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उत्तरकाण्ड - दोहा ९१ से १००

दोहा

मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास ।

ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास ॥९१ -क॥

काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत ।

धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत ॥९१ -ख॥

 

चौपाला

प्रभु अगाध सत कोटि पताला । समन कोटि सत सरिस कराला ॥

तीरथ अमित कोटि सम पावन । नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥

हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा । सिंधु कोटि सत सम गंभीरा ॥

कामधेनु सत कोटि समाना । सकल काम दायक भगवाना ॥

सारद कोटि अमित चतुराई । बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई ॥

बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता । रुद्र कोटि सत सम संहर्ता ॥

धनद कोटि सत सम धनवाना । माया कोटि प्रपंच निधाना ॥

भार धरन सत कोटि अहीसा । निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा ॥

छंद

निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै ।

जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै ॥

एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं ।

प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं ॥

दोहा

रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ ।

संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ ॥९२ -क॥

सोरठा

भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन ।

तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन ॥९२ -ख॥

चौपाला

सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए । हरषित खगपति पंख फुलाए ॥

नयन नीर मन अति हरषाना । श्रीरघुपति प्रताप उर आना ॥

पाछिल मोह समुझि पछिताना । ब्रह्म अनादि मनुज करि माना ॥

पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा । जानि राम सम प्रेम बढ़ावा ॥

गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई । जौं बिरंचि संकर सम होई ॥

संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता । दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता ॥

तव सरूप गारुड़ि रघुनायक । मोहि जिआयउ जन सुखदायक ॥

तव प्रसाद मम मोह नसाना । राम रहस्य अनूपम जाना ॥

दोहा

ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि ।

बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि ॥९३ -क॥

प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि ।

कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि ॥९३ -ख॥

चौपाला

तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा । सुमति सुसील सरल आचारा ॥

ग्यान बिरति बिग्यान निवासा । रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा ॥

कारन कवन देह यह पाई । तात सकल मोहि कहहु बुझाई ॥

राम चरित सर सुंदर स्वामी । पायहु कहाँ कहहु नभगामी ॥

नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं । महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं ॥

मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई । सोउ मोरें मन संसय अहई ॥

अग जग जीव नाग नर देवा । नाथ सकल जगु काल कलेवा ॥

अंड कटाह अमित लय कारी । कालु सदा दुरतिक्रम भारी ॥

सोरठा

तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन ।

मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल ॥९४ -क॥

दोहा

प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग ।

कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग ॥९४ -ख॥

चौपाला

गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा । बोलेउ उमा परम अनुरागा ॥

धन्य धन्य तव मति उरगारी । प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी ॥

सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई । बहुत जनम कै सुधि मोहि आई ॥

सब निज कथा कहउँ मैं गाई । तात सुनहु सादर मन लाई ॥

जप तप मख सम दम ब्रत दाना । बिरति बिबेक जोग बिग्याना ॥

सब कर फल रघुपति पद प्रेमा । तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा ॥

एहि तन राम भगति मैं पाई । ताते मोहि ममता अधिकाई ॥

जेहि तें कछु निज स्वारथ होई । तेहि पर ममता कर सब कोई ॥

सोरठा

पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं ।

अति नीचहु सन प्रीति करिअ जानि निज परम हित ॥९५ -क॥

पाट कीट तें होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर ।

कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम ॥९५ -ख॥

चौपाला

स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा । मन क्रम बचन राम पद नेहा ॥

सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा । जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा ॥

राम बिमुख लहि बिधि सम देही । कबि कोबिद न प्रसंसहिं तेही ॥

राम भगति एहिं तन उर जामी । ताते मोहि परम प्रिय स्वामी ॥

तजउँ न तन निज इच्छा मरना । तन बिनु बेद भजन नहिं बरना ॥

प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा । राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा ॥

नाना जनम कर्म पुनि नाना । किए जोग जप तप मख दाना ॥

कवन जोनि जनमेउँ जहँ नाहीं । मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जग माहीं ॥

देखेउँ करि सब करम गोसाई । सुखी न भयउँ अबहिं की नाई ॥

सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी । सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी ॥

दोहा

प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस ।

सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस ॥९६ -क॥

पूरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल ॥

नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल ॥९६ -ख॥

चौपाला

तेहि कलिजुग कोसलपुर जाई । जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई ॥

सिव सेवक मन क्रम अरु बानी । आन देव निंदक अभिमानी ॥

धन मद मत्त परम बाचाला । उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला ॥

जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी । तदपि न कछु महिमा तब जानी ॥

अब जाना मैं अवध प्रभावा । निगमागम पुरान अस गावा ॥

कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई । राम परायन सो परि होई ॥

अवध प्रभाव जान तब प्रानी । जब उर बसहिं रामु धनुपानी ॥

सो कलिकाल कठिन उरगारी । पाप परायन सब नर नारी ॥

दोहा

कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ ।

दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ ॥९७ -क॥

भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म ।

सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउँ कछुक कलिधर्म ॥९७ -ख॥

चौपाला

बरन धर्म नहिं आश्रम चारी । श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥

द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । कोउ नहिं मान निगम अनुसासन ॥

मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा । पंडित सोइ जो गाल बजावा ॥

मिथ्यारंभ दंभ रत जोई । ता कहुँ संत कहइ सब कोई ॥

सोइ सयान जो परधन हारी । जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥

जौ कह झूँठ मसखरी जाना । कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना ॥

निराचार जो श्रुति पथ त्यागी । कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी ॥

जाकें नख अरु जटा बिसाला । सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला ॥

दोहा

असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं ।

तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं ॥९८ -क॥

सोरठा

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ ।

मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ ॥९८ -ख॥

चौपाला

नारि बिबस नर सकल गोसाई । नाचहिं नट मर्कट की नाई ॥

सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना । मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना ॥

सब नर काम लोभ रत क्रोधी । देव बिप्र श्रुति संत बिरोधी ॥

गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी । भजहिं नारि पर पुरुष अभागी ॥

सौभागिनीं बिभूषन हीना । बिधवन्ह के सिंगार नबीना ॥

गुर सिष बधिर अंध का लेखा । एक न सुनइ एक नहिं देखा ॥

हरइ सिष्य धन सोक न हरई । सो गुर घोर नरक महुँ परई ॥

मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं । उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं ॥

दोहा

ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात ।

कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात ॥९९ -क॥

बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि ।

जानइ ब्रह्म सो बिप्रबर आँखि देखावहिं डाटि ॥९९ -ख॥

चौपाला

पर त्रिय लंपट कपट सयाने । मोह द्रोह ममता लपटाने ॥

तेइ अभेदबादी ग्यानी नर । देखा में चरित्र कलिजुग कर ॥

आपु गए अरु तिन्हहू घालहिं । जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं ॥

कल्प कल्प भरि एक एक नरका । परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका ॥

जे बरनाधम तेलि कुम्हारा । स्वपच किरात कोल कलवारा ॥

नारि मुई गृह संपति नासी । मूड़ मुड़ाइ होहिं सन्यासी ॥

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं । उभय लोक निज हाथ नसावहिं ॥

बिप्र निरच्छर लोलुप कामी । निराचार सठ बृषली स्वामी ॥

सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना । बैठि बरासन कहहिं पुराना ॥

सब नर कल्पित करहिं अचारा । जाइ न बरनि अनीति अपारा ॥

दोहा

भए बरन संकर कलि भिन्नसेतु सब लोग ।

करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग ॥१०० -क॥

श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक ।

तेहि न चलहिं नर मोह बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥१०० -ख॥

छंद

बहु दाम सँवारहिं धाम जती । बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती ॥

तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ॥

कुलवंति निकारहिं नारि सती । गृह आनिहिं चेरी निबेरि गती ॥

सुत मानहिं मातु पिता तब लौं । अबलानन दीख नहीं जब लौं ॥

ससुरारि पिआरि लगी जब तें । रिपरूप कुटुंब भए तब तें ॥

नृप पाप परायन धर्म नहीं । करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं ॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥

नहिं मान पुरान न बेदहि जो । हरि सेवक संत सही कलि सो ।

कबि बृंद उदार दुनी न सुनी । गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी ॥

कलि बारहिं बार दुकाल परै । बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै ॥

रामचरितमानस

गोस्वामी तुलसीदास
Chapters
बालकाण्ड श्लोक बालकाण्ड दोहा १ से १० बालकाण्ड दोहा ११ से २० बालकाण्ड दोहा २१ से ३० बालकाण्ड दोहा ३१ से ४० बालकाण्ड दोहा ४१ से ५० बालकाण्ड दोहा ५१ से ६० बालकाण्ड दोहा ६१ से ७० बालकाण्ड दोहा ७१ से ८० बालकाण्ड दोहा ८१ से ९० बालकाण्ड दोहा ९१ से १०० बालकाण्ड दोहा १०१ से ११० बालकाण्ड दोहा १११ से १२० बालकाण्ड दोहा १२१ से १३० बालकाण्ड दोहा १३१ से १४० बालकाण्ड दोहा १४१ से १५० बालकाण्ड दोहा १५१ से १६० बालकाण्ड दोहा १६१ से १७० बालकाण्ड दोहा १७१ से १८० बालकाण्ड दोहा १८१ से १९० बालकाण्ड दोहा १९१ से २०० बालकाण्ड दोहा २०१ से २१० बालकाण्ड दोहा २११ से २२० बालकाण्ड दोहा २२१ से २३० बालकाण्ड दोहा २३१ से २४० बालकाण्ड दोहा २४१ से २५० बालकाण्ड दोहा २५१ से २६० बालकाण्ड दोहा २६१ से २७० बालकाण्ड दोहा २७१ से २८० बालकाण्ड दोहा २८१ से २९० बालकाण्ड दोहा २९१ से ३०० बालकाण्ड दोहा ३०१ से ३१० बालकाण्ड दोहा ३११ से ३२० बालकाण्ड दोहा ३२१ से ३३० बालकाण्ड दोहा ३३१ से ३४० बालकाण्ड दोहा ३४१ से ३५० बालकाण्ड दोहा ३५१ से ३६० अयोध्या काण्ड श्लोक अयोध्या काण्ड दोहा १ से १० अयोध्या काण्ड दोहा ११ से २० अयोध्या काण्ड दोहा २१ से ३० अयोध्या काण्ड दोहा ३१ से ४० अयोध्या काण्ड दोहा ४१ से ५० अयोध्या काण्ड दोहा ५१ से ६० अयोध्या काण्ड दोहा ६१ से ७० अयोध्या काण्ड दोहा ७१ से ८० अयोध्या काण्ड दोहा ८१ से ९० अयोध्या काण्ड दोहा ९१ से १०० अयोध्या काण्ड दोहा १०१ से ११० अयोध्या काण्ड दोहा १११ से १२० अयोध्या काण्ड दोहा १२१ से १३० अयोध्या काण्ड दोहा १३१ से १४० अयोध्या काण्ड दोहा १४१ से १५० अयोध्या काण्ड दोहा १५१ से १६० अयोध्या काण्ड दोहा १६१ से १७० अयोध्या काण्ड दोहा १७१ से १८० अयोध्या काण्ड दोहा १८१ से १९० अयोध्या काण्ड दोहा १९१ से २०० अयोध्या काण्ड दोहा २०१ से २१० अयोध्या काण्ड दोहा २११ से २२० अयोध्या काण्ड दोहा २२१ से २३० अयोध्या काण्ड दोहा २३१ से २४० अयोध्या काण्ड दोहा २४१ से २५० अयोध्या काण्ड दोहा २५१ से २६० अयोध्या काण्ड दोहा २६१ से २७० अयोध्या काण्ड दोहा २७१ से २८० अयोध्या काण्ड दोहा २८१ से २९० अयोध्या काण्ड दोहा २९१ से ३०० अयोध्या काण्ड दोहा ३०१ से ३१० अयोध्या काण्ड दोहा ३११ से ३२६ अरण्यकाण्ड श्लोक अरण्यकाण्ड दोहा १ से १० अरण्यकाण्ड दोहा ११ से २० अरण्यकाण्ड दोहा २१ से ३० अरण्यकाण्ड दोहा ३१ से ४० अरण्यकाण्ड दोहा ४१ से ४६ किष्किन्धाकाण्ड श्लोक किष्किन्धाकाण्ड दोहा १ से १० किष्किन्धाकाण्ड दोहा ११ से २० किष्किन्धाकाण्ड दोहा २१ से ३० सुन्दरकाण्ड श्लोक सुन्दरकाण्ड दोहा १ से १० सुन्दरकाण्ड दोहा ११ से २० सुन्दरकाण्ड दोहा २१ से ३० सुन्दरकाण्ड दोहा ३१ से ४० सुन्दरकाण्ड दोहा ४१ से ५० सुन्दरकाण्ड दोहा ५१ से ६० लंकाकाण्ड श्लोक लंकाकाण्ड दोहा १ से १० लंकाकाण्ड दोहा ११ से २० लंकाकाण्ड दोहा २१ से ३० लंकाकाण्ड दोहा ३१ से ४० लंकाकाण्ड दोहा ४१ से ५० लंकाकाण्ड दोहा ५१ से ६० लंकाकाण्ड दोहा ६१ से ७० लंकाकाण्ड दोहा ७१ से ८० लंकाकाण्ड दोहा ८१ से ९० लंकाकाण्ड दोहा ९१ से १०० लंकाकाण्ड दोहा १०१ से ११० लंकाकाण्ड दोहा १११ से १२१ उत्तरकाण्ड - श्लोक उत्तरकाण्ड - दोहा १ से १० उत्तरकाण्ड - दोहा ११ से २० उत्तरकाण्ड - दोहा २१ से ३० उत्तरकाण्ड - दोहा ३१ से ४० उत्तरकाण्ड - दोहा ४१ से ५० उत्तरकाण्ड - दोहा ५१ से ६० उत्तरकाण्ड - दोहा ६१ से ७० उत्तरकाण्ड - दोहा ७१ से ८० उत्तरकाण्ड - दोहा ८१ से ९० उत्तरकाण्ड - दोहा ९१ से १०० उत्तरकाण्ड - दोहा १०१ से ११० उत्तरकाण्ड - दोहा १११ से १२० उत्तरकाण्ड - दोहा १२१ से १३०