उत्तरकाण्ड - दोहा २१ से ३०
दोहा
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं ॥
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिं ॥२१॥
चौपाला
भूमि सप्त सागर मेखला । एक भूप रघुपति कोसला ॥
भुअन अनेक रोम प्रति जासू । यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ॥
सो महिमा समुझत प्रभु केरी । यह बरनत हीनता घनेरी ॥
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी । फिरी एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी ॥
सोउ जाने कर फल यह लीला । कहहिं महा मुनिबर दमसीला ॥
राम राज कर सुख संपदा । बरनि न सकइ फनीस सारदा ॥
सब उदार सब पर उपकारी । बिप्र चरन सेवक नर नारी ॥
एकनारि ब्रत रत सब झारी । ते मन बच क्रम पति हितकारी ॥
दोहा
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ॥२२॥
चौपाला
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन । रहहि एक सँग गज पंचानन ॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ॥
कूजहिं खग मृग नाना बृंदा । अभय चरहिं बन करहिं अनंदा ॥
सीतल सुरभि पवन बह मंदा । गूंजत अलि लै चलि मकरंदा ॥
लता बिटप मागें मधु चवहीं । मनभावतो धेनु पय स्त्रवहीं ॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी । त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी ॥
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनि खानी । जगदातमा भूप जग जानी ॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी । सीतल अमल स्वाद सुखकारी ॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं । डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं ॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा । अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ॥
दोहा
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज ।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र के राज ॥२३॥
चौपाला
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे । दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ॥
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर । गुनातीत अरु भोग पुरंदर ॥
पति अनुकूल सदा रह सीता । सोभा खानि सुसील बिनीता ॥
जानति कृपासिंधु प्रभुताई । सेवति चरन कमल मन लाई ॥
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी । बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ॥
निज कर गृह परिचरजा करई । रामचंद्र आयसु अनुसरई ॥
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ । सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ॥
कौसल्यादि सासु गृह माहीं । सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ॥
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता । जगदंबा संततमनिंदिता ॥
दोहा
जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ ।
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ ॥२४॥
चौपाला
सेवहिं सानकूल सब भाई । राम चरन रति अति अधिकाई ॥
प्रभु मुख कमल बिलोकत रहहीं । कबहुँ कृपाल हमहि कछु कहहीं ॥
राम करहिं भ्रातन्ह पर प्रीती । नाना भाँति सिखावहिं नीती ॥
हरषित रहहिं नगर के लोगा । करहिं सकल सुर दुर्लभ भोगा ॥
अहनिसि बिधिहि मनावत रहहीं । श्रीरघुबीर चरन रति चहहीं ॥
दुइ सुत सुन्दर सीताँ जाए । लव कुस बेद पुरानन्ह गाए ॥
दोउ बिजई बिनई गुन मंदिर । हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर ॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे । भए रूप गुन सील घनेरे ॥
दोहा
ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार ।
सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार ॥२५॥
चौपाला
प्रातकाल सरऊ करि मज्जन । बैठहिं सभाँ संग द्विज सज्जन ॥
बेद पुरान बसिष्ट बखानहिं । सुनहिं राम जद्यपि सब जानहिं ॥
अनुजन्ह संजुत भोजन करहीं । देखि सकल जननीं सुख भरहीं ॥
भरत सत्रुहन दोनउ भाई । सहित पवनसुत उपबन जाई ॥
बूझहिं बैठि राम गुन गाहा । कह हनुमान सुमति अवगाहा ॥
सुनत बिमल गुन अति सुख पावहिं । बहुरि बहुरि करि बिनय कहावहिं ॥
सब कें गृह गृह होहिं पुराना । रामचरित पावन बिधि नाना ॥
नर अरु नारि राम गुन गानहिं । करहिं दिवस निसि जात न जानहिं ॥
दोहा
अवधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज ।
सहस सेष नहिं कहि सकहिं जहँ नृप राम बिराज ॥२६॥
चौपाला
नारदादि सनकादि मुनीसा । दरसन लागि कोसलाधीसा ॥
दिन प्रति सकल अजोध्या आवहिं । देखि नगरु बिरागु बिसरावहिं ॥
जातरूप मनि रचित अटारीं । नाना रंग रुचिर गच ढारीं ॥
पुर चहुँ पास कोट अति सुंदर । रचे कँगूरा रंग रंग बर ॥
नव ग्रह निकर अनीक बनाई । जनु घेरी अमरावति आई ॥
महि बहु रंग रचित गच काँचा । जो बिलोकि मुनिबर मन नाचा ॥
धवल धाम ऊपर नभ चुंबत । कलस मनहुँ रबि ससि दुति निंदत ॥
बहु मनि रचित झरोखा भ्राजहिं । गृह गृह प्रति मनि दीप बिराजहिं ॥
छंद
मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची ।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची ॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे ।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे ॥
दोहा
चारु चित्रसाला गृह गृह प्रति लिखे बनाइ ।
राम चरित जे निरख मुनि ते मन लेहिं चोराइ ॥२७॥
चौपाला
सुमन बाटिका सबहिं लगाई । बिबिध भाँति करि जतन बनाई ॥
लता ललित बहु जाति सुहाई । फूलहिं सदा बंसत कि नाई ॥
गुंजत मधुकर मुखर मनोहर । मारुत त्रिबिध सदा बह सुंदर ॥
नाना खग बालकन्हि जिआए । बोलत मधुर उड़ात सुहाए ॥
मोर हंस सारस पारावत । भवननि पर सोभा अति पावत ॥
जहँ तहँ देखहिं निज परिछाहीं । बहु बिधि कूजहिं नृत्य कराहीं ॥
सुक सारिका पढ़ावहिं बालक । कहहु राम रघुपति जनपालक ॥
राज दुआर सकल बिधि चारू । बीथीं चौहट रूचिर बजारू ॥
छंद
बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए ।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए ॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते ।
सब सुखी सब सच्चरित सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे ॥
दोहा
उत्तर दिसि सरजू बह निर्मल जल गंभीर ।
बाँधे घाट मनोहर स्वल्प पंक नहिं तीर ॥२८॥
चौपाला
दूरि फराक रुचिर सो घाटा । जहँ जल पिअहिं बाजि गज ठाटा ॥
पनिघट परम मनोहर नाना । तहाँ न पुरुष करहिं अस्नाना ॥
राजघाट सब बिधि सुंदर बर । मज्जहिं तहाँ बरन चारिउ नर ॥
तीर तीर देवन्ह के मंदिर । चहुँ दिसि तिन्ह के उपबन सुंदर ॥
कहुँ कहुँ सरिता तीर उदासी । बसहिं ग्यान रत मुनि संन्यासी ॥
तीर तीर तुलसिका सुहाई । बृंद बृंद बहु मुनिन्ह लगाई ॥
पुर सोभा कछु बरनि न जाई । बाहेर नगर परम रुचिराई ॥
देखत पुरी अखिल अघ भागा । बन उपबन बापिका तड़ागा ॥
छंद
बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं ।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं ॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं ।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं ॥
दोहा
रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ ।
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ ॥२९॥
चौपाला
जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं । बैठि परसपर इहइ सिखावहिं ॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि । सोभा सील रूप गुन धामहि ॥
जलज बिलोचन स्यामल गातहि । पलक नयन इव सेवक त्रातहि ॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि । संत कंज बन रबि रनधीरहि ॥
काल कराल ब्याल खगराजहि । नमत राम अकाम ममता जहि ॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि । मनसिज करि हरि जन सुखदातहि ॥
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि । दनुज गहन घन दहन कृसानुहि ॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि । कस न भजहु भंजन भव भीरहि ॥
बहु बासना मसक हिम रासिहि । सदा एकरस अज अबिनासिहि ॥
मुनि रंजन भंजन महि भारहि । तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि ॥
दोहा
एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान ।
सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान ॥३०॥
चौपाला
जब ते राम प्रताप खगेसा । उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा ॥
पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका । बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका ॥
जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी । प्रथम अबिद्या निसा नसानी ॥
अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने । काम क्रोध कैरव सकुचाने ॥
बिबिध कर्म गुन काल सुभाऊ । ए चकोर सुख लहहिं न काऊ ॥
मत्सर मान मोह मद चोरा । इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा ॥
धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना । ए पंकज बिकसे बिधि नाना ॥
सुख संतोष बिराग बिबेका । बिगत सोक ए कोक अनेका ॥