अयोध्या काण्ड दोहा १८१ से १९०
दोहा
राम मातु सुठि सरलचित मो पर प्रेमु बिसेषि।
कहइ सुभाय सनेह बस मोरि दीनता देखि ॥१८१ ॥
चौपाला
गुर बिबेक सागर जगु जाना । जिन्हहि बिस्व कर बदर समाना ॥
मो कहँ तिलक साज सज सोऊ । भएँ बिधि बिमुख बिमुख सबु कोऊ ॥
परिहरि रामु सीय जग माहीं । कोउ न कहिहि मोर मत नाहीं ॥
सो मैं सुनब सहब सुखु मानी । अंतहुँ कीच तहाँ जहँ पानी ॥
डरु न मोहि जग कहिहि कि पोचू । परलोकहु कर नाहिन सोचू ॥
एकइ उर बस दुसह दवारी । मोहि लगि भे सिय रामु दुखारी ॥
जीवन लाहु लखन भल पावा । सबु तजि राम चरन मनु लावा ॥
मोर जनम रघुबर बन लागी । झूठ काह पछिताउँ अभागी ॥
दोहा
आपनि दारुन दीनता कहउँ सबहि सिरु नाइ।
देखें बिनु रघुनाथ पद जिय कै जरनि न जाइ ॥१८२॥
चौपाला
आन उपाउ मोहि नहि सूझा । को जिय कै रघुबर बिनु बूझा ॥
एकहिं आँक इहइ मन माहीं । प्रातकाल चलिहउँ प्रभु पाहीं ॥
जद्यपि मैं अनभल अपराधी । भै मोहि कारन सकल उपाधी ॥
तदपि सरन सनमुख मोहि देखी । छमि सब करिहहिं कृपा बिसेषी ॥
सील सकुच सुठि सरल सुभाऊ । कृपा सनेह सदन रघुराऊ ॥
अरिहुक अनभल कीन्ह न रामा । मैं सिसु सेवक जद्यपि बामा ॥
तुम्ह पै पाँच मोर भल मानी । आयसु आसिष देहु सुबानी ॥
जेहिं सुनि बिनय मोहि जनु जानी । आवहिं बहुरि रामु रजधानी ॥
दोहा
जद्यपि जनमु कुमातु तें मैं सठु सदा सदोस।
आपन जानि न त्यागिहहिं मोहि रघुबीर भरोस ॥१८३॥
चौपाला
भरत बचन सब कहँ प्रिय लागे । राम सनेह सुधाँ जनु पागे ॥
लोग बियोग बिषम बिष दागे । मंत्र सबीज सुनत जनु जागे ॥
मातु सचिव गुर पुर नर नारी । सकल सनेहँ बिकल भए भारी ॥
भरतहि कहहि सराहि सराही । राम प्रेम मूरति तनु आही ॥
तात भरत अस काहे न कहहू । प्रान समान राम प्रिय अहहू ॥
जो पावँरु अपनी जड़ताई । तुम्हहि सुगाइ मातु कुटिलाई ॥
सो सठु कोटिक पुरुष समेता । बसिहि कलप सत नरक निकेता ॥
अहि अघ अवगुन नहि मनि गहई । हरइ गरल दुख दारिद दहई ॥
दोहा
अवसि चलिअ बन रामु जहँ भरत मंत्रु भल कीन्ह।
सोक सिंधु बूड़त सबहि तुम्ह अवलंबनु दीन्ह ॥१८४॥
चौपाला
भा सब कें मन मोदु न थोरा । जनु घन धुनि सुनि चातक मोरा ॥
चलत प्रात लखि निरनउ नीके । भरतु प्रानप्रिय भे सबही के ॥
मुनिहि बंदि भरतहि सिरु नाई । चले सकल घर बिदा कराई ॥
धन्य भरत जीवनु जग माहीं । सीलु सनेहु सराहत जाहीं ॥
कहहि परसपर भा बड़ काजू । सकल चलै कर साजहिं साजू ॥
जेहि राखहिं रहु घर रखवारी । सो जानइ जनु गरदनि मारी ॥
कोउ कह रहन कहिअ नहिं काहू । को न चहइ जग जीवन लाहू ॥
दोहा
जरउ सो संपति सदन सुखु सुहद मातु पितु भाइ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥१८५॥
चौपाला
घर घर साजहिं बाहन नाना । हरषु हृदयँ परभात पयाना ॥
भरत जाइ घर कीन्ह बिचारू । नगरु बाजि गज भवन भँडारू ॥
संपति सब रघुपति कै आही । जौ बिनु जतन चलौं तजि ताही ॥
तौ परिनाम न मोरि भलाई । पाप सिरोमनि साइँ दोहाई ॥
करइ स्वामि हित सेवकु सोई । दूषन कोटि देइ किन कोई ॥
अस बिचारि सुचि सेवक बोले । जे सपनेहुँ निज धरम न डोले ॥
कहि सबु मरमु धरमु भल भाषा । जो जेहि लायक सो तेहिं राखा ॥
करि सबु जतनु राखि रखवारे । राम मातु पहिं भरतु सिधारे ॥
दोहा
आरत जननी जानि सब भरत सनेह सुजान।
कहेउ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ॥१८६॥
चौपाला
चक्क चक्कि जिमि पुर नर नारी । चहत प्रात उर आरत भारी ॥
जागत सब निसि भयउ बिहाना । भरत बोलाए सचिव सुजाना ॥
कहेउ लेहु सबु तिलक समाजू । बनहिं देब मुनि रामहिं राजू ॥
बेगि चलहु सुनि सचिव जोहारे । तुरत तुरग रथ नाग सँवारे ॥
अरुंधती अरु अगिनि समाऊ । रथ चढ़ि चले प्रथम मुनिराऊ ॥
बिप्र बृंद चढ़ि बाहन नाना । चले सकल तप तेज निधाना ॥
नगर लोग सब सजि सजि जाना । चित्रकूट कहँ कीन्ह पयाना ॥
सिबिका सुभग न जाहिं बखानी । चढ़ि चढ़ि चलत भई सब रानी ॥
दोहा
सौंपि नगर सुचि सेवकनि सादर सकल चलाइ।
सुमिरि राम सिय चरन तब चले भरत दोउ भाइ ॥१८७॥
चौपाला
राम दरस बस सब नर नारी । जनु करि करिनि चले तकि बारी ॥
बन सिय रामु समुझि मन माहीं । सानुज भरत पयादेहिं जाहीं ॥
देखि सनेहु लोग अनुरागे । उतरि चले हय गय रथ त्यागे ॥
जाइ समीप राखि निज डोली । राम मातु मृदु बानी बोली ॥
तात चढ़हु रथ बलि महतारी । होइहि प्रिय परिवारु दुखारी ॥
तुम्हरें चलत चलिहि सबु लोगू । सकल सोक कृस नहिं मग जोगू ॥
सिर धरि बचन चरन सिरु नाई । रथ चढ़ि चलत भए दोउ भाई ॥
तमसा प्रथम दिवस करि बासू । दूसर गोमति तीर निवासू ॥
दोहा
पय अहार फल असन एक निसि भोजन एक लोग।
करत राम हित नेम ब्रत परिहरि भूषन भोग ॥१८८॥
चौपाला
सई तीर बसि चले बिहाने । सृंगबेरपुर सब निअराने ॥
समाचार सब सुने निषादा । हृदयँ बिचार करइ सबिषादा ॥
कारन कवन भरतु बन जाहीं । है कछु कपट भाउ मन माहीं ॥
जौं पै जियँ न होति कुटिलाई । तौ कत लीन्ह संग कटकाई ॥
जानहिं सानुज रामहि मारी । करउँ अकंटक राजु सुखारी ॥
भरत न राजनीति उर आनी । तब कलंकु अब जीवन हानी ॥
सकल सुरासुर जुरहिं जुझारा । रामहि समर न जीतनिहारा ॥
का आचरजु भरतु अस करहीं । नहिं बिष बेलि अमिअ फल फरहीं ॥
दोहा
अस बिचारि गुहँ ग्याति सन कहेउ सजग सब होहु।
हथवाँसहु बोरहु तरनि कीजिअ घाटारोहु ॥१८९॥
चौपाला
होहु सँजोइल रोकहु घाटा । ठाटहु सकल मरै के ठाटा ॥
सनमुख लोह भरत सन लेऊँ । जिअत न सुरसरि उतरन देऊँ ॥
समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा । राम काजु छनभंगु सरीरा ॥
भरत भाइ नृपु मै जन नीचू । बड़ें भाग असि पाइअ मीचू ॥
स्वामि काज करिहउँ रन रारी । जस धवलिहउँ भुवन दस चारी ॥
तजउँ प्रान रघुनाथ निहोरें । दुहूँ हाथ मुद मोदक मोरें ॥
साधु समाज न जाकर लेखा । राम भगत महुँ जासु न रेखा ॥
जायँ जिअत जग सो महि भारू । जननी जौबन बिटप कुठारू ॥
दोहा
बिगत बिषाद निषादपति सबहि बढ़ाइ उछाहु।
सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु ॥१९०॥
चौपाला
बेगहु भाइहु सजहु सँजोऊ । सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ॥
भलेहिं नाथ सब कहहिं सहरषा । एकहिं एक बढ़ावइ करषा ॥
चले निषाद जोहारि जोहारी । सूर सकल रन रूचइ रारी ॥
सुमिरि राम पद पंकज पनहीं । भाथीं बाँधि चढ़ाइन्हि धनहीं ॥
अँगरी पहिरि कूँड़ि सिर धरहीं । फरसा बाँस सेल सम करहीं ॥
एक कुसल अति ओड़न खाँड़े । कूदहि गगन मनहुँ छिति छाँड़े ॥
निज निज साजु समाजु बनाई । गुह राउतहि जोहारे जाई ॥
देखि सुभट सब लायक जाने । लै लै नाम सकल सनमाने ॥