सुन्दरकाण्ड दोहा ११ से २०
दोहा
जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच ।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥११॥
चौपाला
त्रिजटा सन बोली कर जोरी । मातु बिपति संगिनि तैं मोरी ॥
तजौं देह करु बेगि उपाई । दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई ॥
आनि काठ रचु चिता बनाई । मातु अनल पुनि देहि लगाई ॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनै को श्रवन सूल सम बानी ॥
सुनत बचन पद गहि समुझाएसि । प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि ॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी । अस कहि सो निज भवन सिधारी ॥
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला । मिलहि न पावक मिटिहि न सूला ॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा । अवनि न आवत एकउ तारा ॥
पावकमय ससि स्त्रवत न आगी । मानहुँ मोहि जानि हतभागी ॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥
नूतन किसलय अनल समाना । देहि अगिनि जनि करहि निदाना ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । सो छन कपिहि कलप सम बीता ॥
सोरठा
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब ।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ॥१२॥
चौपाला
तब देखी मुद्रिका मनोहर । राम नाम अंकित अति सुंदर ॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी । हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी ॥
जीति को सकइ अजय रघुराई । माया तें असि रचि नहिं जाई ॥
सीता मन बिचार कर नाना । मधुर बचन बोलेउ हनुमाना ॥
रामचंद्र गुन बरनैं लागा । सुनतहिं सीता कर दुख भागा ॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई । आदिहु तें सब कथा सुनाई ॥
श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई । कहि सो प्रगट होति किन भाई ॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ । फिरि बैंठीं मन बिसमय भयऊ ॥
राम दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान की ॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी । दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी ॥
नर बानरहि संग कहु कैसें । कहि कथा भइ संगति जैसें ॥
दोहा
कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास ॥
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥१३॥
चौपाला
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी । सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी ॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयउ तात मों कहुँ जलजाना ॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख भवन खरारी ॥
कोमलचित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥
सहज बानि सेवक सुख दायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता । होइहहि निरखि स्याम मृदु गाता ॥
बचनु न आव नयन भरे बारी । अहह नाथ हौं निपट बिसारी ॥
देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना । तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना ॥
दोहा
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर ।
अस कहि कपि गद गद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥१४॥
चौपाला
कहेउ राम बियोग तव सीता । मो कहुँ सकल भए बिपरीता ॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू । कालनिसा सम निसि ससि भानू ॥
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु बरिसा ॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा ॥
कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहौं यह जान न कोई ॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा । जानत प्रिया एकु मनु मोरा ॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं । जानु प्रीति रसु एतेनहि माहीं ॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥
कह कपि हृदयँ धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक सुखदाता ॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बचन तजहु कदराई ॥
दोहा
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु ।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥१५॥
चौपाला
जौं रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलंबु रघुराई ॥
रामबान रबि उएँ जानकी । तम बरूथ कहँ जातुधान की ॥
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई । प्रभु आयसु नहिं राम दोहाई ॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं । तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं ॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना । जातुधान अति भट बलवाना ॥
मोरें हृदय परम संदेहा । सुनि कपि प्रगट कीन्ह निज देहा ॥
कनक भूधराकार सरीरा । समर भयंकर अतिबल बीरा ॥
सीता मन भरोस तब भयऊ । पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ ॥
दोहा
सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल ।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥१६॥
चौपाला
मन संतोष सुनत कपि बानी । भगति प्रताप तेज बल सानी ॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना । होहु तात बल सील निधाना ॥
अजर अमर गुननिधि सुत होहू । करहुँ बहुत रघुनायक छोहू ॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना । निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥
बार बार नाएसि पद सीसा । बोला बचन जोरि कर कीसा ॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता । आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा । लागि देखि सुंदर फल रूखा ॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं । जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥
दोहा
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु ।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥१७॥
चौपाला
चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा । फल खाएसि तरु तोरैं लागा ॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे । कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे ॥
नाथ एक आवा कपि भारी । तेहिं असोक बाटिका उजारी ॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे । रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे ॥
सुनि रावन पठए भट नाना । तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना ॥
सब रजनीचर कपि संघारे । गए पुकारत कछु अधमारे ॥
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा । चला संग लै सुभट अपारा ॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा । ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥
दोहा
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥१८॥
चौपाला
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना । पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बांधेसु ताही । देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा । बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा । कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा । बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा । गहि गहि कपि मर्दइ निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा । भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ।
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई । ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया । जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥
दोहा
ब्रह्म अस्त्र तेहिं साँधा कपि मन कीन्ह बिचार ।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥१९॥
चौपाला
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहि मारा । परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहि देखा कपि मुरुछित भयऊ । नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी । भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा । प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए । कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता । भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका । जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
दोहा
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद ।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिषाद ॥२०॥
चौपाला
कह लंकेस कवन तैं कीसा । केहिं के बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही । देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा । कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया । पाइ जासु बल बिरचित माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत सृजत हरत दससीसा ।
जा बल सीस धरत सहसानन । अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता । तुम्ह ते सठन्ह सिखावनु दाता ।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा । तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली । बधे सकल अतुलित बलसाली ॥