उत्तरकाण्ड - दोहा १११ से १२०
दोहा
बारंबार सकोप मुनि करइ निरुपन ग्यान ।
मैं अपनें मन बैठ तब करउँ बिबिध अनुमान ॥१११ -क॥
क्रोध कि द्वेतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान ।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान ॥१११ -ख॥
चौपाला
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें । तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें ॥
परद्रोही की होहिं निसंका । कामी पुनि कि रहहिं अकलंका ॥
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें । कर्म कि होहिं स्वरूपहि चीन्हें ॥
काहू सुमति कि खल सँग जामी । सुभ गति पाव कि परत्रिय गामी ॥
भव कि परहिं परमात्मा बिंदक । सुखी कि होहिं कबहुँ हरिनिंदक ॥
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें । अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें ॥
पावन जस कि पुन्य बिनु होई । बिनु अघ अजस कि पावइ कोई ॥
लाभु कि किछु हरि भगति समाना । जेहि गावहिं श्रुति संत पुराना ॥
हानि कि जग एहि सम किछु भाई । भजिअ न रामहि नर तनु पाई ॥
अघ कि पिसुनता सम कछु आना । धर्म कि दया सरिस हरिजाना ॥
एहि बिधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ । मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ ॥
पुनि पुनि सगुन पच्छ मैं रोपा । तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा ॥
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि । उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि ॥
सत्य बचन बिस्वास न करही । बायस इव सबही ते डरही ॥
सठ स्वपच्छ तब हृदयँ बिसाला । सपदि होहि पच्छी चंडाला ॥
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई । नहिं कछु भय न दीनता आई ॥
दोहा
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाइ ।
सुमिरि राम रघुबंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ ॥११२ -क॥
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध ॥
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥११२ -ख॥
चौपाला
सुनु खगेस नहिं कछु रिषि दूषन । उर प्रेरक रघुबंस बिभूषन ॥
कृपासिंधु मुनि मति करि भोरी । लीन्हि प्रेम परिच्छा मोरी ॥
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना । मुनि मति पुनि फेरी भगवाना ॥
रिषि मम महत सीलता देखी । राम चरन बिस्वास बिसेषी ॥
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई । सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई ॥
मम परितोष बिबिध बिधि कीन्हा । हरषित राममंत्र तब दीन्हा ॥
बालकरूप राम कर ध्याना । कहेउ मोहि मुनि कृपानिधाना ॥
सुंदर सुखद मिहि अति भावा । सो प्रथमहिं मैं तुम्हहि सुनावा ॥
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा । रामचरितमानस तब भाषा ॥
सादर मोहि यह कथा सुनाई । पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई ॥
रामचरित सर गुप्त सुहावा । संभु प्रसाद तात मैं पावा ॥
तोहि निज भगत राम कर जानी । ताते मैं सब कहेउँ बखानी ॥
राम भगति जिन्ह कें उर नाहीं । कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं ॥
मुनि मोहि बिबिध भाँति समुझावा । मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा ॥
निज कर कमल परसि मम सीसा । हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा ॥
राम भगति अबिरल उर तोरें । बसिहि सदा प्रसाद अब मोरें ॥
दोहा
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान ।
कामरूप इच्धामरन ग्यान बिराग निधान ॥११३ -क॥
जेंहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्रीभगवंत ।
ब्यापिहि तहँ न अबिद्या जोजन एक प्रजंत ॥११३ -ख॥
चौपाला
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ । कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहि काऊ ॥
राम रहस्य ललित बिधि नाना । गुप्त प्रगट इतिहास पुराना ॥
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ । नित नव नेह राम पद होऊ ॥
जो इच्छा करिहहु मन माहीं । हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं ॥
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा । ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा ॥
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी । यह मम भगत कर्म मन बानी ॥
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ । प्रेम मगन सब संसय गयऊ ॥
करि बिनती मुनि आयसु पाई । पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई ॥
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ । प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ ॥
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा । बीते कलप सात अरु बीसा ॥
करउँ सदा रघुपति गुन गाना । सादर सुनहिं बिहंग सुजाना ॥
जब जब अवधपुरीं रघुबीरा । धरहिं भगत हित मनुज सरीरा ॥
तब तब जाइ राम पुर रहऊँ । सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ ॥
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा । निज आश्रम आवउँ खगभूपा ॥
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई । काग देह जेहिं कारन पाई ॥
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी । राम भगति महिमा अति भारी ॥
दोहा
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह ।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह ॥११४ -क॥
मासपारायण , उन्तीसवाँ विश्राम
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप ।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप ॥११४ -ख॥
चौपाला
जे असि भगति जानि परिहरहीं । केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी । खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई । जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी । पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी । बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं । संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा । तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही । कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना । नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं । नहिं आदरेहु भगति की नाईं ॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता । सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना । सादर बोलेउ काग सुजाना ॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा । उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर । सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना । ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती । अबला अबल सहज जड़ जाती ॥
दो० –पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ॥
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥११५ -क॥
सोरठा
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि ।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥११५ -ख॥
चौपाला
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ । बेद पुरान संत मत भाषउँ ॥
मोह न नारि नारि कें रूपा । पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ । नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी । माया खलु नर्तकी बिचारी ॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया । ताते तेहि डरपति अति माया ॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी । बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई । करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी । जाचहीं भगति सकल सुख खानी ॥
दोहा
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥११६ -क॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन ।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥११६ -ख॥
चौपाला
सुनहु तात यह अकथ कहानी । समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं । बँध्यो कीर मरकट की नाई ॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥
तब ते जीव भयउ संसारी । छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी । ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥
अस संजोग ईस जब करई । तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई । जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा । जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई । भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा । निर्मल मन अहीर निज दासा ॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई । अवटै अनल अकाम बिहाई ॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै । धृति सम जावनु देइ जमावै ॥
मुदिताँ मथैं बिचार मथानी । दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता । बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥
दोहा
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ ।
बुद्धि सिरावैं ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥११७ -क॥
तब बिग्यानरूपिनि बुद्धि बिसद घृत पाइ ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥११७ -ख॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि ।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ॥११७ग॥
सोरठा
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ॥
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥११७घ॥
चौपाला
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा । दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा । तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा । मोह आदि तम मिटइ अपारा ॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा । उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई । तब यह जीव कृतारथ होई ॥
छोरत ग्रंथि जानि खगराया । बिघ्न अनेक करइ तब माया ॥
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई । बुद्धहि लोभ दिखावहिं आई ॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा । अंचल बात बुझावहिं दीपा ॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी । तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी । तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥
इंद्रीं द्वार झरोखा नाना । तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥
आवत देखहिं बिषय बयारी । ते हठि देही कपाट उघारी ॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई । तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा । बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई । बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥
बिषय समीर बुद्धि कृत भोरी । तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥
दोहा
तब फिरि जीव बिबिध बिधि पावइ संसृति क्लेस ।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥११८ -क॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधन कठिन बिबेक ।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥११८ -ख॥
चौपाला
ग्यान पंथ कृपान कै धारा । परत खगेस होइ नहिं बारा ॥
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई । सो कैवल्य परम पद लहई ॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद । संत पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाई । अनइच्छित आवइ बरिआई ॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने । मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा । संसृति मूल अबिद्या नासा ॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी । जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥
असि हरिभगति सुगम सुखदाई । को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥
दोहा
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ॥
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥११९ -क॥
जो चेतन कहँ ज़ड़ करइ ज़ड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहिं भजहिं जीव ते धन्य ॥११९ -ख॥
चौपाला
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई । सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर । बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ॥
परम प्रकास रूप दिन राती । नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा । लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई । हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं । बसइ भगति जाके उर माहीं ॥
गरल सुधासम अरि हित होई । तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥
ब्यापहिं मानस रोग न भारी । जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥
राम भगति मनि उर बस जाकें । दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं । जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई । राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ॥
सुगम उपाय पाइबे केरे । नर हतभाग्य देहिं भटमेरे ॥
पावन पर्बत बेद पुराना । राम कथा रुचिराकर नाना ॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी । ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी । पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई । सो बिनु संत न काहूँ पाई ॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा । राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ॥
दोहा
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं ।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ॥१२० -क॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि ।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥१२० -ख॥
चौपाला
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ । जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ॥
नाथ मोहि निज सेवक जानी । सप्त प्रस्न कहहु बखानी ॥
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा । सब ते दुर्लभ कवन सरीरा ॥
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी । सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी ॥
संत असंत मरम तुम्ह जानहु । तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ॥
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला । कहहु कवन अघ परम कराला ॥
मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती । मैं संछेप कहउँ यह नीती ॥
नर तन सम नहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत तेही ॥
नरग स्वर्ग अपबर्ग निसेनी । ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर । होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेही । कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं । संत मिलन सम सुख जग नाहीं ॥
पर उपकार बचन मन काया । संत सहज सुभाउ खगराया ॥
संत सहहिं दुख परहित लागी । परदुख हेतु असंत अभागी ॥
भूर्ज तरू सम संत कृपाला । परहित निति सह बिपति बिसाला ॥
सन इव खल पर बंधन करई । खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ॥
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी । अहि मूषक इव सुनु उरगारी ॥
पर संपदा बिनासि नसाहीं । जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ॥
दुष्ट उदय जग आरति हेतू । जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू ॥
संत उदय संतत सुखकारी । बिस्व सुखद जिमि इंदु तमारी ॥
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा । पर निंदा सम अघ न गरीसा ॥
हर गुर निंदक दादुर होई । जन्म सहस्त्र पाव तन सोई ॥
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि । जग जनमइ बायस सरीर धरि ॥
सुर श्रुति निंदक जे अभिमानी । रौरव नरक परहिं ते प्रानी ॥
होहिं उलूक संत निंदा रत । मोह निसा प्रिय ग्यान भानु गत ॥
सब के निंदा जे जड़ करहीं । ते चमगादुर होइ अवतरहीं ॥
सुनहु तात अब मानस रोगा । जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा ॥
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ॥
काम बात कफ लोभ अपारा । क्रोध पित्त नित छाती जारा ॥
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई ॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना ॥
ममता दादु कंडु इरषाई । हरष बिषाद गरह बहुताई ॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई । कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई ॥
अहंकार अति दुखद डमरुआ । दंभ कपट मद मान नेहरुआ ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी । त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी ॥
जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका । कहँ लागि कहौं कुरोग अनेका ॥