अयोध्या काण्ड दोहा १११ से १२०
दोहा
तब रघुबीर अनेक बिधि सखहि सिखावनु दीन्ह।
राम रजायसु सीस धरि भवन गवनु तेँइँ कीन्ह ॥१११॥
चौपाला
पुनि सियँ राम लखन कर जोरी । जमुनहि कीन्ह प्रनामु बहोरी ॥
चले ससीय मुदित दोउ भाई । रबितनुजा कइ करत बड़ाई ॥
पथिक अनेक मिलहिं मग जाता । कहहिं सप्रेम देखि दोउ भ्राता ॥
राज लखन सब अंग तुम्हारें । देखि सोचु अति हृदय हमारें ॥
मारग चलहु पयादेहि पाएँ । ज्योतिषु झूठ हमारें भाएँ ॥
अगमु पंथ गिरि कानन भारी । तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी ॥
करि केहरि बन जाइ न जोई । हम सँग चलहि जो आयसु होई ॥
जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई । फिरब बहोरि तुम्हहि सिरु नाई ॥
दोहा
एहि बिधि पूँछहिं प्रेम बस पुलक गात जलु नैन।
कृपासिंधु फेरहि तिन्हहि कहि बिनीत मृदु बैन ॥११२॥
चौपाला
जे पुर गाँव बसहिं मग माहीं । तिन्हहि नाग सुर नगर सिहाहीं ॥
केहि सुकृतीं केहि घरीं बसाए । धन्य पुन्यमय परम सुहाए ॥
जहँ जहँ राम चरन चलि जाहीं । तिन्ह समान अमरावति नाहीं ॥
पुन्यपुंज मग निकट निवासी । तिन्हहि सराहहिं सुरपुरबासी ॥
जे भरि नयन बिलोकहिं रामहि । सीता लखन सहित घनस्यामहि ॥
जे सर सरित राम अवगाहहिं । तिन्हहि देव सर सरित सराहहिं ॥
जेहि तरु तर प्रभु बैठहिं जाई । करहिं कलपतरु तासु बड़ाई ॥
परसि राम पद पदुम परागा । मानति भूमि भूरि निज भागा ॥
दोहा
छाँह करहि घन बिबुधगन बरषहि सुमन सिहाहिं।
देखत गिरि बन बिहग मृग रामु चले मग जाहिं ॥११३॥
चौपाला
सीता लखन सहित रघुराई । गाँव निकट जब निकसहिं जाई ॥
सुनि सब बाल बृद्ध नर नारी । चलहिं तुरत गृहकाजु बिसारी ॥
राम लखन सिय रूप निहारी । पाइ नयनफलु होहिं सुखारी ॥
सजल बिलोचन पुलक सरीरा । सब भए मगन देखि दोउ बीरा ॥
बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी । लहि जनु रंकन्ह सुरमनि ढेरी ॥
एकन्ह एक बोलि सिख देहीं । लोचन लाहु लेहु छन एहीं ॥
रामहि देखि एक अनुरागे । चितवत चले जाहिं सँग लागे ॥
एक नयन मग छबि उर आनी । होहिं सिथिल तन मन बर बानी ॥
दोहा
एक देखिं बट छाँह भलि डासि मृदुल तृन पात।
कहहिं गवाँइअ छिनुकु श्रमु गवनब अबहिं कि प्रात ॥११४॥
चौपाला
एक कलस भरि आनहिं पानी । अँचइअ नाथ कहहिं मृदु बानी ॥
सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी । राम कृपाल सुसील बिसेषी ॥
जानी श्रमित सीय मन माहीं । घरिक बिलंबु कीन्ह बट छाहीं ॥
मुदित नारि नर देखहिं सोभा । रूप अनूप नयन मनु लोभा ॥
एकटक सब सोहहिं चहुँ ओरा । रामचंद्र मुख चंद चकोरा ॥
तरुन तमाल बरन तनु सोहा । देखत कोटि मदन मनु मोहा ॥
दामिनि बरन लखन सुठि नीके । नख सिख सुभग भावते जी के ॥
मुनिपट कटिन्ह कसें तूनीरा । सोहहिं कर कमलिनि धनु तीरा ॥
दोहा
जटा मुकुट सीसनि सुभग उर भुज नयन बिसाल।
सरद परब बिधु बदन बर लसत स्वेद कन जाल ॥११५॥
चौपाला
बरनि न जाइ मनोहर जोरी । सोभा बहुत थोरि मति मोरी ॥
राम लखन सिय सुंदरताई । सब चितवहिं चित मन मति लाई ॥
थके नारि नर प्रेम पिआसे । मनहुँ मृगी मृग देखि दिआ से ॥
सीय समीप ग्रामतिय जाहीं । पूँछत अति सनेहँ सकुचाहीं ॥
बार बार सब लागहिं पाएँ । कहहिं बचन मृदु सरल सुभाएँ ॥
राजकुमारि बिनय हम करहीं । तिय सुभायँ कछु पूँछत डरहीं।
स्वामिनि अबिनय छमबि हमारी । बिलगु न मानब जानि गवाँरी ॥
राजकुअँर दोउ सहज सलोने । इन्ह तें लही दुति मरकत सोने ॥
दोहा
स्यामल गौर किसोर बर सुंदर सुषमा ऐन।
सरद सर्बरीनाथ मुखु सरद सरोरुह नैन ॥११६॥
मासपारायण , सोलहवाँ विश्राम
नवान्हपारायण , चौथा विश्राम
चौपाला
कोटि मनोज लजावनिहारे । सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे ॥
सुनि सनेहमय मंजुल बानी । सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी ॥
तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी । दुहुँ सकोच सकुचित बरबरनी ॥
सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी । बोली मधुर बचन पिकबयनी ॥
सहज सुभाय सुभग तन गोरे । नामु लखनु लघु देवर मोरे ॥
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी । पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी ॥
खंजन मंजु तिरीछे नयननि । निज पति कहेउ तिन्हहि सियँ सयननि ॥
भइ मुदित सब ग्रामबधूटीं । रंकन्ह राय रासि जनु लूटीं ॥
दोहा
अति सप्रेम सिय पायँ परि बहुबिधि देहिं असीस।
सदा सोहागिनि होहु तुम्ह जब लगि महि अहि सीस ॥११७॥
चौपाला
पारबती सम पतिप्रिय होहू । देबि न हम पर छाड़ब छोहू ॥
पुनि पुनि बिनय करिअ कर जोरी । जौं एहि मारग फिरिअ बहोरी ॥
दरसनु देब जानि निज दासी । लखीं सीयँ सब प्रेम पिआसी ॥
मधुर बचन कहि कहि परितोषीं । जनु कुमुदिनीं कौमुदीं पोषीं ॥
तबहिं लखन रघुबर रुख जानी । पूँछेउ मगु लोगन्हि मृदु बानी ॥
सुनत नारि नर भए दुखारी । पुलकित गात बिलोचन बारी ॥
मिटा मोदु मन भए मलीने । बिधि निधि दीन्ह लेत जनु छीने ॥
समुझि करम गति धीरजु कीन्हा । सोधि सुगम मगु तिन्ह कहि दीन्हा ॥
दोहा
लखन जानकी सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ॥११८॥ ý
चौपाला
फिरत नारि नर अति पछिताहीं । देअहि दोषु देहिं मन माहीं ॥
सहित बिषाद परसपर कहहीं । बिधि करतब उलटे सब अहहीं ॥
निपट निरंकुस निठुर निसंकू । जेहिं ससि कीन्ह सरुज सकलंकू ॥
रूख कलपतरु सागरु खारा । तेहिं पठए बन राजकुमारा ॥
जौं पे इन्हहि दीन्ह बनबासू । कीन्ह बादि बिधि भोग बिलासू ॥
ए बिचरहिं मग बिनु पदत्राना । रचे बादि बिधि बाहन नाना ॥
ए महि परहिं डासि कुस पाता । सुभग सेज कत सृजत बिधाता ॥
तरुबर बास इन्हहि बिधि दीन्हा । धवल धाम रचि रचि श्रमु कीन्हा ॥
दोहा
जौं ए मुनि पट धर जटिल सुंदर सुठि सुकुमार।
बिबिध भाँति भूषन बसन बादि किए करतार ॥११९॥
चौपाला
जौं ए कंद मूल फल खाहीं । बादि सुधादि असन जग माहीं ॥
एक कहहिं ए सहज सुहाए । आपु प्रगट भए बिधि न बनाए ॥
जहँ लगि बेद कही बिधि करनी । श्रवन नयन मन गोचर बरनी ॥
देखहु खोजि भुअन दस चारी । कहँ अस पुरुष कहाँ असि नारी ॥
इन्हहि देखि बिधि मनु अनुरागा । पटतर जोग बनावै लागा ॥
कीन्ह बहुत श्रम ऐक न आए । तेहिं इरिषा बन आनि दुराए ॥
एक कहहिं हम बहुत न जानहिं । आपुहि परम धन्य करि मानहिं ॥
ते पुनि पुन्यपुंज हम लेखे । जे देखहिं देखिहहिं जिन्ह देखे ॥
दोहा
एहि बिधि कहि कहि बचन प्रिय लेहिं नयन भरि नीर।
किमि चलिहहि मारग अगम सुठि सुकुमार सरीर ॥१२०॥
चौपाला
नारि सनेह बिकल बस होहीं । चकई साँझ समय जनु सोहीं ॥
मृदु पद कमल कठिन मगु जानी । गहबरि हृदयँ कहहिं बर बानी ॥
परसत मृदुल चरन अरुनारे । सकुचति महि जिमि हृदय हमारे ॥
जौं जगदीस इन्हहि बनु दीन्हा । कस न सुमनमय मारगु कीन्हा ॥
जौं मागा पाइअ बिधि पाहीं । ए रखिअहिं सखि आँखिन्ह माहीं ॥
जे नर नारि न अवसर आए । तिन्ह सिय रामु न देखन पाए ॥
सुनि सुरुप बूझहिं अकुलाई । अब लगि गए कहाँ लगि भाई ॥
समरथ धाइ बिलोकहिं जाई । प्रमुदित फिरहिं जनमफलु पाई ॥