लंकाकाण्ड दोहा ३१ से ४०
दोहा
अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास ।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास ॥३१क॥
जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक ।
खाहीं निसाचर दिवस निसि मूढ़ समुझु तजि टेक ॥३१ख॥
चौपाला
जब तेहिं कीन्ह राम कै निंदा । क्रोधवंत अति भयउ कपिंदा ॥
हरि हर निंदा सुनइ जो काना । होइ पाप गोघात समाना ॥
कटकटान कपिकुंजर भारी । दुहु भुजदंड तमकि महि मारी ॥
डोलत धरनि सभासद खसे । चले भाजि भय मारुत ग्रसे ॥
गिरत सँभारि उठा दसकंधर । भूतल परे मुकुट अति सुंदर ॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे । कछु अंगद प्रभु पास पबारे ॥
आवत मुकुट देखि कपि भागे । दिनहीं लूक परन बिधि लागे ॥
की रावन करि कोप चलाए । कुलिस चारि आवत अति धाए ॥
कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू । लूक न असनि केतु नहिं राहू ॥
ए किरीट दसकंधर केरे । आवत बालितनय के प्रेरे ॥
दोहा
तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास ।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास ॥३२क॥
उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अंगद मुसुकाइ ॥३२ख॥
चौपाला
एहि बिधि बेगि सूभट सब धावहु । खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु ॥
मर्कटहीन करहु महि जाई । जिअत धरहु तापस द्वौ भाई ॥
पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा । गाल बजावत तोहि न लाजा ॥
मरु गर काटि निलज कुलघाती । बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती ॥
रे त्रिय चोर कुमारग गामी । खल मल रासि मंदमति कामी ॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा । भएसि कालबस खल मनुजादा ॥
याको फलु पावहिगो आगें । बानर भालु चपेटन्हि लागें ॥
रामु मनुज बोलत असि बानी । गिरहिं न तव रसना अभिमानी ॥
गिरिहहिं रसना संसय नाहीं । सिरन्हि समेत समर महि माहीं ॥
सोरठा
सो नर क्यों दसकंध बालि बध्यो जेहिं एक सर ।
बीसहुँ लोचन अंध धिग तव जन्म कुजाति जड़ ॥३३क॥
तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर ।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ॥३३ख॥
मै तव दसन तोरिबे लायक । आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक ॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं । लंका गहि समुद्र महँ बोरौं ॥
गूलरि फल समान तव लंका । बसहु मध्य तुम्ह जंतु असंका ॥
मैं बानर फल खात न बारा । आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥
जुगति सुनत रावन मुसुकाई । मूढ़ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई ॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा । मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा ॥
साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा । जौं न उपारिउँ तव दस जीहा ॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा । सभा माझ पन करि पद रोपा ॥
जौं मम चरन सकसि सठ टारी । फिरहिं रामु सीता मैं हारी ॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा । पद गहि धरनि पछारहु कीसा ॥
इंद्रजीत आदिक बलवाना । हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना ॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई । पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई ॥
पुनि उठि झपटहीं सुर आराती । टरइ न कीस चरन एहि भाँती ॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी । मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी ॥
दोहा
कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ ॥३४क॥
भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग ॥
कोटि बिघ्न ते संत कर मन जिमि नीति न त्याग ॥३४ख॥
चौपाला
कपि बल देखि सकल हियँ हारे । उठा आपु कपि कें परचारे ॥
गहत चरन कह बालिकुमारा । मम पद गहें न तोर उबारा ॥
गहसि न राम चरन सठ जाई । सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥
भयउ तेजहत श्री सब गई । मध्य दिवस जिमि ससि सोहई ॥
सिंघासन बैठेउ सिर नाई । मानहुँ संपति सकल गँवाई ॥
जगदातमा प्रानपति रामा । तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा । होइ बिस्व पुनि पावइ नासा ॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई । तासु दूत पन कहु किमि टरई ॥
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना । मान न ताहि कालु निअराना ॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो । यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई । तोहि अबहिं का करौं बड़ाई ॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा । सो सुनि रावन भयउ दुखारा ॥
जातुधान अंगद पन देखी । भय ब्याकुल सब भए बिसेषी ॥
दोहा
रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज ।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज ॥३५क॥
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ ।
मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ख॥
चौपाला
कंत समुझि मन तजहु कुमतिही । सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही ॥
रामानुज लघु रेख खचाई । सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई ॥
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा । जाके दूत केर यह कामा ॥
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका । आयउ कपि केहरी असंका ॥
रखवारे हति बिपिन उजारा । देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा ॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा । कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा ॥
अब पति मृषा गाल जनि मारहु । मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु ॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु । अग जग नाथ अतुल बल जानहु ॥
बान प्रताप जान मारीचा । तासु कहा नहिं मानेहि नीचा ॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला । रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला ॥
भंजि धनुष जानकी बिआही । तब संग्राम जितेहु किन ताही ॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा । राखा जिअत आँखि गहि फोरा ॥
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी । तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी ॥
दोहा
बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध ।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध ॥३६॥
चौपाला
जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला । उतरे प्रभु दल सहित सुबेला ॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू । दूत पठायउ तव हित हेतू ॥
सभा माझ जेहिं तव बल मथा । करि बरूथ महुँ मृगपति जथा ॥
अंगद हनुमत अनुचर जाके । रन बाँकुरे बीर अति बाँके ॥
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू । मुधा मान ममता मद बहहू ॥
अहह कंत कृत राम बिरोधा । काल बिबस मन उपज न बोधा ॥
काल दंड गहि काहु न मारा । हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा ॥
निकट काल जेहि आवत साईं । तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं ॥
दोहा
दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु ।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु ॥३७॥
चौपाला
नारि बचन सुनि बिसिख समाना । सभाँ गयउ उठि होत बिहाना ॥
बैठ जाइ सिंघासन फूली । अति अभिमान त्रास सब भूली ॥
इहाँ राम अंगदहि बोलावा । आइ चरन पंकज सिरु नावा ॥
अति आदर सपीप बैठारी । बोले बिहँसि कृपाल खरारी ॥
बालितनय कौतुक अति मोही । तात सत्य कहु पूछउँ तोही ॥ ।
रावनु जातुधान कुल टीका । भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए । कहहु तात कवनी बिधि पाए ॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी । मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥
साम दान अरु दंड बिभेदा । नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥
नीति धर्म के चरन सुहाए । अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥
दोहा
धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस ।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस ॥३८क॥
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार ।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार ॥३८ख॥
चौपाला
रिपु के समाचार जब पाए । राम सचिव सब निकट बोलाए ॥
लंका बाँके चारि दुआरा । केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा ॥
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन । सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन ॥
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा । चारि अनी कपि कटकु बनावा ॥
जथाजोग सेनापति कीन्हे । जूथप सकल बोलि तब लीन्हे ॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए । सुनि कपि सिंघनाद करि धाए ॥
हरषित राम चरन सिर नावहिं । गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं ॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा । जय रघुबीर कोसलाधीसा ॥
जानत परम दुर्ग अति लंका । प्रभु प्रताप कपि चले असंका ॥
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी । मुखहिं निसान बजावहीं भेरी ॥
दोहा
जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव ।
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव ॥३९॥
चौपाला
लंकाँ भयउ कोलाहल भारी । सुना दसानन अति अहँकारी ॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई । बिहँसि निसाचर सेन बोलाई ॥
आए कीस काल के प्रेरे । छुधावंत सब निसिचर मेरे ॥
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा । गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा ॥
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू । धरि धरि भालु कीस सब खाहू ॥
उमा रावनहि अस अभिमाना । जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ॥
चले निसाचर आयसु मागी । गहि कर भिंडिपाल बर साँगी ॥
तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा । सुल कृपान परिघ गिरिखंडा ॥
जिमि अरुनोपल निकर निहारी । धावहिं सठ खग मांस अहारी ॥
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा । तिमि धाए मनुजाद अबूझा ॥
दोहा
नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर ।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर ॥४० ॥
चौपाला
कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे । मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे ॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ । सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ ॥
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा । सुनि कादर उर जाहिं दरारा ॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा । अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा ॥
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा । पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा ॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं । दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं ॥
उत रावन इत राम दोहाई । जयति जयति जय परी लराई ॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं । कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं ॥
छंद
धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं ।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं ॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए ।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए ॥