अयोध्या काण्ड दोहा २१ से ३०
दोहा
परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पति त्यागि।
कहसि मोर दुखु देखि बड़ कस न करब हित लागि ॥२१॥
चौपाला
कुबरीं करि कबुली कैकेई । कपट छुरी उर पाहन टेई ॥
लखइ न रानि निकट दुखु कैंसे । चरइ हरित तिन बलिपसु जैसें ॥
सुनत बात मृदु अंत कठोरी । देति मनहुँ मधु माहुर घोरी ॥
कहइ चेरि सुधि अहइ कि नाही । स्वामिनि कहिहु कथा मोहि पाहीं ॥
दुइ बरदान भूप सन थाती । मागहु आजु जुड़ावहु छाती ॥
सुतहि राजु रामहि बनवासू । देहु लेहु सब सवति हुलासु ॥
भूपति राम सपथ जब करई । तब मागेहु जेहिं बचनु न टरई ॥
होइ अकाजु आजु निसि बीतें । बचनु मोर प्रिय मानेहु जी तें ॥
दोहा
बड़ कुघातु करि पातकिनि कहेसि कोपगृहँ जाहु।
काजु सँवारेहु सजग सबु सहसा जनि पतिआहु ॥२२॥
चौपाला
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी । बार बार बड़ि बुद्धि बखानी ॥
तोहि सम हित न मोर संसारा । बहे जात कइ भइसि अधारा ॥
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली । करौं तोहि चख पूतरि आली ॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई । कोपभवन गवनि कैकेई ॥
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी । भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी ॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा । बर दोउ दल दुख फल परिनामा ॥
कोप समाजु साजि सबु सोई । राजु करत निज कुमति बिगोई ॥
राउर नगर कोलाहलु होई । यह कुचालि कछु जान न कोई ॥
दोहा
प्रमुदित पुर नर नारि । सब सजहिं सुमंगलचार।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार ॥२३॥
चौपाला
बाल सखा सुन हियँ हरषाहीं । मिलि दस पाँच राम पहिं जाहीं ॥
प्रभु आदरहिं प्रेमु पहिचानी । पूँछहिं कुसल खेम मृदु बानी ॥
फिरहिं भवन प्रिय आयसु पाई । करत परसपर राम बड़ाई ॥
को रघुबीर सरिस संसारा । सीलु सनेह निबाहनिहारा।
जेंहि जेंहि जोनि करम बस भ्रमहीं । तहँ तहँ ईसु देउ यह हमहीं ॥
सेवक हम स्वामी सियनाहू । होउ नात यह ओर निबाहू ॥
अस अभिलाषु नगर सब काहू । कैकयसुता ह्दयँ अति दाहू ॥
को न कुसंगति पाइ नसाई । रहइ न नीच मतें चतुराई ॥
दोहा
साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ।
गवनु निठुरता निकट किय जनु धरि देह सनेहँ ॥२४॥
चौपाला
कोपभवन सुनि सकुचेउ राउ । भय बस अगहुड़ परइ न पाऊ ॥
सुरपति बसइ बाहँबल जाके । नरपति सकल रहहिं रुख ताकें ॥
सो सुनि तिय रिस गयउ सुखाई । देखहु काम प्रताप बड़ाई ॥
सूल कुलिस असि अँगवनिहारे । ते रतिनाथ सुमन सर मारे ॥
सभय नरेसु प्रिया पहिं गयऊ । देखि दसा दुखु दारुन भयऊ ॥
भूमि सयन पटु मोट पुराना । दिए डारि तन भूषण नाना ॥
कुमतिहि कसि कुबेषता फाबी । अन अहिवातु सूच जनु भाबी ॥
जाइ निकट नृपु कह मृदु बानी । प्रानप्रिया केहि हेतु रिसानी ॥
छंद
केहि हेतु रानि रिसानि परसत पानि पतिहि नेवारई।
मानहुँ सरोष भुअंग भामिनि बिषम भाँति निहारई ॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाहरु देखई।
तुलसी नृपति भवतब्यता बस काम कौतुक लेखई ॥
सोरठा
बार बार कह राउ सुमुखि सुलोचिनि पिकबचनि।
कारन मोहि सुनाउ गजगामिनि निज कोप कर ॥२५॥
अनहित तोर प्रिया केइँ कीन्हा । केहि दुइ सिर केहि जमु चह लीन्हा ॥
कहु केहि रंकहि करौ नरेसू । कहु केहि नृपहि निकासौं देसू ॥
सकउँ तोर अरि अमरउ मारी । काह कीट बपुरे नर नारी ॥
जानसि मोर सुभाउ बरोरू । मनु तव आनन चंद चकोरू ॥
प्रिया प्रान सुत सरबसु मोरें । परिजन प्रजा सकल बस तोरें ॥
जौं कछु कहौ कपटु करि तोही । भामिनि राम सपथ सत मोही ॥
बिहसि मागु मनभावति बाता । भूषन सजहि मनोहर गाता ॥
घरी कुघरी समुझि जियँ देखू । बेगि प्रिया परिहरहि कुबेषू ॥
दोहा
यह सुनि मन गुनि सपथ बड़ि बिहसि उठी मतिमंद।
भूषन सजति बिलोकि मृगु मनहुँ किरातिनि फंद ॥२६॥
चौपाला
पुनि कह राउ सुह्रद जियँ जानी । प्रेम पुलकि मृदु मंजुल बानी ॥
भामिनि भयउ तोर मनभावा । घर घर नगर अनंद बधावा ॥
रामहि देउँ कालि जुबराजू । सजहि सुलोचनि मंगल साजू ॥
दलकि उठेउ सुनि ह्रदउ कठोरू । जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू ॥
ऐसिउ पीर बिहसि तेहि गोई । चोर नारि जिमि प्रगटि न रोई ॥
लखहिं न भूप कपट चतुराई । कोटि कुटिल मनि गुरू पढ़ाई ॥
जद्यपि नीति निपुन नरनाहू । नारिचरित जलनिधि अवगाहू ॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोरी । बोली बिहसि नयन मुहु मोरी ॥
दोहा
मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।
देन कहेहु बरदान दुइ तेउ पावत संदेहु ॥२७॥
चौपाला
जानेउँ मरमु राउ हँसि कहई । तुम्हहि कोहाब परम प्रिय अहई ॥
थाति राखि न मागिहु काऊ । बिसरि गयउ मोहि भोर सुभाऊ ॥
झूठेहुँ हमहि दोषु जनि देहू । दुइ कै चारि मागि मकु लेहू ॥
रघुकुल रीति सदा चलि आई । प्रान जाहुँ बरु बचनु न जाई ॥
नहिं असत्य सम पातक पुंजा । गिरि सम होहिं कि कोटिक गुंजा ॥
सत्यमूल सब सुकृत सुहाए । बेद पुरान बिदित मनु गाए ॥
तेहि पर राम सपथ करि आई । सुकृत सनेह अवधि रघुराई ॥
बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली । कुमत कुबिहग कुलह जनु खोली ॥
दोहा
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुबिहंग समाजु।
भिल्लनि जिमि छाड़न चहति बचनु भयंकरु बाजु ॥२८॥
मासपारायण , तेरहवाँ विश्राम
चौपाला
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का । देहु एक बर भरतहि टीका ॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी । पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी ॥
तापस बेष बिसेषि उदासी । चौदह बरिस रामु बनबासी ॥
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू । ससि कर छुअत बिकल जिमि कोकू ॥
गयउ सहमि नहिं कछु कहि आवा । जनु सचान बन झपटेउ लावा ॥
बिबरन भयउ निपट नरपालू । दामिनि हनेउ मनहुँ तरु तालू ॥
माथे हाथ मूदि दोउ लोचन । तनु धरि सोचु लाग जनु सोचन ॥
मोर मनोरथु सुरतरु फूला । फरत करिनि जिमि हतेउ समूला ॥
अवध उजारि कीन्हि कैकेईं । दीन्हसि अचल बिपति कै नेईं ॥
दोहा
कवनें अवसर का भयउ गयउँ नारि बिस्वास।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अबिद्या नास ॥२९॥
चौपाला
एहि बिधि राउ मनहिं मन झाँखा । देखि कुभाँति कुमति मन माखा ॥
भरतु कि राउर पूत न होहीं । आनेहु मोल बेसाहि कि मोही ॥
जो सुनि सरु अस लाग तुम्हारें । काहे न बोलहु बचनु सँभारे ॥
देहु उतरु अनु करहु कि नाहीं । सत्यसंध तुम्ह रघुकुल माहीं ॥
देन कहेहु अब जनि बरु देहू । तजहुँ सत्य जग अपजसु लेहू ॥
सत्य सराहि कहेहु बरु देना । जानेहु लेइहि मागि चबेना ॥
सिबि दधीचि बलि जो कछु भाषा । तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा ॥
अति कटु बचन कहति कैकेई । मानहुँ लोन जरे पर देई ॥
दोहा
धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे रायँ।
सिरु धुनि लीन्हि उसास असि मारेसि मोहि कुठायँ ॥३०॥
चौपाला
आगें दीखि जरत रिस भारी । मनहुँ रोष तरवारि उघारी ॥
मूठि कुबुद्धि धार निठुराई । धरी कूबरीं सान बनाई ॥
लखी महीप कराल कठोरा । सत्य कि जीवनु लेइहि मोरा ॥
बोले राउ कठिन करि छाती । बानी सबिनय तासु सोहाती ॥
प्रिया बचन कस कहसि कुभाँती । भीर प्रतीति प्रीति करि हाँती ॥
मोरें भरतु रामु दुइ आँखी । सत्य कहउँ करि संकरू साखी ॥
अवसि दूतु मैं पठइब प्राता । ऐहहिं बेगि सुनत दोउ भ्राता ॥
सुदिन सोधि सबु साजु सजाई । देउँ भरत कहुँ राजु बजाई ॥