लंकाकाण्ड दोहा ८१ से ९०
दोहा
निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप ।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप ॥८१॥
चौपाला
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर । सन्मुख चले हूह दै बंदर ॥
गहि कर पादप उपल पहारा । डारेन्हि ता पर एकहिं बारा ॥
लागहिं सैल बज्र तन तासू । खंड खंड होइ फूटहिं आसू ॥
चला न अचल रहा रथ रोपी । रन दुर्मद रावन अति कोपी ॥
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा । मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा ॥
चले पराइ भालु कपि नाना । त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना ॥
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई । यह खल खाइ काल की नाई ॥
तेहि देखे कपि सकल पराने । दसहुँ चाप सायक संधाने ॥
छंद
संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं ।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं ॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे ।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे ॥
दोहा
निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ ॥८२॥
चौपाला
रे खल का मारसि कपि भालू । मोहि बिलोकु तोर मैं कालू ॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती । आजु निपाति जुड़ावउँ छाती ॥
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा । लछिमन किए सकल सत खंडा ॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे । तिल प्रवान करि काटि निवारे ॥
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा । स्यंदनु भंजि सारथी मारा ॥
सत सत सर मारे दस भाला । गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला ॥
पुनि सत सर मारा उर माहीं । परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं ॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी । छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी ॥
छंद
सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही ।
पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही ॥
ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी ।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी ॥
दोहा
देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर ।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर ॥८३॥
चौपाला
जानु टेकि कपि भूमि न गिरा । उठा सँभारि बहुत रिस भरा ॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा । परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा ॥
मुरुछा गै बहोरि सो जागा । कपि बल बिपुल सराहन लागा ॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही । जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही ॥
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो । देखि दसानन बिसमय पायो ॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता । तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता ॥
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला । गई गगन सो सकति कराला ॥
पुनि कोदंड बान गहि धाए । रिपु सन्मुख अति आतुर आए ॥
छंद
आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो ।
गिर् यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो ॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो ।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो ॥
दोहा
उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य ।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य ॥८४॥
चौपाला
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई । सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई ॥
नाथ करइ रावन एक जागा । सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा ॥
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर । करहिं बिधंस आव दसकंधर ॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए । हनुमदादि अंगद सब धाए ॥
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका । पैठे रावन भवन असंका ॥
जग्य करत जबहीं सो देखा । सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा ॥
रन ते निलज भाजि गृह आवा । इहाँ आइ बक ध्यान लगावा ॥
अस कहि अंगद मारा लाता । चितव न सठ स्वारथ मन राता ॥
छंद
नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं ।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं ॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई ।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई ॥
दोहा
जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास ।
चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस ॥८५॥
चौपाला
चलत होहिं अति असुभ भयंकर । बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर ॥
भयउ कालबस काहु न माना । कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना ॥
चली तमीचर अनी अपारा । बहु गज रथ पदाति असवारा ॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें । सलभ समूह अनल कहँ जैंसें ॥
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही । दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही ॥
अब जनि राम खेलावहु एही । अतिसय दुखित होति बैदेही ॥
देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना । उठि रघुबीर सुधारे बाना ।
जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे । सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे ॥
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा । अखिल लोक लोचनाभिरामा ॥
कटितट परिकर कस्यो निषंगा । कर कोदंड कठिन सारंगा ॥
छंद
सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो ।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो ॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे ।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे ॥
दोहा
सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार ।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार ॥८६॥
चौपाला
एहीं बीच निसाचर अनी । कसमसात आई अति घनी ।
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा । प्रलयकाल के जनु घन घट्टा ॥
बहु कृपान तरवारि चमंकहिं । जनु दहँ दिसि दामिनीं दमंकहिं ॥
गज रथ तुरग चिकार कठोरा । गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा ॥
कपि लंगूर बिपुल नभ छाए । मनहुँ इंद्रधनु उए सुहाए ॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा । बान बुंद भै बृष्टि अपारा ॥
दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा । बज्रपात जनु बारहिं बारा ॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई । घायल भै निसिचर समुदाई ॥
लागत बान बीर चिक्करहीं । घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं ॥
स्त्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी । सोनित सरि कादर भयकारी ॥
छंद
कादर भयंकर रुधिर सरिता चली परम अपावनी ।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी ॥
जल जंतुगज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने ।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरंग चर्म कमठ घने ॥
दोहा
बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन ।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन ॥८७॥
चौपाला
मज्जहि भूत पिसाच बेताला । प्रमथ महा झोटिंग कराला ॥
काक कंक लै भुजा उड़ाहीं । एक ते छीनि एक लै खाहीं ॥
एक कहहिं ऐसिउ सौंघाई । सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई ॥
कहँरत भट घायल तट गिरे । जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे ॥
खैंचहिं गीध आँत तट भए । जनु बंसी खेलत चित दए ॥
बहु भट बहहिं चढ़े खग जाहीं । जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं ॥
जोगिनि भरि भरि खप्पर संचहिं । भूत पिसाच बधू नभ नंचहिं ॥
भट कपाल करताल बजावहिं । चामुंडा नाना बिधि गावहिं ॥
जंबुक निकर कटक्कट कट्टहिं । खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं ॥
कोटिन्ह रुंड मुंड बिनु डोल्लहिं । सीस परे महि जय जय बोल्लहिं ॥
छंद
बोल्लहिं जो जय जय मुंड रुंड प्रचंड सिर बिनु धावहीं ।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए ।
संग्राम अंगन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए ॥
दोहा
रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर संघार ।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार ॥८८॥
चौपाला
देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा । उपजा उर अति छोभ बिसेषा ॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा । हरष सहित मातलि लै आवा ॥
तेज पुंज रथ दिब्य अनूपा । हरषि चढ़े कोसलपुर भूपा ॥
चंचल तुरग मनोहर चारी । अजर अमर मन सम गतिकारी ॥
रथारूढ़ रघुनाथहि देखी । धाए कपि बलु पाइ बिसेषी ॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी । तब रावन माया बिस्तारी ॥
सो माया रघुबीरहि बाँची । लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची ॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी । अनुज सहित बहु कोसलधनी ॥
छंद
बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे ।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे ॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसल धनी ।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी ॥
दोहा
बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर ।
द्वंदजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर ॥८९॥
चौपाला
अस कहि रथ रघुनाथ चलावा । बिप्र चरन पंकज सिरु नावा ॥
तब लंकेस क्रोध उर छावा । गर्जत तर्जत सन्मुख धावा ॥
जीतेहु जे भट संजुग माहीं । सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं ॥
रावन नाम जगत जस जाना । लोकप जाकें बंदीखाना ॥
खर दूषन बिराध तुम्ह मारा । बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा ॥
निसिचर निकर सुभट संघारेहु । कुंभकरन घननादहि मारेहु ॥
आजु बयरु सबु लेउँ निबाही । जौं रन भूप भाजि नहिं जाहीं ॥
आजु करउँ खलु काल हवाले । परेहु कठिन रावन के पाले ॥
सुनि दुर्बचन कालबस जाना । बिहँसि बचन कह कृपानिधाना ॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई । जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई ॥
छंद
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा ।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा ॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं ।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं ॥
दोहा
राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान ।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान ॥९० ॥
चौपाला
कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकंधर । कुलिस समान लाग छाँड़ै सर ॥
नानाकार सिलीमुख धाए । दिसि अरु बिदिस गगन महि छाए ॥
पावक सर छाँड़ेउ रघुबीरा । छन महुँ जरे निसाचर तीरा ॥
छाड़िसि तीब्र सक्ति खिसिआई । बान संग प्रभु फेरि चलाई ॥
कोटिक चक्र त्रिसूल पबारै । बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै ॥
निफल होहिं रावन सर कैसें । खल के सकल मनोरथ जैसें ॥
तब सत बान सारथी मारेसि । परेउ भूमि जय राम पुकारेसि ॥
राम कृपा करि सूत उठावा । तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा ॥
छंद
भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे ।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे ॥
मँदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे ।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे ॥