उत्तरकाण्ड - दोहा ६१ से ७०
दोहा
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥६१॥
चौपाला
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा । किएँ जोग तप ग्यान बिरागा ॥
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला । तहँ रह काकभुसुंडि सुसीला ॥
राम भगति पथ परम प्रबीना । ग्यानी गुन गृह बहु कालीना ॥
राम कथा सो कहइ निरंतर । सादर सुनहिं बिबिध बिहंगबर ॥
जाइ सुनहु तहँ हरि गुन भूरी । होइहि मोह जनित दुख दूरी ॥
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई । चलेउ हरषि मम पद सिरु नाई ॥
ताते उमा न मैं समुझावा । रघुपति कृपाँ मरमु मैं पावा ॥
होइहि कीन्ह कबहुँ अभिमाना । सो खौवै चह कृपानिधाना ॥
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा । समुझइ खग खगही कै भाषा ॥
प्रभु माया बलवंत भवानी । जाहि न मोह कवन अस ग्यानी ॥
दोहा
ग्यानि भगत सिरोमनि त्रिभुवनपति कर जान ।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान ॥६२ -क॥
मासपारायण , अट्ठाईसवाँ विश्राम
सिव बिरंचि कहुँ मोहइ को है बपुरा आन ।
अस जियँ जानि भजहिं मुनि माया पति भगवान ॥६२ -ख॥
चौपाला
गयउ गरुड़ जहँ बसइ भुसुंडा । मति अकुंठ हरि भगति अखंडा ॥
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ । माया मोह सोच सब गयऊ ॥
करि तड़ाग मज्जन जलपाना । बट तर गयउ हृदयँ हरषाना ॥
बृद्ध बृद्ध बिहंग तहँ आए । सुनै राम के चरित सुहाए ॥
कथा अरंभ करै सोइ चाहा । तेही समय गयउ खगनाहा ॥
आवत देखि सकल खगराजा । हरषेउ बायस सहित समाजा ॥
अति आदर खगपति कर कीन्हा । स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा ॥
करि पूजा समेत अनुरागा । मधुर बचन तब बोलेउ कागा ॥
दोहा
नाथ कृतारथ भयउँ मैं तव दरसन खगराज ।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज ॥६३ -क॥
सदा कृतारथ रूप तुम्ह कह मृदु बचन खगेस ।
जेहि कै अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस ॥६३ -ख॥
चौपाला
सुनहु तात जेहि कारन आयउँ । सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥
देखि परम पावन तव आश्रम । गयउ मोह संसय नाना भ्रम ॥
अब श्रीराम कथा अति पावनि । सदा सुखद दुख पुंज नसावनि ॥
सादर तात सुनावहु मोही । बार बार बिनवउँ प्रभु तोही ॥
सुनत गरुड़ कै गिरा बिनीता । सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता ॥
भयउ तासु मन परम उछाहा । लाग कहै रघुपति गुन गाहा ॥
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी । रामचरित सर कहेसि बखानी ॥
पुनि नारद कर मोह अपारा । कहेसि बहुरि रावन अवतारा ॥
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई । तब सिसु चरित कहेसि मन लाई ॥
दोहा
बालचरित कहिं बिबिध बिधि मन महँ परम उछाह ।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुबीर बिबाह ॥६४॥
चौपाला
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा । पुनि नृप बचन राज रस भंगा ॥
पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा । कहेसि राम लछिमन संबादा ॥
बिपिन गवन केवट अनुरागा । सुरसरि उतरि निवास प्रयागा ॥
बालमीक प्रभु मिलन बखाना । चित्रकूट जिमि बसे भगवाना ॥
सचिवागवन नगर नृप मरना । भरतागवन प्रेम बहु बरना ॥
करि नृप क्रिया संग पुरबासी । भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी ॥
पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए । लै पादुका अवधपुर आए ॥
भरत रहनि सुरपति सुत करनी । प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी ॥
दोहा
कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग ॥
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग ॥६५॥
चौपाला
कहि दंडक बन पावनताई । गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई ॥
पुनि प्रभु पंचवटीं कृत बासा । भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा ॥
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा । सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा ॥
खर दूषन बध बहुरि बखाना । जिमि सब मरमु दसानन जाना ॥
दसकंधर मारीच बतकहीं । जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही ॥
पुनि माया सीता कर हरना । श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना ॥
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही । बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही ॥
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा । जेहि बिधि गए सरोबर तीरा ॥
दोहा
प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग ।
पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ॥६६ -क॥
कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास ।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास ॥६६ -ख॥
चौपाला
जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए । सीता खोज सकल दिसि धाए ॥
बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँती । कपिन्ह बहोरि मिला संपाती ॥
सुनि सब कथा समीरकुमारा । नाघत भयउ पयोधि अपारा ॥
लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा । पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा ॥
बन उजारि रावनहि प्रबोधी । पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी ॥
आए कपि सब जहँ रघुराई । बैदेही कि कुसल सुनाई ॥
सेन समेति जथा रघुबीरा । उतरे जाइ बारिनिधि तीरा ॥
मिला बिभीषन जेहि बिधि आई । सागर निग्रह कथा सुनाई ॥
दोहा
सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार ।
गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार ॥६७ -क॥
निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार ।
कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार ॥६७ -ख॥
चौपाला
निसिचर निकर मरन बिधि नाना । रघुपति रावन समर बखाना ॥
रावन बध मंदोदरि सोका । राज बिभीषण देव असोका ॥
सीता रघुपति मिलन बहोरी । सुरन्ह कीन्ह अस्तुति कर जोरी ॥
पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता । अवध चले प्रभु कृपा निकेता ॥
जेहि बिधि राम नगर निज आए । बायस बिसद चरित सब गाए ॥
कहेसि बहोरि राम अभिषैका । पुर बरनत नृपनीति अनेका ॥
कथा समस्त भुसुंड बखानी । जो मैं तुम्ह सन कही भवानी ॥
सुनि सब राम कथा खगनाहा । कहत बचन मन परम उछाहा ॥
सोरठा
गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित ।
भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक ॥६८ -क॥
मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि ।
चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन । ६८ -ख॥
देखि चरित अति नर अनुसारी । भयउ हृदयँ मम संसय भारी ॥
सोइ भ्रम अब हित करि मैं माना । कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना ॥
जो अति आतप ब्याकुल होई । तरु छाया सुख जानइ सोई ॥
जौं नहिं होत मोह अति मोही । मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही ॥
सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई । अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई ॥
निगमागम पुरान मत एहा । कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा ॥
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही । चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
राम कृपाँ तव दरसन भयऊ । तव प्रसाद सब संसय गयऊ ॥
दोहा
सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग ।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग ॥६९ -क॥
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास ।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास ॥६९ -ख॥
चौपाला
बोलेउ काकभसुंड बहोरी । नभग नाथ पर प्रीति न थोरी ॥
सब बिधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे । कृपापात्र रघुनायक केरे ॥
तुम्हहि न संसय मोह न माया । मो पर नाथ कीन्ह तुम्ह दाया ॥
पठइ मोह मिस खगपति तोही । रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही ॥
तुम्ह निज मोह कही खग साईं । सो नहिं कछु आचरज गोसाईं ॥
नारद भव बिरंचि सनकादी । जे मुनिनायक आतमबादी ॥
मोह न अंध कीन्ह केहि केही । को जग काम नचाव न जेही ॥
तृस्नाँ केहि न कीन्ह बौराहा । केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा ॥
दोहा
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार ।
केहि कै लौभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार ॥७० -क॥
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि ।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि ॥७० -ख॥
चौपाला
गुन कृत सन्यपात नहिं केही । कोउ न मान मद तजेउ निबेही ॥
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा । ममता केहि कर जस न नसावा ॥
मच्छर काहि कलंक न लावा । काहि न सोक समीर डोलावा ॥
चिंता साँपिनि को नहिं खाया । को जग जाहि न ब्यापी माया ॥
कीट मनोरथ दारु सरीरा । जेहि न लाग घुन को अस धीरा ॥
सुत बित लोक ईषना तीनी । केहि के मति इन्ह कृत न मलीनी ॥
यह सब माया कर परिवारा । प्रबल अमिति को बरनै पारा ॥
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं । अपर जीव केहि लेखे माहीं ॥