Get it on Google Play
Download on the App Store

घर में सत्याग्रह

मुझे जेल का पहला अनुभव सन् 1908 मे हुआ। उस समय मैने देखा कि जेल मे कैदियो से जो कुछ नियम पलवाये जाते है, संयमी अथवा ब्रह्मचारी को उनका पालन स्वेच्छापूर्वक करना चाहिये। जैसे, कैदियो को सूर्यास्त से पहले पाँच बजे तक खा लेता होता है। उन्हें -- हिन्दुस्तानी और हब्शी कैदियो को -- चाय या कॉफी नही दी जाती। नमक खाना हो तो अलग से लेगा होता है। स्वाद के लिए तो कुछ खाया ही नही जा सकता।

( जेल के मेरे अनुभव भी पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुके है। मूलतः वे गुजराती मे लिखे गये थे और वे ही अंग्रेजी मे प्रकाशित हुए है। जहाँ तक मै जानता हूँ , दोनो पुस्तके मिल सकती है। -- मोहनदास कर्मचन्द गाँधी )

जब मैने जेल के डॉक्टर से हिन्दुस्तानियो के लिए 'करी पाउडर' माँगा और नमक बनती हुई रसोई मे ही डालने की बात कही , तो वे बोले , 'यहाँ आप लोग स्वाद का आनन्द लूटने के लिए नही आये है। आरोग्य की दृष्टि से करी पाउडर की कोई आवश्यकता नही है। आरोग्य के विचार से नमक ऊपर से ले या पकाते समय रसोई मे डाले, दोनो एक ही बात है।'

वहाँ तो बड़ी मेहनत के बाद हम आखिर जरूरी परिवर्तन करा सके थे। पर केवल संयम की दृष्टि से देखे तो दोनो प्रतिबंध अच्छे ही थे। ऐसा प्रतिबन्ध जब जबरदस्ती लगाया जाता है तो वह सफल नही होता। पर स्वेच्छा से पालन करने पर ऐसा प्रतिबन्ध बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। अतएव जेल से छूटने के बाद मैने ये परिवर्तन भोजन मे तुरन्त किये। भरसक चाय पीना बन्द किया और शाम को जल्दी खाने की आदत डाली, जो आज स्वाभाविक हो गयी है।

किन्तु एक ऐसी घटना घटी , जिसके कारण मैने नमक का त्याग किया , जो लगभग दस वर्ष तक अखंड रूप से कायम रहा। अन्नाहार सम्बन्धी कुछ पुस्तक मे मैने पढा था कि मनुष्य के लिए नमक खाना आवश्यक नही है और न खानेवाले को आरोग्य की दृष्टि से लाभ ही होता है। यह तो मुझे सूझा ही थी कि नमक न खाने से ब्रह्मचारी को लाभ होता है। मैने यह भी पढा और अनुभव किया था कि कमजोर शरीरवाले को दान न खानी चाहिये। किन्तु मै उन्हें तुरन्त छोड़ न सका था। दोनो चीजे मुझे प्रिय थी।

यद्यपि उक्त शल्यक्रिया के बाद कस्तूरबाई का रक्तस्राव थोड़े समय के लिए बन्द हो गया था , पर अब वह फिर से शुरू हो गया और किसी प्रकार बन्द ही न होता था। अकेले पानी के उपचार व्यर्थ सिद्ध हुए। यद्यपि पत्नी को मेरे उपचारो पर विशेष श्रद्धा नही थी , तथापि उनके लिए तिरस्कार भी नही था। दूसरी दवा करने का आग्रह न था। मैने उसे नमक और दाल छोड़ने के लिए मनाना शुरू किया। बहुत मनाने पर भी, अपने कथन के समर्थन के कुछ-न-कुछ पढ़कर सुनाने पर भी, वह मानी नही। आखिर उसने कहा, 'दाल और नमक छोड़ने को तो कोई आपसे कहे, तो आप भी न छोड़ेगे।'

मुझे दुःख हुआ और हर्ष भी हुआ। मुझे अपना प्रेम उंड़लने का अवसर मिला। उसके हर्ष मे मैने तुरन्त ही कहा , 'तुम्हारा यह ख्याल गलत है। मुझे बीमारी हो और वैद्य इस चीज को या दूसरी किसी चीज को छोड़ने के लिए कहे , तो मै अवश्य छोड़ दूँ। लेकिन जाओ, मैने एक साल के लिए दाल और नमक दोनो छोड़े। तुम छोड़ो या न छोड़ो , यह अलग बात है।'

पत्नी को बहुत पश्चाताप हुआ। वह कह उठी , 'मुझे माफ कीजिये। आपका स्वभाव जानते हुए भी मै कहते कह गयी। अब मै दाल औऱ नमक नही खाऊँगी , लेकिन आप अपनी बात लौटा ले। यह तो मेरे लिए बहुत बड़ी सजा है जायेगी।'

मैने कहा, 'अगर तुम दाल और नमक छोड़ोगी , तो अच्छा ही होगा। मुझे विश्वास है कि उससे तुम्हे लाभ होगा। पर मै ली हुई प्रतिज्ञा वापस नही ले सकूँगा। मुझे तो इससे लाभ ही होगा। मनुष्य किसी भी निमित्त से संयम क्या न पाले , उससे उसे लाभ ही है। अतएव तुम मुझ से आग्रह न करो। फिर मेरे लिए भी यह एक परीक्षा हो जायेगी और इन दो पदार्थो को छोड़ने का जो निश्चय तुमने किया है, उस पर ढृढ रहने मे तुम्हें मदद मिलेगी। ' इसके बाद मुझे उसे मनाने के जरुरत तो रही ही नही। 'आप बहुत हठीले है। किसी की बात मानते ही नही। ' कहकर और अंजलि-भर आँसू बहाकर वह शान्त हो गयी।

मै इसे सत्याग्रह का नाम देना चाहता हूँ और इसको अपने जीवन की मधुर स्मृतियो मे से एक मानता हूँ।

इसके बाद कस्तूरबाई की तबीयत खूब संभली। इसमे नमक और दाल का त्याग कारणरूप था या वह किस हद कारणरूप था , अथवा उस त्याग से उत्पन्न आहार-सम्बन्धी अन्य छोटे-बडे परिवर्तन कारणभूत थे, या इसके बाद दूसरे नियमो का पालन कराने मे मेरी पहरेदारी निमित्तरूप थी , अथवा उपर्युक्त प्रंसग से उत्पन्न मानसिक उल्लास निमित्तरूप था -- सो मै कह नही सकता। पर कस्तूरबाई का क्षीण शरीर फिर पनपने लगा , रक्तस्राव बन्द हुआ और 'बैद्यराज' के रूप मे मेरी साख कुछ बढ़ी।

स्वयं मुझ पर तो इन दोनो के त्याग का प्रभाव अच्छा ही पड़ा। त्याग के बाद नमक अथवा दाल की इच्छा तक न रही। एक साल का समय तो तेजी से बीत गया। मै इन्द्रियो की शान्ति अधिक अनुभव करने लगा और मन संयम को बढ़ाने की तरफ अधिक दौड़ने लगा। कहना होगा कि वर्ष की समाप्ति के बाद भी दाल और नमक का मेरा त्याग ठेठ देश लौटने तक चालू रहा। केवल एक बार सन् 1914 मे विलायत मे नमक और दाल खायी थी। पर इसकी बात और देश वापस आने पर ये दोनो चीजे फिर किस तरह लेनी शुरू की इसकी कहानी आगे कहूँगा।

नमक और दाल छुड़ाने के प्रयोग मैने दूसरे साथियो पर भी काफी किये है और दक्षिण अफ्रीका मे तो उसके परिणाम अच्छे ही आये है। वैद्यक दृष्टि से दोनो चीजो के त्याग के विषय मे दो मत हो सकते है, पर इसमे मुझे कोई शंका ही नही कि संयम की दृष्टि से तो इन दोनो चीजो के त्याग मे लाभ ही है। भोगी और संयमी के आहार भिन्न होने चाहिये। ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा रखनेवाले लोग भोगी का जीवन बिताकर ब्रह्मचर्य को कठिन और कभी-कभी लगभग असंभव बना डालते है।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति