लंकाकाण्ड दोहा ६१ से ७०
सोरठा
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर ।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस ॥६१॥
चौपाला
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना । अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई । उठि बैठे लछिमन हरषाई ॥
हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता । हरषे सकल भालु कपि ब्राता ॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा । जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा ॥
यह बृत्तांत दसानन सुनेऊ । अति बिषअद पुनि पुनि सिर धुनेऊ ॥
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा । बिबिध जतन करि ताहि जगावा ॥
जागा निसिचर देखिअ कैसा । मानहुँ कालु देह धरि बैसा ॥
कुंभकरन बूझा कहु भाई । काहे तव मुख रहे सुखाई ॥
कथा कही सब तेहिं अभिमानी । जेहि प्रकार सीता हरि आनी ॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे । महामहा जोधा संघारे ॥
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी । भट अतिकाय अकंपन भारी ॥
अपर महोदर आदिक बीरा । परे समर महि सब रनधीरा ॥
दोहा
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान ।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ॥६२॥
चौपाला
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा । अब मोहि आइ जगाएहि काहा ॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना । भजहु राम होइहि कल्याना ॥
हैं दससीस मनुज रघुनायक । जाके हनूमान से पायक ॥
अहह बंधु तैं कीन्हि खोटाई । प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई ॥
कीन्हेहु प्रभू बिरोध तेहि देवक । सिव बिरंचि सुर जाके सेवक ॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा । कहतेउँ तोहि समय निरबहा ॥
अब भरि अंक भेंटु मोहि भाई । लोचन सूफल करौ मैं जाई ॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन । देखौं जाइ ताप त्रय मोचन ॥
दोहा
राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक ।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक ॥६३॥
चौपाला
महिष खाइ करि मदिरा पाना । गर्जा बज्राघात समाना ॥
कुंभकरन दुर्मद रन रंगा । चला दुर्ग तजि सेन न संगा ॥
देखि बिभीषनु आगें आयउ । परेउ चरन निज नाम सुनायउ ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो । रघुपति भक्त जानि मन भायो ॥
तात लात रावन मोहि मारा । कहत परम हित मंत्र बिचारा ॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ । देखि दीन प्रभु के मन भायउँ ॥
सुनु सुत भयउ कालबस रावन । सो कि मान अब परम सिखावन ॥
धन्य धन्य तैं धन्य बिभीषन । भयहु तात निसिचर कुल भूषन ॥
बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुख सागर ॥
दोहा
बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर ।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर । ६४॥
चौपाला
बंधु बचन सुनि चला बिभीषन । आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन ॥
नाथ भूधराकार सरीरा । कुंभकरन आवत रनधीरा ॥
एतना कपिन्ह सुना जब काना । किलकिलाइ धाए बलवाना ॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर । कटकटाइ डारहिं ता ऊपर ॥
कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा । करहिं भालु कपि एक एक बारा ॥
मुर् यो न मन तनु टर् यो न टार् यो । जिमि गज अर्क फलनि को मार्यो ॥
तब मारुतसुत मुठिका हन्यो । पर् यो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमंता । घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ॥
पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि । जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि ॥
चली बलीमुख सेन पराई । अति भय त्रसित न कोउ समुहाई ॥
दोहा
अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव ।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव ॥६५॥
चौपाला
उमा करत रघुपति नरलीला । खेलत गरुड़ जिमि अहिगन मीला ॥
भृकुटि भंग जो कालहि खाई । ताहि कि सोहइ ऐसि लराई ॥
जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं । गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं ॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा । सुग्रीवहि तब खोजन लागा ॥
सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती । निबुक गयउ तेहि मृतक प्रतीती ॥
काटेसि दसन नासिका काना । गरजि अकास चलउ तेहिं जाना ॥
गहेउ चरन गहि भूमि पछारा । अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा ॥
पुनि आयसु प्रभु पहिं बलवाना । जयति जयति जय कृपानिधाना ॥
नाक कान काटे जियँ जानी । फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी ॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा । देखत कपि दल उपजी त्रासा ॥
दोहा
जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह ।
एकहि बार तासु पर छाड़ेन्हि गिरि तरु जूह ॥६६॥
चौपाला
कुंभकरन रन रंग बिरुद्धा । सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा ॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई । जनु टीड़ी गिरि गुहाँ समाई ॥
कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा । कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा ॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा । निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा ॥
रन मद मत्त निसाचर दर्पा । बिस्व ग्रसिहि जनु एहि बिधि अर्पा ॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे । सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे ॥
कुंभकरन कपि फौज बिडारी । सुनि धाई रजनीचर धारी ॥
देखि राम बिकल कटकाई । रिपु अनीक नाना बिधि आई ॥
दोहा
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन ।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन ॥६७॥
चौपाला
कर सारंग साजि कटि भाथा । अरि दल दलन चले रघुनाथा ॥
प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा । रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा ॥
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा । कालसर्प जनु चले सपच्छा ॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा । लगे कटन भट बिकट पिसाचा ॥
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा । बहुतक बीर होहिं सत खंडा ॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं । उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं ॥
लागत बान जलद जिमि गाजहीं । बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं ॥
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं । धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं ॥
दोहा
छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच ।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच ॥६८॥
चौपाला
कुंभकरन मन दीख बिचारी । हति धन माझ निसाचर धारी ॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा । कियो मृगनायक नाद गँभीरा ॥
कोपि महीधर लेइ उपारी । डारइ जहँ मर्कट भट भारी ॥
आवत देखि सैल प्रभू भारे । सरन्हि काटि रज सम करि डारे ॥ ।
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक । छाँड़े अति कराल बहु सायक ॥
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं । जिमि दामिनि घन माझ समाहीं ॥
सोनित स्त्रवत सोह तन कारे । जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे ॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए । बिहँसा जबहिं निकट कपि आए ॥
दोहा
महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस ।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस ॥६९॥
चौपाला
भागे भालु बलीमुख जूथा । बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा ॥
चले भागि कपि भालु भवानी । बिकल पुकारत आरत बानी ॥
यह निसिचर दुकाल सम अहई । कपिकुल देस परन अब चहई ॥
कृपा बारिधर राम खरारी । पाहि पाहि प्रनतारति हारी ॥
सकरुन बचन सुनत भगवाना । चले सुधारि सरासन बाना ॥
राम सेन निज पाछैं घाली । चले सकोप महा बलसाली ॥
खैंचि धनुष सर सत संधाने । छूटे तीर सरीर समाने ॥
लागत सर धावा रिस भरा । कुधर डगमगत डोलति धरा ॥
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी । रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी ॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी । प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी ॥
काटें भुजा सोह खल कैसा । पच्छहीन मंदर गिरि जैसा ॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका । ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका ॥
दोहा
करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि ।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि ॥७० ॥
चौपाला
सभय देव करुनानिधि जान्यो । श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो ॥
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ । तदपि महाबल भूमि न परेऊ ॥
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा । काल त्रोन सजीव जनु आवा ॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा । धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा ॥
सो सिर परेउ दसानन आगें । बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें ॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा । तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा ॥
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर । हेठ दाबि कपि भालु निसाचर ॥
तासु तेज प्रभु बदन समाना । सुर मुनि सबहिं अचंभव माना ॥
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं । अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं ॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए । तेही समय देवरिषि आए ॥
गगनोपरि हरि गुन गन गाए । रुचिर बीररस प्रभु मन भाए ॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए । राम समर महि सोभत भए ॥
छंद
संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी ।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी ॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने ।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने ॥