अयोध्या काण्ड दोहा ३११ से ३२६
दोहा
सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात ॥३११॥
चौपाला
एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं । नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं ॥
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा । खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा ॥
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी । बूझत भरतु दिब्य सब देखी ॥
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ । हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ ॥
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा । कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा ॥
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई । सुमिरत सीय सहित दोउ भाई ॥
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा । देहिं असीस मुदित बनदेवा ॥
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई । प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई ॥
दोहा
देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ ॥३१२॥
चौपाला
भोर न्हाइ सबु जुरा समाजू । भरत भूमिसुर तेरहुति राजू ॥
भल दिन आजु जानि मन माहीं । रामु कृपाल कहत सकुचाहीं ॥
गुर नृप भरत सभा अवलोकी । सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी ॥
सील सराहि सभा सब सोची । कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची ॥
भरत सुजान राम रुख देखी । उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी ॥
करि दंडवत कहत कर जोरी । राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ॥
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू । बहुत भाँति दुखु पावा आपू ॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई । सेवौं अवध अवधि भरि जाई ॥
दोहा
जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ॥३१३॥
चौपाला
पुरजन परिजन प्रजा गोसाई । सब सुचि सरस सनेहँ सगाई ॥
राउर बदि भल भव दुख दाहू । प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू ॥
स्वामि सुजानु जानि सब ही की । रुचि लालसा रहनि जन जी की ॥
प्रनतपालु पालिहि सब काहू । देउ दुहू दिसि ओर निबाहू ॥
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो । किएँ बिचारु न सोचु खरो सो ॥
आरति मोर नाथ कर छोहू । दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू ॥
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी । तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी । खीर नीर बिबरन गति हंसी ॥
दोहा
दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन ॥३१४॥
चौपाला
तात तुम्हारि मोरि परिजन की । चिंता गुरहि नृपहि घर बन की ॥
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू । हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू ॥
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु । स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु ॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाई । लोक बेद भल भूप भलाई ॥
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ॥
अस बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु अवध अवधि भरि जाई ॥
देसु कोसु परिजन परिवारू । गुर पद रजहिं लाग छरुभारू ॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी । पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी ॥
दोहा
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक ॥३१५॥
चौपाला
राजधरम सरबसु एतनोई । जिमि मन माहँ मनोरथ गोई ॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती । बिनु अधार मन तोषु न साँती ॥
भरत सील गुर सचिव समाजू । सकुच सनेह बिबस रघुराजू ॥
प्रभु करि कृपा पाँवरीं दीन्हीं । सादर भरत सीस धरि लीन्हीं ॥
चरनपीठ करुनानिधान के । जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ॥
संपुट भरत सनेह रतन के । आखर जुग जुन जीव जतन के ॥
कुल कपाट कर कुसल करम के । बिमल नयन सेवा सुधरम के ॥
भरत मुदित अवलंब लहे तें । अस सुख जस सिय रामु रहे तें ॥
दोहा
मागेउ बिदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ ॥३१६॥
चौपाला
सो कुचालि सब कहँ भइ नीकी । अवधि आस सम जीवनि जी की ॥
नतरु लखन सिय सम बियोगा । हहरि मरत सब लोग कुरोगा ॥
रामकृपाँ अवरेब सुधारी । बिबुध धारि भइ गुनद गोहारी ॥
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो । राम प्रेम रसु कहि न परत सो ॥
तन मन बचन उमग अनुरागा । धीर धुरंधर धीरजु त्यागा ॥
बारिज लोचन मोचत बारी । देखि दसा सुर सभा दुखारी ॥
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से । ग्यान अनल मन कसें कनक से ॥
जे बिरंचि निरलेप उपाए । पदुम पत्र जिमि जग जल जाए ॥
दोहा
तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार ॥३१७॥
चौपाला
जहाँ जनक गुर मति भोरी । प्राकृत प्रीति कहत बड़ि खोरी ॥
बरनत रघुबर भरत बियोगू । सुनि कठोर कबि जानिहि लोगू ॥
सो सकोच रसु अकथ सुबानी । समउ सनेहु सुमिरि सकुचानी ॥
भेंटि भरत रघुबर समुझाए । पुनि रिपुदवनु हरषि हियँ लाए ॥
सेवक सचिव भरत रुख पाई । निज निज काज लगे सब जाई ॥
सुनि दारुन दुखु दुहूँ समाजा । लगे चलन के साजन साजा ॥
प्रभु पद पदुम बंदि दोउ भाई । चले सीस धरि राम रजाई ॥
मुनि तापस बनदेव निहोरी । सब सनमानि बहोरि बहोरी ॥
दोहा
लखनहि भेंटि प्रनामु करि सिर धरि सिय पद धूरि।
चले सप्रेम असीस सुनि सकल सुमंगल मूरि ॥३१८॥
चौपाला
सानुज राम नृपहि सिर नाई । कीन्हि बहुत बिधि बिनय बड़ाई ॥
देव दया बस बड़ दुखु पायउ । सहित समाज काननहिं आयउ ॥
पुर पगु धारिअ देइ असीसा । कीन्ह धीर धरि गवनु महीसा ॥
मुनि महिदेव साधु सनमाने । बिदा किए हरि हर सम जाने ॥
सासु समीप गए दोउ भाई । फिरे बंदि पग आसिष पाई ॥
कौसिक बामदेव जाबाली । पुरजन परिजन सचिव सुचाली ॥
जथा जोगु करि बिनय प्रनामा । बिदा किए सब सानुज रामा ॥
नारि पुरुष लघु मध्य बड़ेरे । सब सनमानि कृपानिधि फेरे ॥
दोहा
भरत मातु पद बंदि प्रभु सुचि सनेहँ मिलि भेंटि।
बिदा कीन्ह सजि पालकी सकुच सोच सब मेटि ॥३१९॥
चौपाला
परिजन मातु पितहि मिलि सीता । फिरी प्रानप्रिय प्रेम पुनीता ॥
करि प्रनामु भेंटी सब सासू । प्रीति कहत कबि हियँ न हुलासू ॥
सुनि सिख अभिमत आसिष पाई । रही सीय दुहु प्रीति समाई ॥
रघुपति पटु पालकीं मगाईं । करि प्रबोधु सब मातु चढ़ाई ॥
बार बार हिलि मिलि दुहु भाई । सम सनेहँ जननी पहुँचाई ॥
साजि बाजि गज बाहन नाना । भरत भूप दल कीन्ह पयाना ॥
हृदयँ रामु सिय लखन समेता । चले जाहिं सब लोग अचेता ॥
बसह बाजि गज पसु हियँ हारें । चले जाहिं परबस मन मारें ॥
दोहा
गुर गुरतिय पद बंदि प्रभु सीता लखन समेत।
फिरे हरष बिसमय सहित आए परन निकेत ॥३२०॥
चौपाला
बिदा कीन्ह सनमानि निषादू । चलेउ हृदयँ बड़ बिरह बिषादू ॥
कोल किरात भिल्ल बनचारी । फेरे फिरे जोहारि जोहारी ॥
प्रभु सिय लखन बैठि बट छाहीं । प्रिय परिजन बियोग बिलखाहीं ॥
भरत सनेह सुभाउ सुबानी । प्रिया अनुज सन कहत बखानी ॥
प्रीति प्रतीति बचन मन करनी । श्रीमुख राम प्रेम बस बरनी ॥
तेहि अवसर खग मृग जल मीना । चित्रकूट चर अचर मलीना ॥
बिबुध बिलोकि दसा रघुबर की । बरषि सुमन कहि गति घर घर की ॥
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह भरोसो । चले मुदित मन डर न खरो सो ॥
दोहा
सानुज सीय समेत प्रभु राजत परन कुटीर।
भगति ग्यानु बैराग्य जनु सोहत धरें सरीर ॥३२१॥
चौपाला
मुनि महिसुर गुर भरत भुआलू । राम बिरहँ सबु साजु बिहालू ॥
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं । सब चुपचाप चले मग जाहीं ॥
जमुना उतरि पार सबु भयऊ । सो बासरु बिनु भोजन गयऊ ॥
उतरि देवसरि दूसर बासू । रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥
सई उतरि गोमतीं नहाए । चौथें दिवस अवधपुर आए।
जनकु रहे पुर बासर चारी । राज काज सब साज सँभारी ॥
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू । तेरहुति चले साजि सबु साजू ॥
नगर नारि नर गुर सिख मानी । बसे सुखेन राम रजधानी ॥
दोहा
राम दरस लगि लोग सब करत नेम उपबास।
तजि तजि भूषन भोग सुख जिअत अवधि कीं आस ॥३२२॥
चौपाला
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे । निज निज काज पाइ पाइ सिख ओधे ॥
पुनि सिख दीन्ह बोलि लघु भाई । सौंपी सकल मातु सेवकाई ॥
भूसुर बोलि भरत कर जोरे । करि प्रनाम बय बिनय निहोरे ॥
ऊँच नीच कारजु भल पोचू । आयसु देब न करब सँकोचू ॥
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए । समाधानु करि सुबस बसाए ॥
सानुज गे गुर गेहँ बहोरी । करि दंडवत कहत कर जोरी ॥
आयसु होइ त रहौं सनेमा । बोले मुनि तन पुलकि सपेमा ॥
समुझव कहब करब तुम्ह जोई । धरम सारु जग होइहि सोई ॥
दोहा
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिनु साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि ॥३२३॥
चौपाला
राम मातु गुर पद सिरु नाई । प्रभु पद पीठ रजायसु पाई ॥
नंदिगावँ करि परन कुटीरा । कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा ॥
जटाजूट सिर मुनिपट धारी । महि खनि कुस साँथरी सँवारी ॥
असन बसन बासन ब्रत नेमा । करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ॥
भूषन बसन भोग सुख भूरी । मन तन बचन तजे तिन तूरी ॥
अवध राजु सुर राजु सिहाई । दसरथ धनु सुनि धनदु लजाई ॥
तेहिं पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ॥
रमा बिलासु राम अनुरागी । तजत बमन जिमि जन बड़भागी ॥
दोहा
राम पेम भाजन भरतु बड़े न एहिं करतूति।
चातक हंस सराहिअत टेंक बिबेक बिभूति ॥३२४॥
चौपाला
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई । घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई ॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना । बढ़त धरम दलु मनु न मलीना ॥
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे । बिलसत बेतस बनज बिकासे ॥
सम दम संजम नियम उपासा । नखत भरत हिय बिमल अकासा ॥
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी । स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी ॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा । सहित समाज सोह नित चोखा ॥
भरत रहनि समुझनि करतूती । भगति बिरति गुन बिमल बिभूती ॥
बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं । सेस गनेस गिरा गमु नाहीं ॥
दोहा
चौपाला
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति ॥
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति ॥३२५॥
पुलक गात हियँ सिय रघुबीरू । जीह नामु जप लोचन नीरू ॥
लखन राम सिय कानन बसहीं । भरतु भवन बसि तप तनु कसहीं ॥
दोउ दिसि समुझि कहत सबु लोगू । सब बिधि भरत सराहन जोगू ॥
सुनि ब्रत नेम साधु सकुचाहीं । देखि दसा मुनिराज लजाहीं ॥
परम पुनीत भरत आचरनू । मधुर मंजु मुद मंगल करनू ॥
हरन कठिन कलि कलुष कलेसू । महामोह निसि दलन दिनेसू ॥
पाप पुंज कुंजर मृगराजू । समन सकल संताप समाजू।
जन रंजन भंजन भव भारू । राम सनेह सुधाकर सारू ॥
छंद
सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को ॥
दुख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को ॥
सोरठा
भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति ॥३२६॥
मासपारायण , इक्कीसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने
द्वितीयः सोपानः समाप्तः।
(अयोध्याकाण्ड समाप्त )