बालकाण्ड दोहा १४१ से १५०
दोहा
सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाई ॥
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ ॥१४१॥
चौपाला
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा । जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा ॥
दंपति धरम आचरन नीका । अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका ॥
नृप उत्तानपाद सुत तासू । ध्रुव हरि भगत भयउ सुत जासू ॥
लघु सुत नाम प्रिय्रब्रत ताही । बेद पुरान प्रसंसहि जाही ॥
देवहूति पुनि तासु कुमारी । जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी ॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला । जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला ॥
सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना । तत्व बिचार निपुन भगवाना ॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला । प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला ॥
सोरठा
होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु ॥१४२॥
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा । नारि समेत गवन बन कीन्हा ॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता । अति पुनीत साधक सिधि दाता ॥
बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा । तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा ॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा । ग्यान भगति जनु धरें सरीरा ॥
पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा । हरषि नहाने निरमल नीरा ॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी । धरम धुरंधर नृपरिषि जानी ॥
जहँ जँह तीरथ रहे सुहाए । मुनिन्ह सकल सादर करवाए ॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना । सत समाज नित सुनहिं पुराना ।
दोहा
द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग ॥१४३॥
चौपाला
करहिं अहार साक फल कंदा । सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा ॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे । बारि अधार मूल फल त्यागे ॥
उर अभिलाष निंरंतर होई । देखअ नयन परम प्रभु सोई ॥
अगुन अखंड अनंत अनादी । जेहि चिंतहिं परमारथबादी ॥
नेति नेति जेहि बेद निरूपा । निजानंद निरुपाधि अनूपा ॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना । उपजहिं जासु अंस तें नाना ॥
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई । भगत हेतु लीलातनु गहई ॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा । तौ हमार पूजहि अभिलाषा ॥
दोहा
एहि बिधि बीतें बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार ॥१४४॥
चौपाला
बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ । ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि तप देखि अपारा । मनु समीप आए बहु बारा ॥
मागहु बर बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहिं चलहिं चलाए ॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा । तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा ॥
प्रभु सर्बग्य दास निज जानी । गति अनन्य तापस नृप रानी ॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी । परम गभीर कृपामृत सानी ॥
मृतक जिआवनि गिरा सुहाई । श्रबन रंध्र होइ उर जब आई ॥
ह्रष्टपुष्ट तन भए सुहाए । मानहुँ अबहिं भवन ते आए ॥
दोहा
श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात ॥१४५॥
चौपाला
सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनु । बिधि हरि हर बंदित पद रेनू ॥
सेवत सुलभ सकल सुख दायक । प्रनतपाल सचराचर नायक ॥
जौं अनाथ हित हम पर नेहू । तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू ॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं । जेहि कारन मुनि जतन कराहीं ॥
जो भुसुंडि मन मानस हंसा । सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा ॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन । कृपा करहु प्रनतारति मोचन ॥
दंपति बचन परम प्रिय लागे । मुदुल बिनीत प्रेम रस पागे ॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना । बिस्वबास प्रगटे भगवाना ॥
दोहा
नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम ॥१४६॥
चौपाला
सरद मयंक बदन छबि सींवा । चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा ॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा । बिधु कर निकर बिनिंदक हासा ॥
नव अबुंज अंबक छबि नीकी । चितवनि ललित भावँती जी की ॥
भुकुटि मनोज चाप छबि हारी । तिलक ललाट पटल दुतिकारी ॥
कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा । कुटिल केस जनु मधुप समाजा ॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला । पदिक हार भूषन मनिजाला ॥
केहरि कंधर चारु जनेउ । बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ ॥
करि कर सरि सुभग भुजदंडा । कटि निषंग कर सर कोदंडा ॥
दोहा
तडित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि ॥
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि ॥१४७॥
चौपाला
पद राजीव बरनि नहि जाहीं । मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं ॥
बाम भाग सोभति अनुकूला । आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला ॥
जासु अंस उपजहिं गुनखानी । अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी ॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई । राम बाम दिसि सीता सोई ॥
छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी । एकटक रहे नयन पट रोकी ॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा । तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा ॥
हरष बिबस तन दसा भुलानी । परे दंड इव गहि पद पानी ॥
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा । तुरत उठाए करुनापुंजा ॥
दोहा
बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि ॥१४८॥
चौपाला
सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी । धरि धीरजु बोली मृदु बानी ॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥
एक लालसा बड़ि उर माही । सुगम अगम कहि जात सो नाहीं ॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं । अगम लाग मोहि निज कृपनाईं ॥
जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई । बहु संपति मागत सकुचाई ॥
तासु प्रभा जान नहिं सोई । तथा हृदयँ मम संसय होई ॥
सो तुम्ह जानहु अंतरजामी । पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी ॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोहि । मोरें नहिं अदेय कछु तोही ॥
दोहा
दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ ॥
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ ॥१४९॥
चौपाला
देखि प्रीति सुनि बचन अमोले । एवमस्तु करुनानिधि बोले ॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ॥
सतरूपहि बिलोकि कर जोरें । देबि मागु बरु जो रुचि तोरे ॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा । सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा ॥
प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई । जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई ॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी । ब्रह्म सकल उर अंतरजामी ॥
अस समुझत मन संसय होई । कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई ॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं । जो सुख पावहिं जो गति लहहीं ॥
दोहा
सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु ॥
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥१५०॥
चौपाला
सुनु मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना । कृपासिंधु बोले मृदु बचना ॥
जो कछु रुचि तुम्हेर मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं ॥
मातु बिबेक अलोकिक तोरें । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें ।
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी । अवर एक बिनति प्रभु मोरी ॥
सुत बिषइक तव पद रति होऊ । मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना । मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना ॥
अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ । एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी । बसहु जाइ सुरपति रजधानी ॥