बालकाण्ड दोहा १ से १०
दोहा
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान ।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥१॥
चौपाला
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥१॥
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना । मोह जनित संसय सब हरना ॥
सुजन समाज सकल गुन खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥२॥
साधु चरित सुभ चरित कपासू । निरस बिसद गुनमय फल जासू ॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा । बंदनीय जेहिं जग जस पावा ॥३॥
मुद मंगलमय संत समाजू । जो जग जंगम तीरथराजू ॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा । सरसै ब्रह्म बिचारा प्रचारा ॥४॥
बिधि निषेधमय कलि मल हरनी । करम कथा रबिनंदनि बरनी ॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी । सुनत सकल मुद मंगल देनी ॥५॥
बटु बिस्वास अचल निज धरमा । तीरथराज समाज सुकरमा ॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा । सेवत सादर समन कलेसा ॥६॥
अकथ अलौकिक तीरथराऊ । देइ सद्य फल प्रगट प्रभाऊ ॥७॥
दोहा
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग ।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग ॥२॥
चौपाला
सुनि आचरज करै जनि कोई । सतसंगति महिम नहिं गोई ॥१॥
बालमीक नारद घटकोजी । निज निज मुखनि कही निज होनी ॥
जलचर थलचर नाना । जे जड चेतन जीव जहाना ॥२॥
मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥
सो जानब सतस्म्ग प्रभाऊ । लोकहुँ बेद न आन उपाऊ ॥३॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ॥
सतसंगत मुद मंगल मूला । सोइ फल सिधि सब साधन फूला ॥४॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई । पारस परस कुधात सुहाई ॥
बिधि बस सुजन कुसंगत परहिं । फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥५॥
बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी । कहत साधु महिमा सकुचानी ॥
सो मो सन कहि जात न कैसें । साक बनिक मनि गुन गन जैसें ॥६॥
दोहा
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहिं कोइ ।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ ॥३ (क )॥
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु ।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु ॥३ (ख )॥
चौपाला
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें । उजरें हरष बिषाद बसेरं ॥
हरि हर जस राकेस राहु से । पर अकाज भट सहसबाहु से ॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी । पर हित धृत जिन्ह के मन माखी ॥२॥
तेज कृसानु रोष महिषेसा । अघ अवगुन धन धनी धनेसा ॥
उदय केत सम हित सबही के । कुंभकरन सम सोवत नीके ॥३॥
पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं । जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं ॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा । सहस बदन बरनइ पर दोषा ॥४॥
पुनि प्रनवउँ पृथराज समाना । पर अघ सुनइ सहस दस काना ॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही । संतत सुरानीक हित जेही ॥५॥
बचन बज्र जेहि सदा पिआरा । सहस नयन पर दोष निहारा ॥६॥
दोहा
उदासीन अरि मीत सुनत जरहिं खल रिति ।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति ॥४॥
चौपाला
बायस पलिअहिं अति अनुरागा । होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा ॥१॥
बंदउँ संत असज्जन चरना । दुखप्रद उभय बीच कछु बरना ॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं । मिलत एक दुख दारुन देहीं ॥२॥
उपजहिं एक संग जग माहीं । जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं ॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू । जनक एक जग जलधि अगाधू ॥३॥
भल अनभल निज करतूती । लहत सुजस अपलोक बिभूती ॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू । गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ॥४॥
गुन अवगुन जानत सब कोई । जो जेहि भाव नीक तेहि सोई ॥५॥
दोहा
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु ।
सुधा सराहिअ अमरताँ मीचु ॥५॥
चौपाला
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने । संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥१॥
भलेउ पोच सब बिधि उपजाए । गनि गुन दोष बेद बिलगाए ॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना । बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ॥२॥
दुख सुख पाप पुन्य दिन राती । साधु असाधु सुजाति कुजाती ॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू । अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू ॥३॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा । लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा ॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा । मरु मारव महिदेव गवासा ॥४॥
सरग नरक अनुराग बिरागा । निगमागम गुन दोष बिभागा ॥५॥
दोहा
जड चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार ॥६॥
चौपाला
काल सुभाउ करम बरिआईं । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं ॥१॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥२॥
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥
उघरहिं अंत न होईं निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ॥३॥
किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥४॥
गगन चढ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलै नीच जल संगा ॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं ॥५॥
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥६॥
दोहा
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥७ (क )॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥७ (ख )॥
जड चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥७ (ग ) ॥
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥७ (घ ) ॥
चौपाला
सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥१॥
जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाडि छल छोहू ॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नहीं । तातें बिनय करउँ सब पाहीं ॥२॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥३॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरै न छाछी ॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥४॥
जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारि । जे पर दूषन भूषनधारी ॥५॥
निज कबित्त केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं । ते बर पुरुष बहुत जग नाही ॥६॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढि बढहिं जल पाई ॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढै जोई ॥७॥
दोहा
भाग छोट अभिलाषु बड करउँ एक बिस्वास ।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास ॥८॥
चौपाला
हंसहि बक दादुर चातकही । हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही ॥१॥
कबित रसिक न राम पद नेहू । तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू ॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी । हँसिबे जोग हँसे नहिं खोरी ॥२॥
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी । तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी ॥
हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की ॥३॥
राम भगति भूषित जियँ जानी । सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी ॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू । सकल कला सब बिद्या हीनू ॥४॥
आखर अरथ अलंकृति नाना । छंद प्रबंध अनेक बिधाना ॥
भाव भेद रस भेद अपारा । कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा ॥५॥
कबित बिबेक एक नहिं मोरें । सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें ॥६॥
दोहा
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक ॥९॥
चौपाला
मंगल भवन अमंगल हारि । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥१॥
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ । राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी । सोह न बसन बिना बर नारी ॥२॥
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी । राम नाम जस अंकित जानी ॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही । मधुकर सरिस संत गुनग्राही ॥३॥
जदपि कबित रस एकउ नाहीं । राम प्रताप प्रगट एहि माहीं ॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा । केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा ॥४॥
धूमउ तजइ सहज करुआई । अगरु प्रसंग सुगंध बसाई ॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी । राम कथा जग मंगल करनी ॥५॥
मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की ।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की ॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी ।
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी ॥
दोहा
प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग ।
दारु बिजारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग ॥१० (क )॥
स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान ।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥१० (ख )॥
चौपाला
नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥
जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥