लंकाकाण्ड दोहा ११ से २०
दोहा
एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन ।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ॥११क॥
पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मंयक ।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असंक ॥११ख॥
चौपाला
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी । परम प्रताप तेज बल रासी ॥
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी । ससि केसरी गगन बन चारी ॥
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा । निसि सुंदरी केर सिंगारा ॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई । कहहु काह निज निज मति भाई ॥
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई । ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई । उर महँ परी स्यामता सोई ॥
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा । सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं । तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं ॥
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा । अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥
बिष संजुत कर निकर पसारी । जारत बिरहवंत नर नारी ॥
दोहा
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास ।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥१२क॥
नवान्हपारायण ॥सातवाँ विश्राम
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान ।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥१२ख॥
चौपाला
देखु बिभीषन दच्छिन आसा । घन घंमड दामिनि बिलासा ॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा । होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥
कहत बिभीषन सुनहु कृपाला । होइ न तड़ित न बारिद माला ॥
लंका सिखर उपर आगारा । तहँ दसकंघर देख अखारा ॥
छत्र मेघडंबर सिर धारी । सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥
मंदोदरी श्रवन ताटंका । सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका ॥
बाजहिं ताल मृदंग अनूपा । सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना । चाप चढ़ाइ बान संधाना ॥
दोहा
छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान ।
सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥१३क॥
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग ।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग ॥१३ख॥
चौपाला
कंप न भूमि न मरुत बिसेषा । अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा ॥
सोचहिं सब निज हृदय मझारी । असगुन भयउ भयंकर भारी ॥
दसमुख देखि सभा भय पाई । बिहसि बचन कह जुगुति बनाई ॥
सिरउ गिरे संतत सुभ जाही । मुकुट परे कस असगुन ताही ॥
सयन करहु निज निज गृह जाई । गवने भवन सकल सिर नाई ॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ । जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ ॥
सजल नयन कह जुग कर जोरी । सुनहु प्रानपति बिनती मोरी ॥
कंत राम बिरोध परिहरहू । जानि मनुज जनि हठ मन धरहू ॥
दोहा
बिस्वरुप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु ।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु ॥१४॥
चौपाला
पद पाताल सीस अज धामा । अपर लोक अँग अँग बिश्रामा ॥
भृकुटि बिलास भयंकर काला । नयन दिवाकर कच घन माला ॥
जासु घ्रान अस्विनीकुमारा । निसि अरु दिवस निमेष अपारा ॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी । मारुत स्वास निगम निज बानी ॥
अधर लोभ जम दसन कराला । माया हास बाहु दिगपाला ॥
आनन अनल अंबुपति जीहा । उतपति पालन प्रलय समीहा ॥
रोम राजि अष्टादस भारा । अस्थि सैल सरिता नस जारा ॥
उदर उदधि अधगो जातना । जगमय प्रभु का बहु कलपना ॥
दोहा
अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान ।
मनुज बास सचराचर रुप राम भगवान ॥१५ क ॥
अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ ॥१५ ख ॥
चौपाला
बिहँसा नारि बचन सुनि काना । अहो मोह महिमा बलवाना ॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं । अवगुन आठ सदा उर रहहीं ॥
साहस अनृत चपलता माया । भय अबिबेक असौच अदाया ॥
रिपु कर रुप सकल तैं गावा । अति बिसाल भय मोहि सुनावा ॥
सो सब प्रिया सहज बस मोरें । समुझि परा प्रसाद अब तोरें ॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई । एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई ॥
तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि । समुझत सुखद सुनत भय मोचनि ॥
मंदोदरि मन महुँ अस ठयऊ । पियहि काल बस मतिभ्रम भयऊ ॥
दोहा
एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध ।
सहज असंक लंकपति सभाँ गयउ मद अंध ॥१६क॥
सोरठा
फूलह फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद ।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम ॥१६ख॥
चौपाला
इहाँ प्रात जागे रघुराई । पूछा मत सब सचिव बोलाई ॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई । जामवंत कह पद सिरु नाई ॥
सुनु सर्बग्य सकल उर बासी । बुधि बल तेज धर्म गुन रासी ॥
मंत्र कहउँ निज मति अनुसारा । दूत पठाइअ बालिकुमारा ॥
नीक मंत्र सब के मन माना । अंगद सन कह कृपानिधाना ॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा । लंका जाहु तात मम कामा ॥
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ । परम चतुर मैं जानत अहऊँ ॥
काजु हमार तासु हित होई । रिपु सन करेहु बतकही सोई ॥
सोरठा
प्रभु अग्या धरि सीस चरन बंदि अंगद उठेउ ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा पर करहु ॥१७क॥
स्वयं सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ ॥१७ख॥
चौपाला
बंदि चरन उर धरि प्रभुताई । अंगद चलेउ सबहि सिरु नाई ॥
प्रभु प्रताप उर सहज असंका । रन बाँकुरा बालिसुत बंका ॥
पुर पैठत रावन कर बेटा । खेलत रहा सो होइ गै भैंटा ॥
बातहिं बात करष बढ़ि आई । जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई ॥
तेहि अंगद कहुँ लात उठाई । गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई ॥
निसिचर निकर देखि भट भारी । जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी ॥
एक एक सन मरमु न कहहीं । समुझि तासु बध चुप करि रहहीं ॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी । आवा कपि लंका जेहीं जारी ॥
अब धौं कहा करिहि करतारा । अति सभीत सब करहिं बिचारा ॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई । जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई ॥
दोहा
गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज ।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज ॥१८॥
चौपाला
तुरत निसाचर एक पठावा । समाचार रावनहि जनावा ॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा । आनहु बोलि कहाँ कर कीसा ॥
आयसु पाइ दूत बहु धाए । कपिकुंजरहि बोलि लै आए ॥
अंगद दीख दसानन बैंसें । सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें ॥
भुजा बिटप सिर सृंग समाना । रोमावली लता जनु नाना ॥
मुख नासिका नयन अरु काना । गिरि कंदरा खोह अनुमाना ॥
गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा । बालितनय अतिबल बाँकुरा ॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी । रावन उर भा क्रौध बिसेषी ॥
दोहा
जथा मत्त गज जूथ महुँ पंचानन चलि जाइ ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ ॥१९॥
चौपाला
कह दसकंठ कवन तैं बंदर । मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई । तव हित कारन आयउँ भाई ॥
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती । सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती ॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा । जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥
नृप अभिमान मोह बस किंबा । हरि आनिहु सीता जगदंबा ॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा । सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी । परिजन सहित संग निज नारी ॥
सादर जनकसुता करि आगें । एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें ॥
दोहा
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि ।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥२० ॥
चौपाला
रे कपिपोत बोलु संभारी । मूढ़ न जानेहि मोहि सुरारी ॥
कहु निज नाम जनक कर भाई । केहि नातें मानिऐ मिताई ॥
अंगद नाम बालि कर बेटा । तासों कबहुँ भई ही भेटा ॥
अंगद बचन सुनत सकुचाना । रहा बालि बानर मैं जाना ॥
अंगद तहीं बालि कर बालक । उपजेहु बंस अनल कुल घालक ॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु । निज मुख तापस दूत कहायहु ॥
अब कहु कुसल बालि कहँ अहई । बिहँसि बचन तब अंगद कहई ॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई । बूझेहु कुसल सखा उर लाई ॥
राम बिरोध कुसल जसि होई । सो सब तोहि सुनाइहि सोई ॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें । श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें ॥