उत्तरकाण्ड - दोहा ७१ से ८०
दोहा
ब्यापि रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ॥
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ॥७१ -क॥
सो दासी रघुबीर कै समुझें मिथ्या सोपि ।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउँ पद रोपि ॥७१ -ख॥
चौपाला
जो माया सब जगहि नचावा । जासु चरित लखि काहुँ न पावा ॥
सोइ प्रभु भ्रू बिलास खगराजा । नाच नटी इव सहित समाजा ॥
सोइ सच्चिदानंद घन रामा । अज बिग्यान रूपो बल धामा ॥
ब्यापक ब्याप्य अखंड अनंता । अखिल अमोघसक्ति भगवंता ॥
अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सबदरसी अनवद्य अजीता ॥
निर्मम निराकार निरमोहा । नित्य निरंजन सुख संदोहा ॥
प्रकृति पार प्रभु सब उर बासी । ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी ॥
इहाँ मोह कर कारन नाहीं । रबि सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं ॥
दोहा
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप ।
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप ॥७२ -क॥
जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ ॥७२ -ख॥
चौपाला
असि रघुपति लीला उरगारी । दनुज बिमोहनि जन सुखकारी ॥
जे मति मलिन बिषयबस कामी । प्रभु मोह धरहिं इमि स्वामी ॥
नयन दोष जा कहँ जब होई । पीत बरन ससि कहुँ कह सोई ॥
जब जेहि दिसि भ्रम होइ खगेसा । सो कह पच्छिम उयउ दिनेसा ॥
नौकारूढ़ चलत जग देखा । अचल मोह बस आपुहि लेखा ॥
बालक भ्रमहिं न भ्रमहिं गृहादीं । कहहिं परस्पर मिथ्याबादी ॥
हरि बिषइक अस मोह बिहंगा । सपनेहुँ नहिं अग्यान प्रसंगा ॥
मायाबस मतिमंद अभागी । हृदयँ जमनिका बहुबिधि लागी ॥
ते सठ हठ बस संसय करहीं । निज अग्यान राम पर धरहीं ॥
दोहा
काम क्रोध मद लोभ रत गृहासक्त दुखरूप ।
ते किमि जानहिं रघुपतिहि मूढ़ परे तम कूप ॥७३ -क॥
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ ।
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइ ॥७३ -ख॥
चौपाला
सुनु खगेस रघुपति प्रभुताई । कहउँ जथामति कथा सुहाई ॥
जेहि बिधि मोह भयउ प्रभु मोही । सोउ सब कथा सुनावउँ तोही ॥
राम कृपा भाजन तुम्ह ताता । हरि गुन प्रीति मोहि सुखदाता ॥
ताते नहिं कछु तुम्हहिं दुरावउँ । परम रहस्य मनोहर गावउँ ॥
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ । जन अभिमान न राखहिं काऊ ॥
संसृत मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥
ताते करहिं कृपानिधि दूरी । सेवक पर ममता अति भूरी ॥
जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई । मातु चिराव कठिन की नाईं ॥
दोहा
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर ।
ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर ॥७४ -क॥
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि ।
तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि ॥७४ -ख॥
चौपाला
राम कृपा आपनि जड़ताई । कहउँ खगेस सुनहु मन लाई ॥
जब जब राम मनुज तनु धरहीं । भक्त हेतु लील बहु करहीं ॥
तब तब अवधपुरी मैं ज़ाऊँ । बालचरित बिलोकि हरषाऊँ ॥
जन्म महोत्सव देखउँ जाई । बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई ॥
इष्टदेव मम बालक रामा । सोभा बपुष कोटि सत कामा ॥
निज प्रभु बदन निहारि निहारी । लोचन सुफल करउँ उरगारी ॥
लघु बायस बपु धरि हरि संगा । देखउँ बालचरित बहुरंगा ॥
दोहा
लरिकाईं जहँ जहँ फिरहिं तहँ तहँ संग उड़ाउँ ।
जूठनि परइ अजिर महँ सो उठाइ करि खाउँ ॥७५ -क॥
एक बार अतिसय सब चरित किए रघुबीर ।
सुमिरत प्रभु लीला सोइ पुलकित भयउ सरीर ॥७५ -ख॥
चौपाला
कहइ भसुंड सुनहु खगनायक । रामचरित सेवक सुखदायक ॥
नृपमंदिर सुंदर सब भाँती । खचित कनक मनि नाना जाती ॥
बरनि न जाइ रुचिर अँगनाई । जहँ खेलहिं नित चारिउ भाई ॥
बालबिनोद करत रघुराई । बिचरत अजिर जननि सुखदाई ॥
मरकत मृदुल कलेवर स्यामा । अंग अंग प्रति छबि बहु कामा ॥
नव राजीव अरुन मृदु चरना । पदज रुचिर नख ससि दुति हरना ॥
ललित अंक कुलिसादिक चारी । नूपुर चारू मधुर रवकारी ॥
चारु पुरट मनि रचित बनाई । कटि किंकिन कल मुखर सुहाई ॥
दोहा
रेखा त्रय सुन्दर उदर नाभी रुचिर गँभीर ।
उर आयत भ्राजत बिबिध बाल बिभूषन चीर ॥७६॥
चौपाला
अरुन पानि नख करज मनोहर । बाहु बिसाल बिभूषन सुंदर ॥
कंध बाल केहरि दर ग्रीवा । चारु चिबुक आनन छबि सींवा ॥
कलबल बचन अधर अरुनारे । दुइ दुइ दसन बिसद बर बारे ॥
ललित कपोल मनोहर नासा । सकल सुखद ससि कर सम हासा ॥
नील कंज लोचन भव मोचन । भ्राजत भाल तिलक गोरोचन ॥
बिकट भृकुटि सम श्रवन सुहाए । कुंचित कच मेचक छबि छाए ॥
पीत झीनि झगुली तन सोही । किलकनि चितवनि भावति मोही ॥
रूप रासि नृप अजिर बिहारी । नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी ॥
मोहि सन करहीं बिबिध बिधि क्रीड़ा । बरनत मोहि होति अति ब्रीड़ा ॥
किलकत मोहि धरन जब धावहिं । चलउँ भागि तब पूप देखावहिं ॥
दोहा
आवत निकट हँसहिं प्रभु भाजत रुदन कराहिं ।
जाउँ समीप गहन पद फिरि फिरि चितइ पराहिं ॥७७ -क॥
प्राकृत सिसु इव लीला देखि भयउ मोहि मोह ।
कवन चरित्र करत प्रभु चिदानंद संदोह ॥७७ -ख॥
चौपाला
एतना मन आनत खगराया । रघुपति प्रेरित ब्यापी माया ॥
सो माया न दुखद मोहि काहीं । आन जीव इव संसृत नाहीं ॥
नाथ इहाँ कछु कारन आना । सुनहु सो सावधान हरिजाना ॥
ग्यान अखंड एक सीताबर । माया बस्य जीव सचराचर ॥
जौं सब कें रह ग्यान एकरस । ईस्वर जीवहि भेद कहहु कस ॥
माया बस्य जीव अभिमानी । ईस बस्य माया गुनखानी ॥
परबस जीव स्वबस भगवंता । जीव अनेक एक श्रीकंता ॥
मुधा भेद जद्यपि कृत माया । बिनु हरि जाइ न कोटि उपाया ॥
दोहा
रामचंद्र के भजन बिनु जो चह पद निर्बान ।
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूँछ बिषान ॥७८ -क॥
राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ ॥
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ ॥७८ -ख॥
चौपाला
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा । मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा ॥
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या । प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या ॥
ताते नास न होइ दास कर । भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर ॥
भ्रम ते चकित राम मोहि देखा । बिहँसे सो सुनु चरित बिसेषा ॥
तेहि कौतुक कर मरमु न काहूँ । जाना अनुज न मातु पिताहूँ ॥
जानु पानि धाए मोहि धरना । स्यामल गात अरुन कर चरना ॥
तब मैं भागि चलेउँ उरगामी । राम गहन कहँ भुजा पसारी ॥
जिमि जिमि दूरि उड़ाउँ अकासा । तहँ भुज हरि देखउँ निज पासा ॥
दोहा
ब्रह्मलोक लगि गयउँ मैं चितयउँ पाछ उड़ात ।
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात ॥७९ -क॥
सप्ताबरन भेद करि जहाँ लगें गति मोरि ।
गयउँ तहाँ प्रभु भुज निरखि ब्याकुल भयउँ बहोरि ॥७९ -ख॥
चौपाला
मूदेउँ नयन त्रसित जब भयउँ । पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ ॥
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं । बिहँसत तुरत गयउँ मुख माहीं ॥
उदर माझ सुनु अंडज राया । देखेउँ बहु ब्रह्मांड निकाया ॥
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका । रचना अधिक एक ते एका ॥
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा । अगनित उडगन रबि रजनीसा ॥
अगनित लोकपाल जम काला । अगनित भूधर भूमि बिसाला ॥
सागर सरि सर बिपिन अपारा । नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा ॥
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किंनर । चारि प्रकार जीव सचराचर ॥
दोहा
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ ॥८० -क॥
एक एक ब्रह्मांड महुँ रहउँ बरष सत एक ।
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥८० -ख॥
चौपाला
एहि बिधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक ॥८० -ख॥
लोक लोक प्रति भिन्न बिधाता । भिन्न बिष्नु सिव मनु दिसित्राता ॥
नर गंधर्ब भूत बेताला । किंनर निसिचर पसु खग ब्याला ॥
देव दनुज गन नाना जाती । सकल जीव तहँ आनहि भाँती ॥
महि सरि सागर सर गिरि नाना । सब प्रपंच तहँ आनइ आना ॥
अंडकोस प्रति प्रति निज रुपा । देखेउँ जिनस अनेक अनूपा ॥
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी । सरजू भिन्न भिन्न नर नारी ॥
दसरथ कौसल्या सुनु ताता । बिबिध रूप भरतादिक भ्राता ॥
प्रति ब्रह्मांड राम अवतारा । देखउँ बालबिनोद अपारा ॥