लंकाकाण्ड दोहा ७१ से ८०
दोहा
निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम ।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम ॥७१॥
चौपाला
दिन कें अंत फिरीं दोउ अनी । समर भई सुभटन्ह श्रम घनी ॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढ़ा । जिमि तृन पाइ लाग अति डाढ़ा ॥
छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती । निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती ॥
बहु बिलाप दसकंधर करई । बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई ॥
रोवहिं नारि हृदय हति पानी । तासु तेज बल बिपुल बखानी ॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ । कहि बहु कथा पिता समुझायउ ॥
देखेहु कालि मोरि मनुसाई । अबहिं बहुत का करौं बड़ाई ॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ । सो बल तात न तोहि देखायउँ ॥
एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना । चहुँ दुआर लागे कपि नाना ॥
इत कपि भालु काल सम बीरा । उत रजनीचर अति रनधीरा ॥
लरहिं सुभट निज निज जय हेतू । बरनि न जाइ समर खगकेतू ॥
दोहा
मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास ॥
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास ॥७२॥
चौपाला
सक्ति सूल तरवारि कृपाना । अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना ॥
डारह परसु परिघ पाषाना । लागेउ बृष्टि करै बहु बाना ॥
दस दिसि रहे बान नभ छाई । मानहुँ मघा मेघ झरि लाई ॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना । जो मारइ तेहि कोउ न जाना ॥
गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं । देखहि तेहि न दुखित फिरि आवहिं ॥
अवघट घाट बाट गिरि कंदर । माया बल कीन्हेसि सर पंजर ॥
जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बंदर । सुरपति बंदि परे जनु मंदर ॥
मारुतसुत अंगद नल नीला । कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ॥
पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन । सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन ॥
पुनि रघुपति सैं जूझे लागा । सर छाँड़इ होइ लागहिं नागा ॥
ब्याल पास बस भए खरारी । स्वबस अनंत एक अबिकारी ॥
नट इव कपट चरित कर नाना । सदा स्वतंत्र एक भगवाना ॥
रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो । नागपास देवन्ह भय पायो ॥
दोहा
गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास ।
सो कि बंध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास ॥७३॥
चौपाला
चरित राम के सगुन भवानी । तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी ॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी । रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी ॥
ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा । पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा ॥
जामवंत कह खल रहु ठाढ़ा । सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढ़ा ॥
बूढ़ जानि सठ छाँड़ेउँ तोही । लागेसि अधम पचारै मोही ॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो । जामवंत कर गहि सोइ धायो ॥
मारिसि मेघनाद कै छाती । परा भूमि घुर्मित सुरघाती ॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायौ । महि पछारि निज बल देखरायो ॥
बर प्रसाद सो मरइ न मारा । तब गहि पद लंका पर डारा ॥
इहाँ देवरिषि गरुड़ पठायो । राम समीप सपदि सो आयो ॥
दोहा
खगपति सब धरि खाए माया नाग बरूथ ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ । ७४क॥
गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ ।
चले तमीचर बिकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ ॥७४ख॥
चौपाला
मेघनाद के मुरछा जागी । पितहि बिलोकि लाज अति लागी ॥
तुरत गयउ गिरिबर कंदरा । करौं अजय मख अस मन धरा ॥
इहाँ बिभीषन मंत्र बिचारा । सुनहु नाथ बल अतुल उदारा ॥
मेघनाद मख करइ अपावन । खल मायावी देव सतावन ॥
जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि । नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि ॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना । बोले अंगदादि कपि नाना ॥
लछिमन संग जाहु सब भाई । करहु बिधंस जग्य कर जाई ॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही । देखि सभय सुर दुख अति मोही ॥
मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई । जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई ॥
जामवंत सुग्रीव बिभीषन । सेन समेत रहेहु तीनिउ जन ॥
जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन । कटि निषंग कसि साजि सरासन ॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा । बोले घन इव गिरा गँभीरा ॥
जौं तेहि आजु बधें बिनु आवौं । तौ रघुपति सेवक न कहावौं ॥
जौं सत संकर करहिं सहाई । तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई ॥
दोहा
रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत ।
अंगद नील मयंद नल संग सुभट हनुमंत ॥७५॥
चौपाला
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा । आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा । जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ॥
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई । लातन्हि हति हति चले पराई ॥
लै त्रिसुल धावा कपि भागे । आए जहँ रामानुज आगे ॥
आवा परम क्रोध कर मारा । गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥
कोपि मरुतसुत अंगद धाए । हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा । सर हति कृत अनंत जुग खंडा ॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा । हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ॥
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा । तब धावा करि घोर चिकारा ॥
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला । लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥
देखेसि आवत पबि सम बाना । तुरत भयउ खल अंतरधाना ॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई । कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा । परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा । एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा । सर संधान कीन्ह करि दापा ॥
छाड़ा बान माझ उर लागा । मरती बार कपटु सब त्यागा ॥
दोहा
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान ॥७६॥
चौपाला
बिनु प्रयास हनुमान उठायो । लंका द्वार राखि पुनि आयो ॥
तासु मरन सुनि सुर गंधर्बा । चढ़ि बिमान आए नभ सर्बा ॥
बरषि सुमन दुंदुभीं बजावहिं । श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं ॥
जय अनंत जय जगदाधारा । तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा ॥
अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए । लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए ॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं । मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं ॥
मंदोदरी रुदन कर भारी । उर ताड़न बहु भाँति पुकारी ॥
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा । सकल कहहिं दसकंधर पोचा ॥
दोहा
तब दसकंठ बिबिध बिधि समुझाईं सब नारि ।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि ॥७७॥
चौपाला
तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन । आपुन मंद कथा सुभ पावन ॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे । जे आचरहिं ते नर न घनेरे ॥
निसा सिरानि भयउ भिनुसारा । लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा ॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला । रन सन्मुख जा कर मन डोला ॥
सो अबहीं बरु जाउ पराई । संजुग बिमुख भएँ न भलाई ॥
निज भुज बल मैं बयरु बढ़ावा । देहउँ उतरु जो रिपु चढ़ि आवा ॥
अस कहि मरुत बेग रथ साजा । बाजे सकल जुझाऊ बाजा ॥
चले बीर सब अतुलित बली । जनु कज्जल कै आँधी चली ॥
असगुन अमित होहिं तेहि काला । गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला ॥
छंद
अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्त्रवहिं आयुध हाथ ते ।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते ॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने ।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने ॥
दोहा
ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम ।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम ॥७८॥
चौपाला
चलेउ निसाचर कटकु अपारा । चतुरंगिनी अनी बहु धारा ॥
बिबिध भाँति बाहन रथ जाना । बिपुल बरन पताक ध्वज नाना ॥
चले मत्त गज जूथ घनेरे । प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे ॥
बरन बरद बिरदैत निकाया । समर सूर जानहिं बहु माया ॥
अति बिचित्र बाहिनी बिराजी । बीर बसंत सेन जनु साजी ॥
चलत कटक दिगसिधुंर डगहीं । छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं ॥
उठी रेनु रबि गयउ छपाई । मरुत थकित बसुधा अकुलाई ॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं । प्रलय समय के घन जनु गाजहिं ॥
भेरि नफीरि बाज सहनाई । मारू राग सुभट सुखदाई ॥
केहरि नाद बीर सब करहीं । निज निज बल पौरुष उच्चरहीं ॥
कहइ दसानन सुनहु सुभट्टा । मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा ॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई । अस कहि सन्मुख फौज रेंगाई ॥
यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई । धाए करि रघुबीर दोहाई ॥
छंद
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते ।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते ॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं ।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं ॥
दोहा
दुहु दिसि जय जयकार करि निज निज जोरी जानि ।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि ॥७९॥
चौपाला
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा । देखि बिभीषन भयउ अधीरा ॥
अधिक प्रीति मन भा संदेहा । बंदि चरन कह सहित सनेहा ॥
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना । केहि बिधि जितब बीर बलवाना ॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना । जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना ॥
सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥
बल बिबेक दम परहित घोरे । छमा कृपा समता रजु जोरे ॥
ईस भजनु सारथी सुजाना । बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा ॥
अमल अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥
सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ॥
दोहा
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर ।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ॥८०क॥
सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कंज ।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुंज ॥८०ख॥
उत पचार दसकंधर इत अंगद हनुमान ।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ॥८०ग॥
चौपाला
सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना । देखत रन नभ चढ़े बिमाना ॥
हमहू उमा रहे तेहि संगा । देखत राम चरित रन रंगा ॥
सुभट समर रस दुहु दिसि माते । कपि जयसील राम बल ताते ॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं । एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं ॥
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं । सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं ॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं । गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं ॥
निसिचर भट महि गाड़हि भालू । ऊपर ढारि देहिं बहु बालू ॥
बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे । देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे ॥
छंद
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं ।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं ॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं ।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं ॥
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं ।
प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं ॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही ।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही ॥