उत्तरकाण्ड - दोहा १०१ से ११०
दोहा
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड ।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड ॥१०१ -क॥
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत मख दान ।
देव न बरषहिं धरनीं बए न जामहिं धान ॥१०१ -ख॥
छंद
अबला कच भूषन भूरि छुधा । धनहीन दुखी ममता बहुधा ॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता । मति थोरि कठोरि न कोमलता ॥१॥
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं । अभिमान बिरोध अकारनहीं ॥
लघु जीवन संबतु पंच दसा । कलपांत न नास गुमानु असा ॥२॥
कलिकाल बिहाल किए मनुजा । नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा ।
नहिं तोष बिचार न सीतलता । सब जाति कुजाति भए मगता ॥३॥
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता । भरि पूरि रही समता बिगता ॥
सब लोग बियोग बिसोक हुए । बरनाश्रम धर्म अचार गए ॥४॥
दम दान दया नहिं जानपनी । जड़ता परबंचनताति घनी ॥
तनु पोषक नारि नरा सगरे । परनिंदक जे जग मो बगरे ॥५॥
दोहा
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार ।
गुनउँ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार ॥१०२ -क॥
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग ।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग ॥१०२ -ख॥
चौपाला
कृतजुग सब जोगी बिग्यानी । करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी ॥
त्रेताँ बिबिध जग्य नर करहीं । प्रभुहि समर्पि कर्म भव तरहीं ॥
द्वापर करि रघुपति पद पूजा । नर भव तरहिं उपाय न दूजा ॥
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा । गावत नर पावहिं भव थाहा ॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना । एक अधार राम गुन गाना ॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि । प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि ॥
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं । नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं ॥
कलि कर एक पुनीत प्रतापा । मानस पुन्य होहिं नहिं पापा ॥
दोहा
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास ।
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास ॥१०३ -क॥
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान ।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ॥१०३ -ख॥
चौपाला
नित जुग धर्म होहिं सब केरे । हृदयँ राम माया के प्रेरे ॥
सुद्ध सत्व समता बिग्याना । कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना ॥
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा । सब बिधि सुख त्रेता कर धर्मा ॥
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस । द्वापर धर्म हरष भय मानस ॥
तामस बहुत रजोगुन थोरा । कलि प्रभाव बिरोध चहुँ ओरा ॥
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं । तजि अधर्म रति धर्म कराहीं ॥
काल धर्म नहिं ब्यापहिं ताही । रघुपति चरन प्रीति अति जाही ॥
नट कृत बिकट कपट खगराया । नट सेवकहि न ब्यापइ माया ॥
दोहा
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं ।
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं ॥१०४ -क॥
तेहि कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध बिहगेस ।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस ॥१०४ -ख॥
चौपाला
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी । दीन मलीन दरिद्र दुखारी ॥
गएँ काल कछु संपति पाई । तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई ॥
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा । करइ सदा तेहि काजु न दूजा ॥
परम साधु परमारथ बिंदक । संभु उपासक नहिं हरि निंदक ॥
तेहि सेवउँ मैं कपट समेता । द्विज दयाल अति नीति निकेता ॥
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं । बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं ॥
संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा । सुभ उपदेस बिबिध बिधि कीन्हा ॥
जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई । हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई ॥
दोहा
मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह ।
हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह ॥१०५ -क॥
सोरठा
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम ।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति कि भावई ॥१०५ -ख॥
चौपाला
एक बार गुर लीन्ह बोलाई । मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई । अबिरल भगति राम पद होई ॥
रामहि भजहिं तात सिव धाता । नर पावँर कै केतिक बाता ॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी । तातु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ॥
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ । सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ । भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती । गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा । पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ॥
जेहि ते नीच बड़ाई पावा । सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥
धूम अनल संभव सुनु भाई । तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥
रज मग परी निरादर रहई । सब कर पद प्रहार नित सहई ॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई । पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा । बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीती । खल सन कलह न भल नहिं प्रीती ॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं । खल परिहरिअ स्वान की नाईं ॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई । गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ॥
दोहा
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम ।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥१०६ -क॥
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस ।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥१०६ -ख॥
चौपाला
मंदिर माझ भई नभ बानी । रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा । अति कृपाल चित सम्यक बोधा ॥
तदपि साप सठ दैहउँ तोही । नीति बिरोध सोहाइ न मोही ॥
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा । भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं । रौरव नरक कोटि जुग परहीं ॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा । अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ॥
बैठ रहेसि अजगर इव पापी । सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई ॥रहु अधमाधम अधगति पाई ॥
दोहा
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ॥
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥१०७ -क॥
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि ।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥१०७ -ख॥
चौपाला
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं । विंभुं ब्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरींह । चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं ॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं । गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं ॥
करालं महाकाल कालं कृपालं । गुणागार संसारपारं नतोऽहं ॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं । मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं ॥
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा । लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा ॥
चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं । प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं ॥
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं । प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं । अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं ॥
त्रयःशूल निर्मूलनं शूलपाणिं । भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी । सदा सज्जनान्ददाता पुरारी ॥
चिदानंदसंदोह मोहापहारी । प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं । भजंतीह लोके परे वा नराणां ॥
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं । प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां । नतोऽहं सदा सर्वदा शंभु तुभ्यं ॥
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं । प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभो ॥
श्लोक
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥९॥
दोहा
सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि ब्रिप्र अनुरागु ।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ॥१०८ -क॥
जौं प्रसन्न प्रभु मो पर नाथ दीन पर नेहु ।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥१०८ -ख॥
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान ।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपा सिंधु भगवान ॥१०८ -ग॥
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल ।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥१०८ -घ॥
चौपाला
एहि कर होइ परम कल्याना । सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥
बिप्रगिरा सुनि परहित सानी । एवमस्तु इति भइ नभबानी ॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा । मैं पुनि दीन्ह कोप करि सापा ॥
तदपि तुम्हार साधुता देखी । करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥
छमासील जे पर उपकारी । ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि । जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥
जनमत मरत दुसह दुख होई । अहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना । सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥
रघुपति पुरीं जन्म तब भयऊ । पुनि तैं मम सेवाँ मन दयऊ ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें । राम भगति उपजिहि उर तोरें ॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई । हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना । जानेहु संत अनंत समाना ॥
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला । कालदंड हरि चक्र कराला ॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई । बिप्रद्रोह पावक सो जरई ॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं । तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
औरउ एक आसिषा मोरी । अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥
दोहा
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि ।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥१०९ -क॥
प्रेरित काल बिधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल ।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु जजेउँ गएँ कछु काल ॥१०९ -ख॥
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान ।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥१०९ -ग॥
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस ।
एहि बिधि धरेउँ बिबिध तनु ग्यान न गयउ खगेस ॥१०९घ॥
चौपाला
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ । तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ । गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई । सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला । करउँ सकल रघुनायक लीला ॥
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा । समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ॥
मन ते सकल बासना भागी । केवल राम चरन लय लागी ॥
कहु खगेस अस कवन अभागी । खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई । हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ॥
भए कालबस जब पितु माता । मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ । आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ॥
बूझत तिन्हहि राम गुन गाहा । कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा । अब्याहत गति संभु प्रसादा ॥
छूटी त्रिबिध ईषना गाढ़ी । एक लालसा उर अति बाढ़ी ॥
राम चरन बारिज जब देखौं । तब निज जन्म सफल करि लेखौं ॥
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई । ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई । सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥
दोहा
गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग ।
रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग ॥११० -क॥
मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन ।
देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन ॥११० -ख॥
सुनि मम बचन बिनीत मृदु मुनि कृपाल खगराज ।
मोहि सादर पूँछत भए द्विज आयहु केहि काज ॥११०ग॥
तब मैं कहा कृपानिधि तुम्ह सर्बग्य सुजान ।
सगुन ब्रह्म अवराधन मोहि कहहु भगवान ॥११०घ॥
चौपाला
तब मुनिष रघुपति गुन गाथा । कहे कछुक सादर खगनाथा ॥
ब्रह्मग्यान रत मुनि बिग्यानि । मोहि परम अधिकारी जानी ॥
लागे करन ब्रह्म उपदेसा । अज अद्वेत अगुन हृदयेसा ॥
अकल अनीह अनाम अरुपा । अनुभव गम्य अखंड अनूपा ॥
मन गोतीत अमल अबिनासी । निर्बिकार निरवधि सुख रासी ॥
सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा । बारि बीचि इव गावहि बेदा ॥
बिबिध भाँति मोहि मुनि समुझावा । निर्गुन मत मम हृदयँ न आवा ॥
पुनि मैं कहेउँ नाइ पद सीसा । सगुन उपासन कहहु मुनीसा ॥
राम भगति जल मम मन मीना । किमि बिलगाइ मुनीस प्रबीना ॥
सोइ उपदेस कहहु करि दाया । निज नयनन्हि देखौं रघुराया ॥
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा । तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा ॥
मुनि पुनि कहि हरिकथा अनूपा । खंडि सगुन मत अगुन निरूपा ॥
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी । सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी ॥
उत्तर प्रतिउत्तर मैं कीन्हा । मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा ॥
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएँ । उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएँ ॥
अति संघरषन जौं कर कोई । अनल प्रगट चंदन ते होई ॥