उत्तरकाण्ड - दोहा ५१ से ६०
दोहा
प्रेम सहित मुनि नारद बरनि राम गुन ग्राम ।
सोभासिंधु हृदयँ धरि गए जहाँ बिधि धाम ॥५१॥
चौपाला
गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा । मैं सब कही मोरि मति जथा ॥
राम चरित सत कोटि अपारा । श्रुति सारदा न बरनै पारा ॥
राम अनंत अनंत गुनानी । जन्म कर्म अनंत नामानी ॥
जल सीकर महि रज गनि जाहीं । रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ॥
बिमल कथा हरि पद दायनी । भगति होइ सुनि अनपायनी ॥
उमा कहिउँ सब कथा सुहाई । जो भुसुंडि खगपतिहि सुनाई ॥
कछुक राम गुन कहेउँ बखानी । अब का कहौं सो कहहु भवानी ॥
सुनि सुभ कथा उमा हरषानी । बोली अति बिनीत मृदु बानी ॥
धन्य धन्य मैं धन्य पुरारी । सुनेउँ राम गुन भव भय हारी ॥
दोहा
तुम्हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृत्य न मोह ।
जानेउँ राम प्रताप प्रभु चिदानंद संदोह ॥५२ -क॥
चौपाला
नाथ तवानन ससि स्रवत कथा सुधा रघुबीर ।
श्रवन पुटन्हि मन पान करि नहिं अघात मतिधीर ॥५२ -ख॥
राम चरित जे सुनत अघाहीं । रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥
जीवनमुक्त महामुनि जेऊ । हरि गुन सुनहीं निरंतर तेऊ ॥
भव सागर चह पार जो पावा । राम कथा ता कहँ दृढ़ नावा ॥
बिषइन्ह कहँ पुनि हरि गुन ग्रामा । श्रवन सुखद अरु मन अभिरामा ॥
श्रवनवंत अस को जग माहीं । जाहि न रघुपति चरित सोहाहीं ॥
ते जड़ जीव निजात्मक घाती । जिन्हहि न रघुपति कथा सोहाती ॥
हरिचरित्र मानस तुम्ह गावा । सुनि मैं नाथ अमिति सुख पावा ॥
तुम्ह जो कही यह कथा सुहाई । कागभसुंडि गरुड़ प्रति गाई ॥
दोहा
बिरति ग्यान बिग्यान दृढ़ राम चरन अति नेह ।
बायस तन रघुपति भगति मोहि परम संदेह ॥५३॥
चौपाला
नर सहस्त्र महँ सुनहु पुरारी । कोउ एक होइ धर्म ब्रतधारी ॥
धर्मसील कोटिक महँ कोई । बिषय बिमुख बिराग रत होई ॥
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई । सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई ॥
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ । जीवनमुक्त सकृत जग सोऊ ॥
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी । दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी ॥
धर्मसील बिरक्त अरु ग्यानी । जीवनमुक्त ब्रह्मपर प्रानी ॥
सब ते सो दुर्लभ सुरराया । राम भगति रत गत मद माया ॥
सो हरिभगति काग किमि पाई । बिस्वनाथ मोहि कहहु बुझाई ॥
दोहा
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर ।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर ॥५४॥
चौपाला
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा । कहहु कृपाल काग कहँ पावा ॥
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी । कहहु मोहि अति कौतुक भारी ॥
गरुड़ महाग्यानी गुन रासी । हरि सेवक अति निकट निवासी ॥
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई । सुनी कथा मुनि निकर बिहाई ॥
कहहु कवन बिधि भा संबादा । दोउ हरिभगत काग उरगादा ॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई । बोले सिव सादर सुख पाई ॥
धन्य सती पावन मति तोरी । रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी ॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा । जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा ॥
उपजइ राम चरन बिस्वासा । भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा ॥
दोहा
ऐसिअ प्रस्न बिहंगपति कीन्ह काग सन जाइ ।
सो सब सादर कहिहउँ सुनहु उमा मन लाइ ॥५५॥
चौपाला
मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि । सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि ॥
प्रथम दच्छ गृह तव अवतारा । सती नाम तब रहा तुम्हारा ॥
दच्छ जग्य तब भा अपमाना । तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना ॥
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा । जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा ॥
तब अति सोच भयउ मन मोरें । दुखी भयउँ बियोग प्रिय तोरें ॥
सुंदर बन गिरि सरित तड़ागा । कौतुक देखत फिरउँ बेरागा ॥
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी । नील सैल एक सुन्दर भूरी ॥
तासु कनकमय सिखर सुहाए । चारि चारु मोरे मन भाए ॥
तिन्ह पर एक एक बिटप बिसाला । बट पीपर पाकरी रसाला ॥
सैलोपरि सर सुंदर सोहा । मनि सोपान देखि मन मोहा ॥
दो० –
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरंग ।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मजुंल भृंग ॥५६॥
चौपाला
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई । तासु नास कल्पांत न होई ॥
माया कृत गुन दोष अनेका । मोह मनोज आदि अबिबेका ॥
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं । तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं ॥
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा । सो सुनु उमा सहित अनुरागा ॥
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई । जाप जग्य पाकरि तर करई ॥
आँब छाहँ कर मानस पूजा । तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा ॥
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा । आवहिं सुनहिं अनेक बिहंगा ॥
राम चरित बिचीत्र बिधि नाना । प्रेम सहित कर सादर गाना ॥
सुनहिं सकल मति बिमल मराला । बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला ॥
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा । उर उपजा आनंद बिसेषा ॥
दोहा
तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास ।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास ॥५७॥
चौपाला
गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा । मैं जेहि समय गयउँ खग पासा ॥
अब सो कथा सुनहु जेही हेतू । गयउ काग पहिं खग कुल केतू ॥
जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीड़ा । समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा ॥
इंद्रजीत कर आपु बँधायो । तब नारद मुनि गरुड़ पठायो ॥
बंधन काटि गयो उरगादा । उपजा हृदयँ प्रचंड बिषादा ॥
प्रभु बंधन समुझत बहु भाँती । करत बिचार उरग आराती ॥
ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा । माया मोह पार परमीसा ॥
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं । देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं ॥
दोहा
भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम ।
खर्च निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम ॥५८॥
चौपाला
नाना भाँति मनहि समुझावा । प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा ॥
खेद खिन्न मन तर्क बढ़ाई । भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई ॥
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं । कहेसि जो संसय निज मन माहीं ॥
सुनि नारदहि लागि अति दाया । सुनु खग प्रबल राम कै माया ॥
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई । बरिआई बिमोह मन करई ॥
जेहिं बहु बार नचावा मोही । सोइ ब्यापी बिहंगपति तोही ॥
महामोह उपजा उर तोरें । मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें ॥
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा । सोइ करेहु जेहि होइ निदेसा ॥
दोहा
अस कहि चले देवरिषि करत राम गुन गान ।
हरि माया बल बरनत पुनि पुनि परम सुजान ॥५९॥
चौपाला
तब खगपति बिरंचि पहिं गयऊ । निज संदेह सुनावत भयऊ ॥
सुनि बिरंचि रामहि सिरु नावा । समुझि प्रताप प्रेम अति छावा ॥
मन महुँ करइ बिचार बिधाता । माया बस कबि कोबिद ग्याता ॥
हरि माया कर अमिति प्रभावा । बिपुल बार जेहिं मोहि नचावा ॥
अग जगमय जग मम उपराजा । नहिं आचरज मोह खगराजा ॥
तब बोले बिधि गिरा सुहाई । जान महेस राम प्रभुताई ॥
बैनतेय संकर पहिं जाहू । तात अनत पूछहु जनि काहू ॥
तहँ होइहि तव संसय हानी । चलेउ बिहंग सुनत बिधि बानी ॥
दोहा
परमातुर बिहंगपति आयउ तब मो पास ।
जात रहेउँ कुबेर गृह रहिहु उमा कैलास ॥६०॥
चौपाला
तेहिं मम पद सादर सिरु नावा । पुनि आपन संदेह सुनावा ॥
सुनि ता करि बिनती मृदु बानी । परेम सहित मैं कहेउँ भवानी ॥
मिलेहु गरुड़ मारग महँ मोही । कवन भाँति समुझावौं तोही ॥
तबहि होइ सब संसय भंगा । जब बहु काल करिअ सतसंगा ॥
सुनिअ तहाँ हरि कथा सुहाई । नाना भाँति मुनिन्ह जो गाई ॥
जेहि महुँ आदि मध्य अवसाना । प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना ॥
नित हरि कथा होत जहँ भाई । पठवउँ तहाँ सुनहि तुम्ह जाई ॥
जाइहि सुनत सकल संदेहा । राम चरन होइहि अति नेहा ॥