लंकाकाण्ड दोहा १ से १०
दोहा
अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ ॥१॥
चौपाला
सैल बिसाल आनि कपि देहीं । कंदुक इव नल नील ते लेहीं ॥
देखि सेतु अति सुंदर रचना । बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥
परम रम्य उत्तम यह धरनी । महिमा अमित जाइ नहिं बरनी ॥
करिहउँ इहाँ संभु थापना । मोरे हृदयँ परम कलपना ॥
सुनि कपीस बहु दूत पठाए । मुनिबर सकल बोलि लै आए ॥
लिंग थापि बिधिवत करि पूजा । सिव समान प्रिय मोहि न दूजा ॥
सिव द्रोही मम भगत कहावा । सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा ॥
संकर बिमुख भगति चह मोरी । सो नारकी मूढ़ मति थोरी ॥
दोहा
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास ।
ते नर करहि कलप भरि धोर नरक महुँ बास ॥२॥
चौपाला
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं । ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं ॥
जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि । सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि ॥
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि । भगति मोरि तेहि संकर देइहि ॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही । सो बिनु श्रम भवसागर तरिही ॥
राम बचन सब के जिय भाए । मुनिबर निज निज आश्रम आए ॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती । संतत करहिं प्रनत पर प्रीती ॥
बाँधा सेतु नील नल नागर । राम कृपाँ जसु भयउ उजागर ॥
बूड़हिं आनहि बोरहिं जेई । भए उपल बोहित सम तेई ॥
महिमा यह न जलधि कइ बरनी । पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी ॥
दोहा
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान ।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन ॥३॥
चौपाला
बाँधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा । देखि कृपानिधि के मन भावा ॥
चली सेन कछु बरनि न जाई । गर्जहिं मर्कट भट समुदाई ॥
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई । चितव कृपाल सिंधु बहुताई ॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कंदा । प्रगट भए सब जलचर बृंदा ॥
मकर नक्र नाना झष ब्याला । सत जोजन तन परम बिसाला ॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं । एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं ॥
प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे । मन हरषित सब भए सुखारे ॥
तिन्ह की ओट न देखिअ बारी । मगन भए हरि रूप निहारी ॥
चला कटकु प्रभु आयसु पाई । को कहि सक कपि दल बिपुलाई ॥
दोहा
सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं ।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं ॥४॥
चौपाला
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई । बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा । कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा । सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए । सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥
सब तरु फरे राम हित लागी । रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥
खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं । लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं । घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥
दसनन्हि काटि नासिका काना । कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता । तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना । दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥
दोहा
बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस ।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ॥५॥
चौपाला
निज बिकलता बिचारि बहोरी । बिहँसि गयउ ग्रह करि भय भोरी ॥
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो । कौतुकहीं पाथोधि बँधायो ॥
कर गहि पतिहि भवन निज आनी । बोली परम मनोहर बानी ॥
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा । सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥
नाथ बयरु कीजे ताही सों । बुधि बल सकिअ जीति जाही सों ॥
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा । खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे । महाबीर दितिसुत संघारे ॥
जेहिं बलि बाँधि सहजभुज मारा । सोइ अवतरेउ हरन महि भारा ॥
तासु बिरोध न कीजिअ नाथा । काल करम जिव जाकें हाथा ॥
दोहा
रामहि सौपि जानकी नाइ कमल पद माथ ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ॥६॥
चौपाला
नाथ दीनदयाल रघुराई । बाघउ सनमुख गएँ न खाई ॥
चाहिअ करन सो सब करि बीते । तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥
संत कहहिं असि नीति दसानन । चौथेंपन जाइहि नृप कानन ॥
तासु भजन कीजिअ तहँ भर्ता । जो कर्ता पालक संहर्ता ॥
सोइ रघुवीर प्रनत अनुरागी । भजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी । भूप राजु तजि होहिं बिरागी ॥
सोइ कोसलधीस रघुराया । आयउ करन तोहि पर दाया ॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन । सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन ॥
दोहा
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात ।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात ॥७॥
चौपाला
तब रावन मयसुता उठाई । कहै लाग खल निज प्रभुताई ॥
सुनु तै प्रिया बृथा भय माना । जग जोधा को मोहि समाना ॥
बरुन कुबेर पवन जम काला । भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥
देव दनुज नर सब बस मोरें । कवन हेतु उपजा भय तोरें ॥
नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई । सभाँ बहोरि बैठ सो जाई ॥
मंदोदरीं हदयँ अस जाना । काल बस्य उपजा अभिमाना ॥
सभाँ आइ मंत्रिन्ह तेंहि बूझा । करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा ॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा । बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥
कहहु कवन भय करिअ बिचारा । नर कपि भालु अहार हमारा ॥
दोहा
सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि ।
निति बिरोध न करिअ प्रभु मत्रिंन्ह मति अति थोरि ॥८॥
चौपाला
कहहिं सचिव सठ ठकुरसोहाती । नाथ न पूर आव एहि भाँती ॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा । तासु चरित मन महुँ सबु गावा ॥
छुधा न रही तुम्हहि तब काहू । जारत नगरु कस न धरि खाहू ॥
सुनत नीक आगें दुख पावा । सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा ॥
जेहिं बारीस बँधायउ हेला । उतरेउ सेन समेत सुबेला ॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई । बचन कहहिं सब गाल फुलाई ॥
तात बचन मम सुनु अति आदर । जनि मन गुनहु मोहि करि कादर ॥
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं । ऐसे नर निकाय जग अहहीं ॥
बचन परम हित सुनत कठोरे । सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे ॥
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती । सीता देइ करहु पुनि प्रीती ॥
दोहा
नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि ।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि ॥९॥
चौपाला
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा । उभय प्रकार सुजसु जग तोरा ॥
सुत सन कह दसकंठ रिसाई । असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई ॥
अबहीं ते उर संसय होई । बेनुमूल सुत भयहु घमोई ॥
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा । चला भवन कहि बचन कठोरा ॥
हित मत तोहि न लागत कैसें । काल बिबस कहुँ भेषज जैसें ॥
संध्या समय जानि दससीसा । भवन चलेउ निरखत भुज बीसा ॥
लंका सिखर उपर आगारा । अति बिचित्र तहँ होइ अखारा ॥
बैठ जाइ तेही मंदिर रावन । लागे किंनर गुन गन गावन ॥
बाजहिं ताल पखाउज बीना । नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना ॥
दोहा
सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास ।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास ॥१० ॥
चौपाला
इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा । उतरे सेन सहित अति भीरा ॥
सिखर एक उतंग अति देखी । परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी ॥
तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए । लछिमन रचि निज हाथ डसाए ॥
ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला । तेहीं आसान आसीन कृपाला ॥
प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा । बाम दहिन दिसि चाप निषंगा ॥
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना । कह लंकेस मंत्र लगि काना ॥
बड़भागी अंगद हनुमाना । चरन कमल चापत बिधि नाना ॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन । कटि निषंग कर बान सरासन ॥