अयोध्या काण्ड दोहा ४१ से ५०
दोहा
मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर ॥४१॥
चौपाला
भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू । बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा । प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा ॥
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी । परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी ॥
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं । देखु बिचारि मातु मन माहीं ॥
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी । निपट बिकल नरनायकु देखी ॥
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी । होति प्रतीति न मोहि महतारी ॥
राउ धीर गुन उदधि अगाधू । भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू ॥
जातें मोहि न कहत कछु राऊ । मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ ॥
दोहा
सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान ॥४२॥
चौपाला
रहसी रानि राम रुख पाई । बोली कपट सनेहु जनाई ॥
सपथ तुम्हार भरत कै आना । हेतु न दूसर मै कछु जाना ॥
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता । जननी जनक बंधु सुखदाता ॥
राम सत्य सबु जो कछु कहहू । तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू ॥
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई । चौथेंपन जेहिं अजसु न होई ॥
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे । उचित न तासु निरादरु कीन्हे ॥
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे । मगहँ गयादिक तीरथ जैसे ॥
रामहि मातु बचन सब भाए । जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए ॥
दोहा
गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह ॥४३॥
चौपाला
अवनिप अकनि रामु पगु धारे । धरि धीरजु तब नयन उघारे ॥
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे । चरन परत नृप रामु निहारे ॥
लिए सनेह बिकल उर लाई । गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई ॥
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू । चला बिलोचन बारि प्रबाहू ॥
सोक बिबस कछु कहै न पारा । हृदयँ लगावत बारहिं बारा ॥
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं । जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं ॥
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी । बिनती सुनहु सदासिव मोरी ॥
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी । आरति हरहु दीन जनु जानी ॥
दोहा
तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु ॥४४॥
चौपाला
अजसु होउ जग सुजसु नसाऊ । नरक परौ बरु सुरपुरु जाऊ ॥
सब दुख दुसह सहावहु मोही । लोचन ओट रामु जनि होंही ॥
अस मन गुनइ राउ नहिं बोला । पीपर पात सरिस मनु डोला ॥
रघुपति पितहि प्रेमबस जानी । पुनि कछु कहिहि मातु अनुमानी ॥
देस काल अवसर अनुसारी । बोले बचन बिनीत बिचारी ॥
तात कहउँ कछु करउँ ढिठाई । अनुचितु छमब जानि लरिकाई ॥
अति लघु बात लागि दुखु पावा । काहुँ न मोहि कहि प्रथम जनावा ॥
देखि गोसाइँहि पूँछिउँ माता । सुनि प्रसंगु भए सीतल गाता ॥
दोहा
मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात।
आयसु देइअ हरषि हियँ कहि पुलके प्रभु गात ॥४५॥
चौपाला
धन्य जनमु जगतीतल तासू । पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू ॥
चारि पदारथ करतल ताकें । प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें ॥
आयसु पालि जनम फलु पाई । ऐहउँ बेगिहिं होउ रजाई ॥
बिदा मातु सन आवउँ मागी । चलिहउँ बनहि बहुरि पग लागी ॥
अस कहि राम गवनु तब कीन्हा । भूप सोक बसु उतरु न दीन्हा ॥
नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी । छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी ॥
सुनि भए बिकल सकल नर नारी । बेलि बिटप जिमि देखि दवारी ॥
जो जहँ सुनइ धुनइ सिरु सोई । बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई ॥
दोहा
मुख सुखाहिं लोचन स्त्रवहि सोकु न हृदयँ समाइ।
मनहुँ ०करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ ॥४६॥
चौपाला
मिलेहि माझ बिधि बात बेगारी । जहँ तहँ देहिं कैकेइहि गारी ॥
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ । छाइ भवन पर पावकु धरेऊ ॥
निज कर नयन काढ़ि चह दीखा । डारि सुधा बिषु चाहत चीखा ॥
कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी । भइ रघुबंस बेनु बन आगी ॥
पालव बैठि पेड़ु एहिं काटा । सुख महुँ सोक ठाटु धरि ठाटा ॥
सदा रामु एहि प्रान समाना । कारन कवन कुटिलपनु ठाना ॥
सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ । सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ ॥
निज प्रतिबिंबु बरुकु गहि जाई । जानि न जाइ नारि गति भाई ॥
दोहा
काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ।
का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ ॥४७॥
चौपाला
का सुनाइ बिधि काह सुनावा । का देखाइ चह काह देखावा ॥
एक कहहिं भल भूप न कीन्हा । बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा ॥
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु । अबला बिबस ग्यानु गुनु गा जनु ॥
एक धरम परमिति पहिचाने । नृपहि दोसु नहिं देहिं सयाने ॥
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी । एक एक सन कहहिं बखानी ॥
एक भरत कर संमत कहहीं । एक उदास भायँ सुनि रहहीं ॥
कान मूदि कर रद गहि जीहा । एक कहहिं यह बात अलीहा ॥
सुकृत जाहिं अस कहत तुम्हारे । रामु भरत कहुँ प्रानपिआरे ॥
दोहा
चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिषतूल।
सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल ॥४८॥
चौपाला
एक बिधातहिं दूषनु देंहीं । सुधा देखाइ दीन्ह बिषु जेहीं ॥
खरभरु नगर सोचु सब काहू । दुसह दाहु उर मिटा उछाहू ॥
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी । जे प्रिय परम कैकेई केरी ॥
लगीं देन सिख सीलु सराही । बचन बानसम लागहिं ताही ॥
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना । सदा कहहु यहु सबु जगु जाना ॥
करहु राम पर सहज सनेहू । केहिं अपराध आजु बनु देहू ॥
कबहुँ न कियहु सवति आरेसू । प्रीति प्रतीति जान सबु देसू ॥
कौसल्याँ अब काह बिगारा । तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर पारा ॥
दोहा
सीय कि पिय सँगु परिहरिहि लखनु कि रहिहहिं धाम।
राजु कि भूँजब भरत पुर नृपु कि जिइहि बिनु राम ॥४९॥
चौपाला
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू । सोक कलंक कोठि जनि होहू ॥
भरतहि अवसि देहु जुबराजू । कानन काह राम कर काजू ॥
नाहिन रामु राज के भूखे । धरम धुरीन बिषय रस रूखे ॥
गुर गृह बसहुँ रामु तजि गेहू । नृप सन अस बरु दूसर लेहू ॥
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे । नहिं लागिहि कछु हाथ तुम्हारे ॥
जौं परिहास कीन्हि कछु होई । तौ कहि प्रगट जनावहु सोई ॥
राम सरिस सुत कानन जोगू । काह कहिहि सुनि तुम्ह कहुँ लोगू ॥
उठहु बेगि सोइ करहु उपाई । जेहि बिधि सोकु कलंकु नसाई ॥
छंद
जेहि भाँति सोकु कलंकु जाइ उपाय करि कुल पालही।
हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसरि चालही ॥
जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चंद बिनु जिमि जामिनी।
तिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जियँ भामिनी ॥
सोरठा
सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी ॥५०॥
चौपाला
उतरु न देइ दुसह रिस रूखी । मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी ॥
ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी । चलीं कहत मतिमंद अभागी ॥
राजु करत यह दैअँ बिगोई । कीन्हेसि अस जस करइ न कोई ॥
एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारीं । देहिं कुचालिहि कोटिक गारीं ॥
जरहिं बिषम जर लेहिं उसासा । कवनि राम बिनु जीवन आसा ॥
बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी । जनु जलचर गन सूखत पानी ॥
अति बिषाद बस लोग लोगाई । गए मातु पहिं रामु गोसाई ॥
मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ । मिटा सोचु जनि राखै राऊ ॥