरिस को दीन हितकारी । कीन्हे मुकुत निसाचर झारी ॥
खल मल धाम काम रत रावन । गति पाई जो मुनिबर पाव न ॥
दोहा
सुमन बरषि सब सुर चले चढ़ि चढ़ि रुचिर बिमान ।
देखि सुअवसरु प्रभु पहिं आयउ संभु सुजान ॥११४क॥
परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि ।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि ॥११४ख॥
छंद
मामभिरक्षय रघुकुल नायक । धृत बर चाप रुचिर कर सायक ॥
मोह महा घन पटल प्रभंजन । संसय बिपिन अनल सुर रंजन ॥१॥
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर । भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर ॥
काम क्रोध मद गज पंचानन । बसहु निरंतर जन मन कानन ॥२॥
बिषय मनोरथ पुंज कंज बन । प्रबल तुषार उदार पार मन ॥
भव बारिधि मंदर परमं दर । बारय तारय संसृति दुस्तर ॥३॥
स्याम गात राजीव बिलोचन । दीन बंधु प्रनतारति मोचन ॥
अनुज जानकी सहित निरंतर । बसहु राम नृप मम उर अंतर ॥४॥
मुनि रंजन महि मंडल मंडन । तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन ॥५॥
दोहा
नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार ।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ॥११५॥
चौपाला
करि बिनती जब संभु सिधाए । तब प्रभु निकट बिभीषनु आए ॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी । बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी ॥
सकुल सदल प्रभु रावन मार् यो । पावन जस त्रिभुवन बिस्तार् यो ॥
दीन मलीन हीन मति जाती । मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती ॥
अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे । मज्जनु करिअ समर श्रम छीजे ॥
देखि कोस मंदिर संपदा । देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा ॥
सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ । पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला । सजल भए द्वौ नयन बिसाला ॥
दोहा
तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात ।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात ॥११६क॥
तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि ।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि ॥११६ख॥
बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर ।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर ॥११६ग॥
करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं ।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ संत सब जाहिं ॥११६घ॥
चौपाला
सुनत बिभीषन बचन राम के । हरषि गहे पद कृपाधाम के ॥
बानर भालु सकल हरषाने । गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने ॥
बहुरि बिभीषन भवन सिधायो । मनि गन बसन बिमान भरायो ॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा । हँसि करि कृपासिंधु तब भाषा ॥
चढ़ि बिमान सुनु सखा बिभीषन । गगन जाइ बरषहु पट भूषन ॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही । बरषि दिए मनि अंबर सबही ॥
जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं । मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं ॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता । परम कौतुकी कृपा निकेता ॥
दोहा
मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद ।
कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद ॥११७क॥
उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम ।
राम कृपा नहि करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥११७ख॥
चौपाला
भालु कपिन्ह पट भूषन पाए । पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए ॥
नाना जिनस देखि सब कीसा । पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा ॥
चितइ सबन्हि पर कीन्हि दाया । बोले मृदुल बचन रघुराया ॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार् यो । तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार् यो ॥
निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू । सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू ॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर । जोरि पानि बोले सब सादर ॥
प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा । हमरे होत बचन सुनि मोहा ॥
दीन जानि कपि किए सनाथा । तुम्ह त्रेलोक ईस रघुनाथा ॥
सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं । मसक कहूँ खगपति हित करहीं ॥
देखि राम रुख बानर रीछा । प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा ॥
दोहा
प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि ।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि ॥११८क॥
कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान ।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ॥११८ख॥
कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि ।
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि ॥११८ग॥
चौपाला
अतिसय प्रीति देख रघुराई । लिन्हे सकल बिमान चढ़ाई ॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो । उत्तर दिसिहि बिमान चलायो ॥
चलत बिमान कोलाहल होई । जय रघुबीर कहइ सबु कोई ॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर । श्री समेत प्रभु बैठै ता पर ॥
राजत रामु सहित भामिनी । मेरु सृंग जनु घन दामिनी ॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर । कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर ॥
परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी । सागर सर सरि निर्मल बारी ॥
सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा । मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा ॥
कह रघुबीर देखु रन सीता । लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता ॥
हनूमान अंगद के मारे । रन महि परे निसाचर भारे ॥
कुंभकरन रावन द्वौ भाई । इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई ॥
दोहा
इहाँ सेतु बाँध्यो अरु थापेउँ सिव सुख धाम ।
सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम ॥११९क॥
जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम ।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम ॥११९ख॥
चौपाला
तुरत बिमान तहाँ चलि आवा । दंडक बन जहँ परम सुहावा ॥
कुंभजादि मुनिनायक नाना । गए रामु सब कें अस्थाना ॥
सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा । चित्रकूट आए जगदीसा ॥
तहँ करि मुनिन्ह केर संतोषा । चला बिमानु तहाँ ते चोखा ॥
बहुरि राम जानकिहि देखाई । जमुना कलि मल हरनि सुहाई ॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता । राम कहा प्रनाम करु सीता ॥
तीरथपति पुनि देखु प्रयागा । निरखत जन्म कोटि अघ भागा ॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी । हरनि सोक हरि लोक निसेनी ॥
पुनि देखु अवधपुरी अति पावनि । त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि ॥
दोहा
सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम ।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम ॥१२०क॥
पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह ।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह ॥१२०ख॥
चौपाला
प्रभु हनुमंतहि कहा बुझाई । धरि बटु रूप अवधपुर जाई ॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु । समाचार लै तुम्ह चलि आएहु ॥
तुरत पवनसुत गवनत भयउ । तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही । अस्तुती करि पुनि आसिष दीन्ही ॥
मुनि पद बंदि जुगल कर जोरी । चढ़ि बिमान प्रभु चले बहोरी ॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए । नाव नाव कहँ लोग बोलाए ॥
सुरसरि नाघि जान तब आयो । उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो ॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी । बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी ॥
दीन्हि असीस हरषि मन गंगा । सुंदरि तव अहिवात अभंगा ॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल । आयउ निकट परम सुख संकुल ॥
प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही । परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई । हरषि उठाइ लियो उर लाई ॥
छंद
लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापती ।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती ।
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे ।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते ॥१॥
सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो ।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो ॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा ।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा ॥२॥
दोहा
समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान ।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान ॥१२१क॥
यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार ।
श्रीरघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार ॥१२१ख॥
मासपारायण , सत्ताईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
षष्ठः सोपानः समाप्तः ।
लंकाकाण्ड समाप्त