बालकाण्ड दोहा १७१ से १८०
दोहा
राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि ॥१७१॥
चौपाला
आपु बिरचि उपरोहित रूपा । परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा ॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना । देखि भवन अति अचरजु माना ॥
मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी । उठेउ गवँहि जेहि जान न रानी ॥
कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं । पुर नर नारि न जानेउ केहीं ॥
गएँ जाम जुग भूपति आवा । घर घर उत्सव बाज बधावा ॥
उपरोहितहि देख जब राजा । चकित बिलोकि सुमिरि सोइ काजा ॥
जुग सम नृपहि गए दिन तीनी । कपटी मुनि पद रह मति लीनी ॥
समय जानि उपरोहित आवा । नृपहि मते सब कहि समुझावा ॥
दोहा
नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत ॥१७२॥
चौपाला
उपरोहित जेवनार बनाई । छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई । बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा । तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए । पद पखारि सादर बैठाए ॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला । भै अकासबानी तेहि काला ॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू । है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू । सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी । भावी बस आव मुख बानी ॥
दोहा
बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥१७३॥
चौपाला
छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई । घालै लिए सहित समुदाई ॥
ईस्वर राखा धरम हमारा । जैहसि तैं समेत परिवारा ॥
संबत मध्य नास तव होऊ । जलदाता न रहिहि कुल कोऊ ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा । भै बहोरि बर गिरा अकासा ॥
बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा । नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा ॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी । भूप गयउ जहँ भोजन खानी ॥
तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा । फिरेउ राउ मन सोच अपारा ॥
सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई । त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई ॥
दोहा
भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर ॥१७४॥
चौपाला
अस कहि सब महिदेव सिधाए । समाचार पुरलोगन्ह पाए ॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं । बिचरत हंस काग किय जेहीं ॥
उपरोहितहि भवन पहुँचाई । असुर तापसहि खबरि जनाई ॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए । सजि सजि सेन भूप सब धाए ॥
घेरेन्हि नगर निसान बजाई । बिबिध भाँति नित होई लराई ॥
जूझे सकल सुभट करि करनी । बंधु समेत परेउ नृप धरनी ॥
सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा । बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा ॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई । निज पुर गवने जय जसु पाई ॥
दोहा
भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ॥१७५॥
चौपाला
काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा । भयउ निसाचर सहित समाजा ॥
दस सिर ताहि बीस भुजदंडा । रावन नाम बीर बरिबंडा ॥
भूप अनुज अरिमर्दन नामा । भयउ सो कुंभकरन बलधामा ॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू । भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू ॥
नाम बिभीषन जेहि जग जाना । बिष्नुभगत बिग्यान निधाना ॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे । भए निसाचर घोर घनेरे ॥
कामरूप खल जिनस अनेका । कुटिल भयंकर बिगत बिबेका ॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी । बरनि न जाहिं बिस्व परितापी ॥
दोहा
उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप ॥१७६॥
चौपाला
कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई । परम उग्र नहिं बरनि सो जाई ॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता । मागहु बर प्रसन्न मैं ताता ॥
करि बिनती पद गहि दससीसा । बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा ॥
हम काहू के मरहिं न मारें । बानर मनुज जाति दुइ बारें ॥
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा । मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा ॥
पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ । तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ ॥
जौं एहिं खल नित करब अहारू । होइहि सब उजारि संसारू ॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी । मागेसि नीद मास षट केरी ॥
दोहा
गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु ॥१७७॥
चौपाला
तिन्हि देइ बर ब्रह्म सिधाए । हरषित ते अपने गृह आए ॥
मय तनुजा मंदोदरि नामा । परम सुंदरी नारि ललामा ॥
सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी । होइहि जातुधानपति जानी ॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई । पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई ॥
गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी । बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी ॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा । कनक रचित मनिभवन अपारा ॥
भोगावति जसि अहिकुल बासा । अमरावति जसि सक्रनिवासा ॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका । जग बिख्यात नाम तेहि लंका ॥
दोहा
खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव ॥१७८ (क )॥
हरिप्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ ॥१७८ (ख )॥
चौपाला
रहे तहाँ निसिचर भट भारे । ते सब सुरन्ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे । रच्छक कोटि जच्छपति केरे ॥
दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई । सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई ॥
देखि बिकट भट बड़ि कटकाई । जच्छ जीव लै गए पराई ॥
फिरि सब नगर दसानन देखा । गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा ॥
सुंदर सहज अगम अनुमानी । कीन्हि तहाँ रावन रजधानी ॥
जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे । सुखी सकल रजनीचर कीन्हे ॥
एक बार कुबेर पर धावा । पुष्पक जान जीति लै आवा ॥
दोहा
कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ ॥१७९॥
चौपाला
सुख संपति सुत सेन सहाई । जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई । जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता । जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा । जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई । बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना । तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू । भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई । सुरपुर नितहिं परावन होई ॥
दोहा
कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥१८०॥
चौपाला
कामरूप जानहिं सब माया । सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा । देखि अमित आपन परिवारा ॥
सुत समूह जन परिजन नाती । गे को पार निसाचर जाती ॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी । बोला बचन क्रोध मद सानी ॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥
ते सनमुख नहिं करही लराई । देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई । कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥
द्विजभोजन मख होम सराधा ॥सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥