अयोध्या काण्ड दोहा १६१ से १७०
दोहा
हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।
जननी तूँ जननी भई बिधि सन कछु न बसाइ ॥१६१॥
चौपाला
जब तैं कुमति कुमत जियँ ठयऊ । खंड खंड होइ ह्रदउ न गयऊ ॥
बर मागत मन भइ नहिं पीरा । गरि न जीह मुहँ परेउ न कीरा ॥
भूपँ प्रतीत तोरि किमि कीन्ही । मरन काल बिधि मति हरि लीन्ही ॥
बिधिहुँ न नारि हृदय गति जानी । सकल कपट अघ अवगुन खानी ॥
सरल सुसील धरम रत राऊ । सो किमि जानै तीय सुभाऊ ॥
अस को जीव जंतु जग माहीं । जेहि रघुनाथ प्रानप्रिय नाहीं ॥
भे अति अहित रामु तेउ तोही । को तू अहसि सत्य कहु मोही ॥
जो हसि सो हसि मुहँ मसि लाई । आँखि ओट उठि बैठहिं जाई ॥
दोहा
राम बिरोधी हृदय तें प्रगट कीन्ह बिधि मोहि।
मो समान को पातकी बादि कहउँ कछु तोहि ॥१६२॥
चौपाला
सुनि सत्रुघुन मातु कुटिलाई । जरहिं गात रिस कछु न बसाई ॥
तेहि अवसर कुबरी तहँ आई । बसन बिभूषन बिबिध बनाई ॥
लखि रिस भरेउ लखन लघु भाई । बरत अनल घृत आहुति पाई ॥
हुमगि लात तकि कूबर मारा । परि मुह भर महि करत पुकारा ॥
कूबर टूटेउ फूट कपारू । दलित दसन मुख रुधिर प्रचारू ॥
आह दइअ मैं काह नसावा । करत नीक फलु अनइस पावा ॥
सुनि रिपुहन लखि नख सिख खोटी । लगे घसीटन धरि धरि झोंटी ॥
भरत दयानिधि दीन्हि छड़ाई । कौसल्या पहिं गे दोउ भाई ॥
दोहा
मलिन बसन बिबरन बिकल कृस सरीर दुख भार।
कनक कलप बर बेलि बन मानहुँ हनी तुसार ॥१६३॥
चौपाला
भरतहि देखि मातु उठि धाई । मुरुछित अवनि परी झइँ आई ॥
देखत भरतु बिकल भए भारी । परे चरन तन दसा बिसारी ॥
मातु तात कहँ देहि देखाई । कहँ सिय रामु लखनु दोउ भाई ॥
कैकइ कत जनमी जग माझा । जौं जनमि त भइ काहे न बाँझा ॥
कुल कलंकु जेहिं जनमेउ मोही । अपजस भाजन प्रियजन द्रोही ॥
को तिभुवन मोहि सरिस अभागी । गति असि तोरि मातु जेहि लागी ॥
पितु सुरपुर बन रघुबर केतू । मैं केवल सब अनरथ हेतु ॥
धिग मोहि भयउँ बेनु बन आगी । दुसह दाह दुख दूषन भागी ॥
दोहा
मातु भरत के बचन मृदु सुनि सुनि उठी सँभारि ॥
लिए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचति बारि ॥१६४॥
चौपाला
सरल सुभाय मायँ हियँ लाए । अति हित मनहुँ राम फिरि आए ॥
भेंटेउ बहुरि लखन लघु भाई । सोकु सनेहु न हृदयँ समाई ॥
देखि सुभाउ कहत सबु कोई । राम मातु अस काहे न होई ॥
माताँ भरतु गोद बैठारे । आँसु पौंछि मृदु बचन उचारे ॥
अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू । कुसमउ समुझि सोक परिहरहू ॥
जनि मानहु हियँ हानि गलानी । काल करम गति अघटित जानि ॥
काहुहि दोसु देहु जनि ताता । भा मोहि सब बिधि बाम बिधाता ॥
जो एतेहुँ दुख मोहि जिआवा । अजहुँ को जानइ का तेहि भावा ॥
दोहा
पितु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर।
बिसमउ हरषु न हृदयँ कछु पहिरे बलकल चीर । १६५॥
चौपाला
मुख प्रसन्न मन रंग न रोषू । सब कर सब बिधि करि परितोषू ॥
चले बिपिन सुनि सिय सँग लागी । रहइ न राम चरन अनुरागी ॥
सुनतहिं लखनु चले उठि साथा । रहहिं न जतन किए रघुनाथा ॥
तब रघुपति सबही सिरु नाई । चले संग सिय अरु लघु भाई ॥
रामु लखनु सिय बनहि सिधाए । गइउँ न संग न प्रान पठाए ॥
यहु सबु भा इन्ह आँखिन्ह आगें । तउ न तजा तनु जीव अभागें ॥
मोहि न लाज निज नेहु निहारी । राम सरिस सुत मैं महतारी ॥
जिऐ मरै भल भूपति जाना । मोर हृदय सत कुलिस समाना ॥
दोहा
कौसल्या के बचन सुनि भरत सहित रनिवास।
ब्याकुल बिलपत राजगृह मानहुँ सोक नेवासु ॥१६६॥
चौपाला
बिलपहिं बिकल भरत दोउ भाई । कौसल्याँ लिए हृदयँ लगाई ॥
भाँति अनेक भरतु समुझाए । कहि बिबेकमय बचन सुनाए ॥
भरतहुँ मातु सकल समुझाईं । कहि पुरान श्रुति कथा सुहाईं ॥
छल बिहीन सुचि सरल सुबानी । बोले भरत जोरि जुग पानी ॥
जे अघ मातु पिता सुत मारें । गाइ गोठ महिसुर पुर जारें ॥
जे अघ तिय बालक बध कीन्हें । मीत महीपति माहुर दीन्हें ॥
जे पातक उपपातक अहहीं । करम बचन मन भव कबि कहहीं ॥
ते पातक मोहि होहुँ बिधाता । जौं यहु होइ मोर मत माता ॥
दोहा
जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि जौं जननी मत मोर ॥१६७॥
चौपाला
बेचहिं बेदु धरमु दुहि लेहीं । पिसुन पराय पाप कहि देहीं ॥
कपटी कुटिल कलहप्रिय क्रोधी । बेद बिदूषक बिस्व बिरोधी ॥
लोभी लंपट लोलुपचारा । जे ताकहिं परधनु परदारा ॥
पावौं मैं तिन्ह के गति घोरा । जौं जननी यहु संमत मोरा ॥
जे नहिं साधुसंग अनुरागे । परमारथ पथ बिमुख अभागे ॥
जे न भजहिं हरि नरतनु पाई । जिन्हहि न हरि हर सुजसु सोहाई ॥
तजि श्रुतिपंथु बाम पथ चलहीं । बंचक बिरचि बेष जगु छलहीं ॥
तिन्ह कै गति मोहि संकर देऊ । जननी जौं यहु जानौं भेऊ ॥
दोहा
मातु भरत के बचन सुनि साँचे सरल सुभायँ।
कहति राम प्रिय तात तुम्ह सदा बचन मन कायँ ॥१६८॥
चौपाला
राम प्रानहु तें प्रान तुम्हारे । तुम्ह रघुपतिहि प्रानहु तें प्यारे ॥
बिधु बिष चवै स्त्रवै हिमु आगी । होइ बारिचर बारि बिरागी ॥
भएँ ग्यानु बरु मिटै न मोहू । तुम्ह रामहि प्रतिकूल न होहू ॥
मत तुम्हार यहु जो जग कहहीं । सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं ॥
अस कहि मातु भरतु हियँ लाए । थन पय स्त्रवहिं नयन जल छाए ॥
करत बिलाप बहुत यहि भाँती । बैठेहिं बीति गइ सब राती ॥
बामदेउ बसिष्ठ तब आए । सचिव महाजन सकल बोलाए ॥
मुनि बहु भाँति भरत उपदेसे । कहि परमारथ बचन सुदेसे ॥
दोहा
तात हृदयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु।
उठे भरत गुर बचन सुनि करन कहेउ सबु साजु ॥१६९॥
चौपाला
नृपतनु बेद बिदित अन्हवावा । परम बिचित्र बिमानु बनावा ॥
गहि पद भरत मातु सब राखी । रहीं रानि दरसन अभिलाषी ॥
चंदन अगर भार बहु आए । अमित अनेक सुगंध सुहाए ॥
सरजु तीर रचि चिता बनाई । जनु सुरपुर सोपान सुहाई ॥
एहि बिधि दाह क्रिया सब कीन्ही । बिधिवत न्हाइ तिलांजुलि दीन्ही ॥
सोधि सुमृति सब बेद पुराना । कीन्ह भरत दसगात बिधाना ॥
जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा । तहँ तस सहस भाँति सबु कीन्हा ॥
भए बिसुद्ध दिए सब दाना । धेनु बाजि गज बाहन नाना ॥
दोहा
सिंघासन भूषन बसन अन्न धरनि धन धाम।
दिए भरत लहि भूमिसुर भे परिपूरन काम ॥१७०॥
चौपाला
पितु हित भरत कीन्हि जसि करनी । सो मुख लाख जाइ नहिं बरनी ॥
सुदिनु सोधि मुनिबर तब आए । सचिव महाजन सकल बोलाए ॥
बैठे राजसभाँ सब जाई । पठए बोलि भरत दोउ भाई ॥
भरतु बसिष्ठ निकट बैठारे । नीति धरममय बचन उचारे ॥
प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी । कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी ॥
भूप धरमब्रतु सत्य सराहा । जेहिं तनु परिहरि प्रेमु निबाहा ॥
कहत राम गुन सील सुभाऊ । सजल नयन पुलकेउ मुनिराऊ ॥
बहुरि लखन सिय प्रीति बखानी । सोक सनेह मगन मुनि ग्यानी ॥