सुन्दरकाण्ड दोहा ३१ से ४०
दोहा
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति ।
बेगि चलिय प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥३१॥
चौपाला
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन काँय मन मम गति जाही । सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥
सुनु सुत उरिन मैं नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥
दोहा
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥३२॥
चौपाला
बार बार प्रभु चहइ उठावा । प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा । सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
सावधान मन करि पुनि संकर । लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाइ प्रभु हृदयँ लगावा । कर गहि परम निकट बैठावा ॥
कहु कपि रावन पालित लंका । केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत अभिमाना ॥
साखामृग के बड़ि मनुसाई । साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बिधि बिपिन उजारा ।
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
दोहा
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकुल ।
तब प्रभावँ बड़वानलहिं जारि सकइ खलु तूल ॥३३॥
चौपाला
नाथ भगति अति सुखदायनी । देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी । एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना । ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संवाद जासु उर आवा । रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा । जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा । कहा चलैं कर करहु बनावा ॥
अब बिलंबु केहि कारन कीजे । तुरत कपिन्ह कहुँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी । नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥
दोहा
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥३४॥
चौपाला
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा । गरजहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना । चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा । भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना । सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥
जासु सकल मंगलमय कीती । तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं । फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई । असगुन भयउ रावनहि सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा । गर्जहि बानर भालु अपारा ॥
नख आयुध गिरि पादपधारी । चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं । डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥
छंद
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं ।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥१ ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई ।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ट कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी ।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥२ ॥
दोहा
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर ।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥३५॥
चौपाला
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका । जब ते जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा । नहिं निसिचर कुल केर उबारा ॥
जासु दूत बल बरनि न जाई । तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतन्हि सन सुनि पुरजन बानी । मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी । बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू । मोर कहा अति हित हियँ धरहु ॥
समुझत जासु दूत कइ करनी । स्त्रवहीं गर्भ रजनीचर धरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई । पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥
तब कुल कमल बिपिन दुखदाई । सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें । हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥
दोहा –
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक ।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥३६॥
चौपाला
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी । बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा । मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई । जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकी त्रासा । तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई । चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता । भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई । सिंधु पार सेना सब आई ॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू । ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं । नर बानर केहि लेखे माही ॥
दोहा
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥३७॥
चौपाला
सोइ रावन कहुँ बनि सहाई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा । भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन । बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता । मति अनुरुप कहउँ हित ताता ॥
जो आपन चाहै कल्याना । सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥
सो परनारि लिलार गोसाईं । तजउ चउथि के चंद कि नाई ॥
चौदह भुवन एक पति होई । भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ । अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥
दोहा
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥३८॥
चौपाला
तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता । ब्यापक अजित अनादि अनंता ॥
गो द्विज धेनु देव हितकारी । कृपासिंधु मानुष तनुधारी ॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता । बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता ॥
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा । प्रनतारति भंजन रघुनाथा ॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ॥
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा । बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा ॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन ॥
दोहा
बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस ।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥३९ -क॥
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात ।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥३९ -ख॥
चौपाला
माल्यवंत अति सचिव सयाना । तासु बचन सुनि अति सुख माना ॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन । सो उर धरहु जो कहत बिभीषन ॥
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ । दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ ॥
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी । कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी ॥
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं । नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना । जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥
तव उर कुमति बसी बिपरीता । हित अनहित मानहु रिपु प्रीता ॥
कालराति निसिचर कुल केरी । तेहि सीता पर प्रीति घनेरी ॥
दोहा
तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार ।
सीत देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥४०॥
चौपाला
बुध पुरान श्रुति संमत बानी । कही बिभीषन नीति बखानी ॥
सुनत दसानन उठा रिसाई । खल तोहि निकट मुत्यु अब आई ॥
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा । रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा ॥
कहसि न खल अस को जग माहीं । भुज बल जाहि जिता मैं नाही ॥
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती ॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहिं बारा ॥
उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा । रामु भजें हित नाथ तुम्हारा ॥
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ । सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ ॥