उत्तरकाण्ड - दोहा १ से १०
राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत ।
बिप्र रूप धरि पवन सुत आइ गयउ जनु पोत ॥१-क॥
बैठि देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात ।
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥१-ख॥
चौपाला
देखत हनूमान अति हरषेउ । पुलक गात लोचन जल बरषेउ ॥
मन महँ बहुत भाँति सुख मानी । बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी ॥
जासु बिरहँ सोचहु दिन राती । रटहु निरंतर गुन गन पाँती ॥
रघुकुल तिलक सुजन सुखदाता । आयउ कुसल देव मुनि त्राता ॥
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत । सीता सहित अनुज प्रभु आवत ॥
सुनत बचन बिसरे सब दूखा । तृषावंत जिमि पाइ पियूषा ॥
को तुम्ह तात कहाँ ते आए । मोहि परम प्रिय बचन सुनाए ॥
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना । नामु मोर सुनु कृपानिधाना ॥
दीनबंधु रघुपति कर किंकर । सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर ॥
मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता । नयन स्त्रवत जल पुलकित गाता ॥
कपि तव दरस सकल दुख बीते । मिले आजु मोहि राम पिरीते ॥
बार बार बूझी कुसलाता । तो कहुँ देउँ काह सुनु भ्राता ॥
एहि संदेस सरिस जग माहीं । करि बिचार देखेउँ कछु नाहीं ॥
नाहिन तात उरिन मैं तोही । अब प्रभु चरित सुनावहु मोही ॥
तब हनुमंत नाइ पद माथा । कहे सकल रघुपति गुन गाथा ॥
कहु कपि कबहुँ कृपाल गोसाईं । सुमिरहिं मोहि दास की नाईं ॥
छंद
निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर् यो ।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकित तन चरनन्हि पर् यो ॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो ।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो ॥
दोहा
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात ।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात ॥२-क॥
सोरठा
भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं ।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि ॥२-ख॥
चौपाला
हरषि भरत कोसलपुर आए । समाचार सब गुरहि सुनाए ॥
पुनि मंदिर महँ बात जनाई । आवत नगर कुसल रघुराई ॥
सुनत सकल जननीं उठि धाईं । कहि प्रभु कुसल भरत समुझाई ॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए । नर अरु नारि हरषि सब धाए ॥
दधि दुर्बा रोचन फल फूला । नव तुलसी दल मंगल मूला ॥
भरि भरि हेम थार भामिनी । गावत चलिं सिंधु सिंधुरगामिनी ॥
जे जैसेहिं तैसेहिं उटि धावहिं । बाल बृद्ध कहँ संग न लावहिं ॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई । तुम्ह देखे दयाल रघुराई ॥
अवधपुरी प्रभु आवत जानी । भई सकल सोभा कै खानी ॥
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा । भइ सरजू अति निर्मल नीरा ॥
दोहा
हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृंद समेत ।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत ॥३-क॥
बहुतक चढ़ी अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान ।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमंगल गान ॥३-ख॥
राका ससि रघुपति पुर सिंधु देखि हरषान ।
बढ़यो कोलाहल करत जनु नारि तरंग समान ॥३ग॥
चौपाला
इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर । कपिन्ह देखावत नगर मनोहर ॥
सुनु कपीस अंगद लंकेसा । पावन पुरी रुचिर यह देसा ॥
जद्यपि सब बैकुंठ बखाना । बेद पुरान बिदित जगु जाना ॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ । यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ ॥
जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि । उत्तर दिसि बह सरजू पावनि ॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा । मम समीप नर पावहिं बासा ॥
अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी । मम धामदा पुरी सुख रासी ॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी । धन्य अवध जो राम बखानी ॥
दोहा
आवत देखि लोग सब कृपासिंधु भगवान ।
नगर निकट प्रभु प्रेरेउ उतरेउ भूमि बिमान ॥४-क॥
उतरि कहेउ प्रभु पुष्पकहि तुम्ह कुबेर पहिं जाहु ।
प्रेरित राम चलेउ सो हरषु बिरहु अति ताहु ॥४-ख॥
चौपाला
आए भरत संग सब लोगा । कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा ॥
बामदेव बसिष्ठ मुनिनायक । देखे प्रभु महि धरि धनु सायक ॥
धाइ धरे गुर चरन सरोरुह । अनुज सहित अति पुलक तनोरुह ॥
भेंटि कुसल बूझी मुनिराया । हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया ॥
सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा । धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा ॥
गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज । नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज ॥
परे भूमि नहिं उठत उठाए । बर करि कृपासिंधु उर लाए ॥
स्यामल गात रोम भए ठाढ़े । नव राजीव नयन जल बाढ़े ॥
छंद
राजीव लोचन स्त्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी ।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी ॥
प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही ।
जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही ॥१॥
बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई ।
सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई ॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो ।
बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो ॥२॥
दोहा
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ॥५॥
चौपाला
भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे । दुसह बिरह संभव दुख मेटे ॥
सीता चरन भरत सिरु नावा । अनुज समेत परम सुख पावा ॥
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी । जनित बियोग बिपति सब नासी ॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी । कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी ॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला । जथाजोग मिले सबहि कृपाला ॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी । किए सकल नर नारि बिसोकी ॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना । उमा मरम यह काहुँ न जाना ॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा । आगें चले सील गुन धामा ॥
कौसल्यादि मातु सब धाई । निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई ॥
छंद
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं ।
दिन अंत पुर रुख स्त्रवत थन हुंकार करि धावत भई ॥
अति प्रेम सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे ।
गइ बिषम बियोग भव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे ॥
दोहा
भेटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि ।
रामहि मिलत कैकेई हृदयँ बहुत सकुचानि ॥६-क॥
लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ ।
कैकेइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ ॥६॥
चौपाला
सासुन्ह सबनि मिली बैदेही । चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता । होइ अचल तुम्हार अहिवाता ॥
सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं । मंगल जानि नयन जल रोकहिं ॥
कनक थार आरति उतारहिं । बार बार प्रभु गात निहारहिं ॥
नाना भाँति निछावरि करहीं । परमानंद हरष उर भरहीं ॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि । चितवति कृपासिंधु रनधीरहि ॥
हृदयँ बिचारति बारहिं बारा । कवन भाँति लंकापति मारा ॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे । निसिचर सुभट महाबल भारे ॥
दोहा
लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु ।
परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु ॥७॥
चौपाला
लंकापति कपीस नल नीला । जामवंत अंगद सुभसीला ॥
हनुमदादि सब बानर बीरा । धरे मनोहर मनुज सरीरा ॥
भरत सनेह सील ब्रत नेमा । सादर सब बरनहिं अति प्रेमा ॥
देखि नगरबासिन्ह कै रीती । सकल सराहहि प्रभु पद प्रीती ॥
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए । मुनि पद लागहु सकल सिखाए ॥
गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे । इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे ॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे । भए समर सागर कहँ बेरे ॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे । भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे ॥
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए । निमिष निमिष उपजत सुख नए ॥
दोहा
कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ ॥
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ ॥८-क॥
सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद ।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद ॥८-ख॥
चौपाला
कंचन कलस बिचित्र सँवारे । सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे ॥
बंदनवार पताका केतू । सबन्हि बनाए मंगल हेतू ॥
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई । गजमनि रचि बहु चौक पुराई ॥
नाना भाँति सुमंगल साजे । हरषि नगर निसान बहु बाजे ॥
जहँ तहँ नारि निछावर करहीं । देहिं असीस हरष उर भरहीं ॥
कंचन थार आरती नाना । जुबती सजें करहिं सुभ गाना ॥
करहिं आरती आरतिहर कें । रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें ॥
पुर सोभा संपति कल्याना । निगम सेष सारदा बखाना ॥
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं । उमा तासु गुन नर किमि कहहीं ॥
दोहा
नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस ।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस ॥९-क॥
होहिं सगुन सुभ बिबिध बिधि बाजहिं गगन निसान ।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान ॥९-ख॥
चौपाला
प्रभु जानी कैकेई लजानी । प्रथम तासु गृह गए भवानी ॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा । पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा ॥
कृपासिंधु जब मंदिर गए । पुर नर नारि सुखी सब भए ॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई । आजु सुघरी सुदिन समुदाई ॥
सब द्विज देहु हरषि अनुसासन । रामचंद्र बैठहिं सिंघासन ॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए । सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए ॥
कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका । जग अभिराम राम अभिषेका ॥
अब मुनिबर बिलंब नहिं कीजे । महाराज कहँ तिलक करीजै ॥
दोहा
तब मुनि कहेउ सुमंत्र सन सुनत चलेउ हरषाइ ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ ॥१०-क॥
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मंगल द्रब्य मगाइ ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ ॥१०-ख॥
नवान्हपारायण , आठवाँ विश्राम
चौपाला
अवधपुरी अति रुचिर बनाई । देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई । प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए । सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे । निज कर राम जटा निरुआरे ॥
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई । भगत बछल कृपाल रघुराई ॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई । सेष कोटि सत सकहिं न गाई ॥
पुनि निज जटा राम बिबराए । गुर अनुसासन मागि नहाए ॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे । अंग अनंग देखि सत लाजे ॥