उत्तरकाण्ड - दोहा ४१ से ५०
दोहा
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक ।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक ॥४१॥
चौपाला
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई । हरषे प्रेम न हृदयँ समाई ॥
करहिं बिनय अति बारहिं बारा । हनूमान हियँ हरष अपारा ॥
पुनि रघुपति निज मंदिर गए । एहि बिधि चरित करत नित नए ॥
बार बार नारद मुनि आवहिं । चरित पुनीत राम के गावहिं ॥
नित नव चरन देखि मुनि जाहीं । ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं ॥
सुनि बिरंचि अतिसय सुख मानहिं । पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं ॥
सनकादिक नारदहि सराहहिं । जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं ॥
सुनि गुन गान समाधि बिसारी ॥सादर सुनहिं परम अधिकारी ॥
दोहा
जीवनमुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान ।
जे हरि कथाँ न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान ॥४२॥
चौपाला
एक बार रघुनाथ बोलाए । गुर द्विज पुरबासी सब आए ॥
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन । बोले बचन भगत भव भंजन ॥
सनहु सकल पुरजन मम बानी । कहउँ न कछु ममता उर आनी ॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई । सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई ॥
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई । मम अनुसासन मानै जोई ॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई । तौं मोहि बरजहु भय बिसराई ॥
बड़ें भाग मानुष तनु पावा । सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा ॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा । पाइ न जेहिं परलोक सँवारा ॥
दोहा
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ ॥४३॥
चौपाला
एहि तन कर फल बिषय न भाई । स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं । पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं ॥
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई । गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई ॥
आकर चारि लच्छ चौरासी । जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी ॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥
कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो । सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा । दुर्लभ साज सुलभ करि पावा ॥
दोहा
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥४४॥
चौपाला
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू । सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू ॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई । भगति मोरि पुरान श्रुति गाई ॥
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका । साधन कठिन न मन कहुँ टेका ॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ । भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ॥
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी । बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता । सतसंगति संसृति कर अंता ॥
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा । मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा ॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा । जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ॥
दोहा
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि ।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ॥४५॥
चौपाला
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा । जोग न मख जप तप उपवासा ॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई । जथा लाभ संतोष सदाई ॥
मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई । एहि आचरन बस्य मैं भाई ॥
बैर न बिग्रह आस न त्रासा । सुखमय ताहि सदा सब आसा ॥
अनारंभ अनिकेत अमानी । अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी ॥
प्रीति सदा सज्जन संसर्गा । तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा ॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई । दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई ॥
दोहा
मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह ।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह ॥४६॥
चौपाला
सुनत सुधासम बचन राम के । गहे सबनि पद कृपाधाम के ॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे । कृपा निधान प्रान ते प्यारे ॥
तनु धनु धाम राम हितकारी । सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी ॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ । मातु पिता स्वारथ रत ओऊ ॥
हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं । सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं ॥
सबके बचन प्रेम रस साने । सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने ॥
निज निज गृह गए आयसु पाई । बरनत प्रभु बतकही सुहाई ॥
दोहा
उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप ।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ॥४७॥
चौपाला
एक बार बसिष्ट मुनि आए । जहाँ राम सुखधाम सुहाए ॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा । पद पखारि पादोदक लीन्हा ॥
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी । कृपासिंधु बिनती कछु मोरी ॥
देखि देखि आचरन तुम्हारा । होत मोह मम हृदयँ अपारा ॥
महिमा अमित बेद नहिं जाना । मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना ॥
उपरोहित्य कर्म अति मंदा । बेद पुरान सुमृति कर निंदा ॥
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही । कहा लाभ आगें सुत तोही ॥
परमातमा ब्रह्म नर रूपा । होइहि रघुकुल भूषन भूपा ॥
दोहा
तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान ।
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन ॥४८॥
चौपाला
जप तप नियम जोग निज धर्मा । श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा ॥
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन । जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन ॥
आगम निगम पुरान अनेका । पढ़े सुने कर फल प्रभु एका ॥
तब पद पंकज प्रीति निरंतर । सब साधन कर यह फल सुंदर ॥
छूटइ मल कि मलहि के धोएँ । घृत कि पाव कोइ बारि बिलोएँ ॥
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
सोइ सर्बग्य तग्य सोइ पंडित । सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित ॥
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई । जाकें पद सरोज रति होई ॥
दोहा
नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु ।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु ॥४९॥
चौपाला
अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए । कृपासिंधु के मन अति भाए ॥
हनूमान भरतादिक भ्राता । संग लिए सेवक सुखदाता ॥
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए । गज रथ तुरग मगावत भए ॥
देखि कृपा करि सकल सराहे । दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे ॥
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई । गए जहाँ सीतल अवँराई ॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई । बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई ॥
मारुतसुत तब मारूत करई । पुलक बपुष लोचन जल भरई ॥
हनूमान सम नहिं बड़भागी । नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई । बार बार प्रभु निज मुख गाई ॥
दोहा
तेहिं अवसर मुनि नारद आए करतल बीन ।
गावन लगे राम कल कीरति सदा नबीन ॥५०॥
चौपाला
मामवलोकय पंकज लोचन । कृपा बिलोकनि सोच बिमोचन ॥
नील तामरस स्याम काम अरि । हृदय कंज मकरंद मधुप हरि ॥
जातुधान बरूथ बल भंजन । मुनि सज्जन रंजन अघ गंजन ॥
भूसुर ससि नव बृंद बलाहक । असरन सरन दीन जन गाहक ॥
भुज बल बिपुल भार महि खंडित । खर दूषन बिराध बध पंडित ॥
रावनारि सुखरूप भूपबर । जय दसरथ कुल कुमुद सुधाकर ॥
सुजस पुरान बिदित निगमागम । गावत सुर मुनि संत समागम ॥
कारुनीक ब्यलीक मद खंडन । सब बिधि कुसल कोसला मंडन ॥
कलि मल मथन नाम ममताहन । तुलसीदास प्रभु पाहि प्रनत जन ॥