बालकाण्ड दोहा १०१ से ११०
दोहा
नाथ उमा मन प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥१०१॥
चौपाला
बहु बिधि संभु सास समुझाई । गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥
करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी । धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥
छंद
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गई ॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥
दोहा
चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥१०२॥
चौपाला
तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥
आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥
जगत मातु पितु संभु भवानी । तेही सिंगारु न कहउँ बखानी ॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा । गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुर समर जेहिं मारा ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥
छंद
जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥
यह उमा संगु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥
दोहा
चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥१०३॥
चौपाला
संभु चरित सुनि सरस सुहावा । भरद्वाज मुनि अति सुख पावा ॥
बहु लालसा कथा पर बाढ़ी । नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी ॥
प्रेम बिबस मुख आव न बानी । दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी ॥
अहो धन्य तव जन्मु मुनीसा । तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा ॥
सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं । रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं ॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू । राम भगत कर लच्छन एहू ॥
सिव सम को रघुपति ब्रतधारी । बिनु अघ तजी सती असि नारी ॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई । को सिव सम रामहि प्रिय भाई ॥
दोहा
प्रथमहिं मै कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार ॥१०४॥
चौपाला
मैं जाना तुम्हार गुन सीला । कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला ॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें । कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें ॥
राम चरित अति अमित मुनिसा । कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा ॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी । सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी ॥
सारद दारुनारि सम स्वामी । रामु सूत्रधर अंतरजामी ॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी । कबि उर अजिर नचावहिं बानी ॥
प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा । बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा ॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू । सदा जहाँ सिव उमा निवासू ॥
दोहा
सिद्ध तपोधन जोगिजन सूर किंनर मुनिबृंद।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिब सुखकंद ॥१०५॥
चौपाला
हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं । ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं ॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला । नित नूतन सुंदर सब काला ॥
त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया । सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया ॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ । तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ ॥
निज कर डासि नागरिपु छाला । बैठै सहजहिं संभु कृपाला ॥
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा ॥
तरुन अरुन अंबुज सम चरना । नख दुति भगत हृदय तम हरना ॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी । आननु सरद चंद छबि हारी ॥
दोहा
जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकंठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल ॥१०६॥
चौपाला
बैठे सोह कामरिपु कैसें । धरें सरीरु सांतरसु जैसें ॥
पारबती भल अवसरु जानी । गई संभु पहिं मातु भवानी ॥
जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा । बाम भाग आसनु हर दीन्हा ॥
बैठीं सिव समीप हरषाई । पूरुब जन्म कथा चित आई ॥
पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी । बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी ॥
कथा जो सकल लोक हितकारी । सोइ पूछन चह सैलकुमारी ॥
बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी । त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी ॥
चर अरु अचर नाग नर देवा । सकल करहिं पद पंकज सेवा ॥
दोहा
प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम ॥
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥१०७॥
चौपाला
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी । जानिअ सत्य मोहि निज दासी ॥
तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना । कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना ॥
जासु भवनु सुरतरु तर होई । सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई ॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी । हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी ॥
प्रभु जे मुनि परमारथबादी । कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी ॥
सेस सारदा बेद पुराना । सकल करहिं रघुपति गुन गाना ॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती । सादर जपहु अनँग आराती ॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई । की अज अगुन अलखगति कोई ॥
दोहा
जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि ॥१०८॥
चौपाला
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ । कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू । जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू ॥
मै बन दीखि राम प्रभुताई । अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई ॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा । सो फलु भली भाँति हम पावा ॥
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे । करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें ॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा । नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा ॥
तब कर अस बिमोह अब नाहीं । रामकथा पर रुचि मन माहीं ॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा । भुजगराज भूषन सुरनाथा ॥
दोहा
बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि ॥१०९॥
चौपाला
जदपि जोषिता नहिं अधिकारी । दासी मन क्रम बचन तुम्हारी ॥
गूढ़उ तत्व न साधु दुरावहिं । आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
अति आरति पूछउँ सुरराया । रघुपति कथा कहहु करि दाया ॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी । निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी ॥
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा । बालचरित पुनि कहहु उदारा ॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं । राज तजा सो दूषन काहीं ॥
बन बसि कीन्हे चरित अपारा । कहहु नाथ जिमि रावन मारा ॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला । सकल कहहु संकर सुखलीला ॥
दोहा
बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम ॥११०॥
चौपाला
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी । जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी ॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा । पुनि सब बरनहु सहित बिभागा ॥
औरउ राम रहस्य अनेका । कहहु नाथ अति बिमल बिबेका ॥
जो प्रभु मैं पूछा नहि होई । सोउ दयाल राखहु जनि गोई ॥
तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना । आन जीव पाँवर का जाना ॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई । छल बिहीन सुनि सिव मन भाई ॥
हर हियँ रामचरित सब आए । प्रेम पुलक लोचन जल छाए ॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा । परमानंद अमित सुख पावा ॥