लंकाकाण्ड दोहा १०१ से ११०
दोहा
ताके गुन गन कछु कहे जड़मति तुलसीदास ।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उड़इ अकास ॥१०१क॥
काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस ।
प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस ॥१०१ख॥
चौपाला
काटत बढ़हिं सीस समुदाई । जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा । राम बिभीषन तन तब देखा ॥
उमा काल मर जाकीं ईछा । सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा ॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक । प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक ॥
नाभिकुंड पियूष बस याकें । नाथ जिअत रावनु बल ताकें ॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला । हरषि गहे कर बान कराला ॥
असुभ होन लागे तब नाना । रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना ॥
बोलहि खग जग आरति हेतू । प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू ॥
दस दिसि दाह होन अति लागा । भयउ परब बिनु रबि उपरागा ॥
मंदोदरि उर कंपति भारी । प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी ॥
छंद
प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही ।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही ॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए ।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए ॥
दोहा
खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस ।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस ॥१०२॥
चौपाला
सायक एक नाभि सर सोषा । अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥
लै सिर बाहु चले नाराचा । सिर भुज हीन रुंड महि नाचा ॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा । तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा ॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी । कहाँ रामु रन हतौं पचारी ॥
डोली भूमि गिरत दसकंधर । छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर ॥
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई । चापि भालु मर्कट समुदाई ॥
मंदोदरि आगें भुज सीसा । धरि सर चले जहाँ जगदीसा ॥
प्रबिसे सब निषंग महु जाई । देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई ॥
तासु तेज समान प्रभु आनन । हरषे देखि संभु चतुरानन ॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा । जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा ॥
बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा । जय कृपाल जय जयति मुकुंदा ॥
छंद
जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो ।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो ॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही ।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही ॥
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं ।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं ॥
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने ।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने ॥
दोहा
कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद ।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद ॥१०३॥
चौपाला
पति सिर देखत मंदोदरी । मुरुछित बिकल धरनि खसि परी ॥
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं । तेहि उठाइ रावन पहिं आई ॥
पति गति देखि ते करहिं पुकारा । छूटे कच नहिं बपुष सँभारा ॥
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना । रोवत करहिं प्रताप बखाना ॥
तव बल नाथ डोल नित धरनी । तेज हीन पावक ससि तरनी ॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा । सो तनु भूमि परेउ भरि छारा ॥
बरुन कुबेर सुरेस समीरा । रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा ॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं । आजु परेहु अनाथ की नाईं ॥
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनिहारा ॥
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा । सभय दिसिप नित नावहिं माथा ॥
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं । राम बिमुख यह अनुचित नाहीं ॥
काल बिबस पति कहा न माना । अग जग नाथु मनुज करि जाना ॥
छंद
जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं ।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं ॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं ।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं ॥
दोहा
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन ।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ॥१०४॥
चौपाला
मंदोदरी बचन सुनि काना । सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना ॥
अज महेस नारद सनकादी । जे मुनिबर परमारथबादी ॥
भरि लोचन रघुपतिहि निहारी । प्रेम मगन सब भए सुखारी ॥
रुदन करत देखीं सब नारी । गयउ बिभीषनु मन दुख भारी ॥
बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा । तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा ॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो । बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो ॥
कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका । करहु क्रिया परिहरि सब सोका ॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी । बिधिवत देस काल जियँ जानी ॥
दोहा
मंदोदरी आदि सब देइ तिलांजलि ताहि ।
भवन गई रघुपति गुन गन बरनत मन माहि ॥१०५॥
चौपाला
आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो । कृपासिंधु तब अनुज बोलायो ॥
तुम्ह कपीस अंगद नल नीला । जामवंत मारुति नयसीला ॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा । सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा ॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ । आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ ॥
तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना । कीन्ही जाइ तिलक की रचना ॥
सादर सिंहासन बैठारी । तिलक सारि अस्तुति अनुसारी ॥
जोरि पानि सबहीं सिर नाए । सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए ॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे । कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे ॥
छंद
किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो ।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो ॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं ।
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं ॥
दोहा
प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज ।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज ॥१०६॥
चौपाला
पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना । लंका जाहु कहेउ भगवाना ॥
समाचार जानकिहि सुनावहु । तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु ॥
तब हनुमंत नगर महुँ आए । सुनि निसिचरी निसाचर धाए ॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही । जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही ॥
दूरहि ते प्रनाम कपि कीन्हा । रघुपति दूत जानकीं चीन्हा ॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता । कुसल अनुज कपि सेन समेता ॥
सब बिधि कुसल कोसलाधीसा । मातु समर जीत्यो दससीसा ॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो । सुनि कपि बचन हरष उर छायो ॥
छंद
अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा ।
का देउँ तोहि त्रेलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा ॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं ।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं ॥
दोहा
सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत ।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत ॥१०७॥
चौपाला
अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता । देखौं नयन स्याम मृदु गाता ॥
तब हनुमान राम पहिं जाई । जनकसुता कै कुसल सुनाई ॥
सुनि संदेसु भानुकुलभूषन । बोलि लिए जुबराज बिभीषन ॥
मारुतसुत के संग सिधावहु । सादर जनकसुतहि लै आवहु ॥
तुरतहिं सकल गए जहँ सीता । सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता ॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो । तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो ॥
बहु प्रकार भूषन पहिराए । सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए ॥
ता पर हरषि चढ़ी बैदेही । सुमिरि राम सुखधाम सनेही ॥
बेतपानि रच्छक चहुँ पासा । चले सकल मन परम हुलासा ॥
देखन भालु कीस सब आए । रच्छक कोपि निवारन धाए ॥
कह रघुबीर कहा मम मानहु । सीतहि सखा पयादें आनहु ॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं । बिहसि कहा रघुनाथ गोसाई ॥
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे । नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे ॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी । प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी ॥
दोहा
तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद ।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद ॥१०८॥
चौपाला
प्रभु के बचन सीस धरि सीता । बोली मन क्रम बचन पुनीता ॥
लछिमन होहु धरम के नेगी । पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी ॥
सुनि लछिमन सीता कै बानी । बिरह बिबेक धरम निति सानी ॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ । प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ ॥
देखि राम रुख लछिमन धाए । पावक प्रगटि काठ बहु लाए ॥
पावक प्रबल देखि बैदेही । हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही ॥
जौं मन बच क्रम मम उर माहीं । तजि रघुबीर आन गति नाहीं ॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना । मो कहुँ होउ श्रीखंड समाना ॥
छंद
श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली ।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली ॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे ।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे ॥१॥
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो ।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो ॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली ।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली ॥२॥
दोहा
बरषहिं सुमन हरषि सुन बाजहिं गगन निसान ।
गावहिं किंनर सुरबधू नाचहिं चढ़ीं बिमान ॥१०९क॥
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार ।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार ॥१०९ख॥
चौपाला
तब रघुपति अनुसासन पाई । मातलि चलेउ चरन सिरु नाई ॥
आए देव सदा स्वारथी । बचन कहहिं जनु परमारथी ॥
दीन बंधु दयाल रघुराया । देव कीन्हि देवन्ह पर दाया ॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी । निज अघ गयउ कुमारगगामी ॥
तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी । सदा एकरस सहज उदासी ॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय । अजित अमोघसक्ति करुनामय ॥
मीन कमठ सूकर नरहरी । बामन परसुराम बपु धरी ॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो । नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो ॥
यह खल मलिन सदा सुरद्रोही । काम लोभ मद रत अति कोही ॥
अधम सिरोमनि तव पद पावा । यह हमरे मन बिसमय आवा ॥
हम देवता परम अधिकारी । स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी ॥
भव प्रबाहँ संतत हम परे । अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे ॥
दोहा
करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि ।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि ॥११० ॥
छंद
जय राम सदा सुखधाम हरे । रघुनायक सायक चाप धरे ॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो । गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥
तन काम अनेक अनूप छबी । गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी ॥
जसु पावन रावन नाग महा । खगनाथ जथा करि कोप गहा ॥
जन रंजन भंजन सोक भयं । गतक्रोध सदा प्रभु बोधमयं ॥
अवतार उदार अपार गुनं । महि भार बिभंजन ग्यानघनं ॥
अज ब्यापकमेकमनादि सदा । करुनाकर राम नमामि मुदा ॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा । कृत भूप बिभीषन दीन रहा ॥
गुन ग्यान निधान अमान अजं । नित राम नमामि बिभुं बिरजं ॥
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं । खल बृंद निकंद महा कुसलं ॥
बिनु कारन दीन दयाल हितं । छबि धाम नमामि रमा सहितं ॥
भव तारन कारन काज परं । मन संभव दारुन दोष हरं ॥
सर चाप मनोहर त्रोन धरं । जरजारुन लोचन भूपबरं ॥
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं । मद मार मुधा ममता समनं ॥
अनवद्य अखंड न गोचर गो । सबरूप सदा सब होइ न गो ॥
इति बेद बदंति न दंतकथा । रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा ॥
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए । निरखंति तवानन सादर ए ॥
धिग जीवन देव सरीर हरे । तव भक्ति बिना भव भूलि परे ॥
अब दीन दयाल दया करिऐ । मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ । दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ ॥
खल खंडन मंडन रम्य छमा । पद पंकज सेवित संभु उमा ॥
नृप नायक दे बरदानमिदं । चरनांबुज प्रेम सदा सुभदं ॥