बालकाण्ड दोहा २८१ से २९०
दोहा
प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु ॥२८१॥
चौपाला
देखि कुठार बान धनु धारी । भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी ॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा । बंस सुभायँ उतरु तेंहिं दीन्हा ॥
जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं । पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं ॥
छमहु चूक अनजानत केरी । चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी ॥
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा ॥कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा ॥
राम मात्र लघु नाम हमारा । परसु सहित बड़ नाम तोहारा ॥
देव एकु गुनु धनुष हमारें । नव गुन परम पुनीत तुम्हारें ॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे । छमहु बिप्र अपराध हमारे ॥
दोहा
बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम ॥२८२॥
चौपाला
निपटहिं द्विज करि जानहि मोही । मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही ॥
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू । कोप मोर अति घोर कृसानु ॥
समिधि सेन चतुरंग सुहाई । महा महीप भए पसु आई ॥
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे । समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे ॥
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें । बोलसि निदरि बिप्र के भोरें ॥
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा । अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा ॥
राम कहा मुनि कहहु बिचारी । रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी ॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना । मैं कहि हेतु करौं अभिमाना ॥
दोहा
जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ ॥२८३॥
चौपाला
देव दनुज भूपति भट नाना । समबल अधिक होउ बलवाना ॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ । लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥
छत्रिय तनु धरि समर सकाना । कुल कलंकु तेहिं पावँर आना ॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुबंसी ॥
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई । अभय होइ जो तुम्हहि डेराई ॥
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के । उघरे पटल परसुधर मति के ॥
राम रमापति कर धनु लेहू । खैंचहु मिटै मोर संदेहू ॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ । परसुराम मन बिसमय भयऊ ॥
दोहा
जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात ॥२८४॥
चौपाला
जय रघुबंस बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानु ॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ॥
बिनय सील करुना गुन सागर । जयति बचन रचना अति नागर ॥
सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सरीर छबि कोटि अनंगा ॥
करौं काह मुख एक प्रसंसा । जय महेस मन मानस हंसा ॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता । छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता ॥
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । भृगुपति गए बनहि तप हेतू ॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने । जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने ॥
दोहा
देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल ॥२८५॥
चौपाला
अति गहगहे बाजने बाजे । सबहिं मनोहर मंगल साजे ॥
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं । करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई । जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥
गत त्रास भइ सीय सुखारी । जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं । अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना । रहा बिबाहु चाप आधीना ॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू । सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥
दोहा
तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥२८६॥
चौपाला
दूत अवधपुर पठवहु जाई । आनहिं नृप दसरथहि बोलाई ॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला । पठए दूत बोलि तेहि काला ॥
बहुरि महाजन सकल बोलाए । आइ सबन्हि सादर सिर नाए ॥
हाट बाट मंदिर सुरबासा । नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा ॥
हरषि चले निज निज गृह आए । पुनि परिचारक बोलि पठाए ॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई । सिर धरि बचन चले सचु पाई ॥
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना । जे बितान बिधि कुसल सुजाना ॥
बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा । बिरचे कनक कदलि के खंभा ॥
दोहा
हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल ॥२८७॥
चौपाला
बेनि हरित मनिमय सब कीन्हे । सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे ॥
कनक कलित अहिबेल बनाई । लखि नहि परइ सपरन सुहाई ॥
तेहि के रचि पचि बंध बनाए । बिच बिच मुकता दाम सुहाए ॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा । चीरि कोरि पचि रचे सरोजा ॥
किए भृंग बहुरंग बिहंगा । गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा ॥
सुर प्रतिमा खंभन गढ़ी काढ़ी । मंगल द्रब्य लिएँ सब ठाढ़ी ॥
चौंकें भाँति अनेक पुराईं । सिंधुर मनिमय सहज सुहाई ॥
दोहा
सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि ॥
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि ॥२८८॥
चौपाला
रचे रुचिर बर बंदनिबारे । मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे ॥
मंगल कलस अनेक बनाए । ध्वज पताक पट चमर सुहाए ॥
दीप मनोहर मनिमय नाना । जाइ न बरनि बिचित्र बिताना ॥
जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही । सो बरनै असि मति कबि केही ॥
दूलहु रामु रूप गुन सागर । सो बितानु तिहुँ लोक उजागर ॥
जनक भवन कै सौभा जैसी । गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी ॥
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी । तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी ॥
जो संपदा नीच गृह सोहा । सो बिलोकि सुरनायक मोहा ॥
दोहा
बसइ नगर जेहि लच्छ करि कपट नारि बर बेषु ॥
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु ॥२८९॥
चौपाला
पहुँचे दूत राम पुर पावन । हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥
बारि बिलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भरि छाती ॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी । रहि गए कहत न खाटी मीठी ॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई । आए भरतु सहित हित भाई ॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥
दोहा
कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥२९०॥
चौपाला
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता । अधिक सनेहु समात न गाता ॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी । सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी ॥
तब नृप दूत निकट बैठारे । मधुर मनोहर बचन उचारे ॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे । तुम्ह नीकें निज नयन निहारे ॥
स्यामल गौर धरें धनु भाथा । बय किसोर कौसिक मुनि साथा ॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ । प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ ॥
जा दिन तें मुनि गए लवाई । तब तें आजु साँचि सुधि पाई ॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने । सुनि प्रिय बचन दूत मुसकाने ॥