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बालकाण्ड दोहा ३५१ से ३६०

दोहा

देंहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ ॥३५१॥

चौपाला
जो बसिष्ठ अनुसासन दीन्ही । लोक बेद बिधि सादर कीन्ही ॥
भूसुर भीर देखि सब रानी । सादर उठीं भाग्य बड़ जानी ॥
पाय पखारि सकल अन्हवाए । पूजि भली बिधि भूप जेवाँए ॥
आदर दान प्रेम परिपोषे । देत असीस चले मन तोषे ॥
बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा । नाथ मोहि सम धन्य न दूजा ॥
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी । रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी ॥
भीतर भवन दीन्ह बर बासु । मन जोगवत रह नृप रनिवासू ॥
पूजे गुर पद कमल बहोरी । कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी ॥

दोहा

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि बंदत गुर चरन देत असीस मुनीसु ॥३५२॥

चौपाला
बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें । सुत संपदा राखि सब आगें ॥
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा । आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा ॥
उर धरि रामहि सीय समेता । हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता ॥
बिप्रबधू सब भूप बोलाई । चैल चारु भूषन पहिराई ॥
बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं । रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं ॥
नेगी नेग जोग सब लेहीं । रुचि अनुरुप भूपमनि देहीं ॥
प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने । भूपति भली भाँति सनमाने ॥
देव देखि रघुबीर बिबाहू । बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू ॥

दोहा

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ ।
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ ॥३५३॥

चौपाला
सब बिधि सबहि समदि नरनाहू । रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू ॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे । सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे ॥
लिए गोद करि मोद समेता । को कहि सकइ भयउ सुखु जेता ॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं । बार बार हियँ हरषि दुलारीं ॥
देखि समाजु मुदित रनिवासू । सब कें उर अनंद कियो बासू ॥
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू । सुनि हरषु होत सब काहू ॥
जनक राज गुन सीलु बड़ाई । प्रीति रीति संपदा सुहाई ॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी । रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी ॥

दोहा

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति ।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पंच गइ राति ॥३५४॥

चौपाला
मंगलगान करहिं बर भामिनि । भै सुखमूल मनोहर जामिनि ॥
अँचइ पान सब काहूँ पाए । स्त्रग सुगंध भूषित छबि छाए ॥
रामहि देखि रजायसु पाई । निज निज भवन चले सिर नाई ॥
प्रेम प्रमोद बिनोदु बढ़ाई । समउ समाजु मनोहरताई ॥
कहि न सकहि सत सारद सेसू । बेद बिरंचि महेस गनेसू ॥
सो मै कहौं कवन बिधि बरनी । भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी ॥
नृप सब भाँति सबहि सनमानी । कहि मृदु बचन बोलाई रानी ॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं । राखेहु नयन पलक की नाई ॥

दोहा

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ ॥३५५॥
चौपाला
भूप बचन सुनि सहज सुहाए । जरित कनक मनि पलँग डसाए ॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना । कोमल कलित सुपेतीं नाना ॥
उपबरहन बर बरनि न जाहीं । स्त्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं ॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा । कहत न बनइ जान जेहिं जोवा ॥
सेज रुचिर रचि रामु उठाए । प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए ॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही । निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही ॥
देखि स्याम मृदु मंजुल गाता । कहहिं सप्रेम बचन सब माता ॥
मारग जात भयावनि भारी । केहि बिधि तात ताड़का मारी ॥

दोहा

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु ॥
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु ॥३५६॥

चौपाला
मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी । ईस अनेक करवरें टारी ॥
मख रखवारी करि दुहुँ भाई । गुरु प्रसाद सब बिद्या पाई ॥
मुनितय तरी लगत पग धूरी । कीरति रही भुवन भरि पूरी ॥
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा । नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा ॥
बिस्व बिजय जसु जानकि पाई । आए भवन ब्याहि सब भाई ॥
सकल अमानुष करम तुम्हारे । केवल कौसिक कृपाँ सुधारे ॥
आजु सुफल जग जनमु हमारा । देखि तात बिधुबदन तुम्हारा ॥
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें । ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें ॥

दोहा

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन ॥३५७॥

चौपाला
नीदउँ बदन सोह सुठि लोना । मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना ॥
घर घर करहिं जागरन नारीं । देहिं परसपर मंगल गारीं ॥
पुरी बिराजति राजति रजनी । रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी ॥
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोई । फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोई ॥
प्रात पुनीत काल प्रभु जागे । अरुनचूड़ बर बोलन लागे ॥
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए । पुरजन द्वार जोहारन आए ॥
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता । पाइ असीस मुदित सब भ्राता ॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे । भूपति संग द्वार पगु धारे ॥

दोहा

कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ ॥३५८॥
नवान्हपारायण ,तीसरा विश्राम

चौपाला
भूप बिलोकि लिए उर लाई । बैठै हरषि रजायसु पाई ॥
देखि रामु सब सभा जुड़ानी । लोचन लाभ अवधि अनुमानी ॥
पुनि बसिष्टु मुनि कौसिक आए । सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए ॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे । निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे ॥
कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा । सुनहिं महीसु सहित रनिवासा ॥
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी । मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी ॥
बोले बामदेउ सब साँची । कीरति कलित लोक तिहुँ माची ॥
सुनि आनंदु भयउ सब काहू । राम लखन उर अधिक उछाहू ॥

दोहा

मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति ॥३५९॥

चौपाला

सुदिन सोधि कल कंकन छौरे । मंगल मोद बिनोद न थोरे ॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं । अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं ॥
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं । राम सप्रेम बिनय बस रहहीं ॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ । देखि सराह महामुनिराऊ ॥
मागत बिदा राउ अनुरागे । सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे ॥
नाथ सकल संपदा तुम्हारी । मैं सेवकु समेत सुत नारी ॥
करब सदा लरिकनः पर छोहू । दरसन देत रहब मुनि मोहू ॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी । परेउ चरन मुख आव न बानी ॥
दीन्ह असीस बिप्र बहु भाँती । चले न प्रीति रीति कहि जाती ॥
रामु सप्रेम संग सब भाई । आयसु पाइ फिरे पहुँचाई ॥

दोहा

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु ॥३६०॥

चौपाला

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी । बहुरि गाधिसुत कथा बखानी ॥
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ । बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ ॥
बहुरे लोग रजायसु भयऊ । सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ ॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा । सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा ॥
आए ब्याहि रामु घर जब तें । बसइ अनंद अवध सब तब तें ॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू । सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू ॥
कबिकुल जीवनु पावन जानी । राम सीय जसु मंगल खानी ॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी । करन पुनीत हेतु निज बानी ॥

छंद

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसी कह्यो ।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो ॥
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं ।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं ॥

सोरठा सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं ।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु ॥३६१॥

मासपारायण , बारहवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषबिध्वंसने
प्रथमः सोपानः समाप्तः।
(बालकाण्ड समाप्त )

रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदास
Chapters
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