बालकाण्ड दोहा १३१ से १४०
दोहा
एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥१३१॥
चौपाला
हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरु अति भाई ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई ॥
आपन रूप देहु प्रभु मोही । आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा । करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला । हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥
दोहा
जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥१३२॥
चौपाला
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी । बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा । समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥
निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें । मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥
दोहा
रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥१३३॥
चौपाला
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥
दोहा
सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥१३४॥
चौपाला
जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥
दोहा
होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥१३५॥
चौपाला
पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदी चले कमलापति पाहीं ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥
दोहा
असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥१३६॥
चौपाला
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥
मम अपकार कीन्ही तुम्ह भारी । नारी बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥
दोहा
श्राप सीस धरी हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि।
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥१३७॥
चौपाला
जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥
दोहा
बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥१३८॥
चौपाला
हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगतमोह मन हरष बिसेषी ॥
अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुनाए ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया । बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ । बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥
भुजबल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा । होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई । भए निसाचर कालहि पाई ॥
दोहा
एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुबि भार ॥१३९॥
चौपाला
एहि बिधि जनम करम हरि केरे । सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥
तब तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने । करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥
हरि अनंत हरिकथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी । हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी ॥सेवत सुलभ सकल दुख हारी ॥
सोरठा
सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ॥
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥१४०॥
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी । कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा । बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥
जासु चरित अवलोकि भवानी । सती सरीर रहिहु बौरानी ॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी । तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा । सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी । सकुचि सप्रेम उमा मुसकानी ॥
लगे बहुरि बरने बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥