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असत्यरुपी विष

चालिस साल पहने विलायत जाने वाले हिन्दुस्तानी विद्यार्थी आज की तुलना में कम थे। स्वयं विवाहित होने पर भी अपने को कुँआरा बताने का उनमें रिवाज-सा पड़ गया था। उस देश में स्कूल या कॉलेज में पढ़ने वाले कोई विद्यार्थी विवाहित नहीं होते। विवाहित के लिए विद्यार्थी जीवन नहीं होता। हमारे यहाँ तो प्राचीन काल में विद्यार्थी ब्रह्मचारी ही कहलाता था। बाल-विवाह की प्रथा तो इस जमाने में ही पड़ी हैं। कह सकते हैं कि विलायत में बाल-विवाह जैसी कोई हैं ही नहीं। इसलिए भारत के युवकों को यह स्वीकार करते हुए शरम मालूम होती हैं कि वे विवाहित हैं। विवाह की बात छिपाने का दूसरा एक कारण यह हैं कि अगर विवाह प्रकट हो जाये , तो जिस कुटुम्ब में रहते हैं उसकी जवान लड़कियों के साथ घूमने-फिरने और हँसी-मजाक करने का मौका नहीं मिलता। यह हँसी-मजाक अधिकतर निर्दोष होता हैं। माता-पिता इस तरह की मित्रता पसन्द भी करते हैं। वहाँ युवक और युवतियों के बीच ऐसे सहवास की आवश्यकता भी मानी जाती हैं , क्योंकि वहाँ तो प्रत्येक युवक को अपनी सहधर्मचारिणी स्वयं खोज लेनी होती हैं। अतएव विलायत में जो सम्बन्ध स्वाभाविक माना जाता हैं , उसे हिन्दुस्तान का नवयुवक विलायत पहुँचते ही जोडना शुरु कर दे तो परिणाम भयंकर ही होगा। कई बार ऐसे परिणाम प्रकट भी हुए हैं। फिर भी हमारे नवयुवक इस मोहिनी माया में फँस पड़े थे। हमारे नवयुवको ने उस योहब्वत के लिए असत्याचरण पसन्द किया , जो अंग्रेजो की दृष्टि से कितनी ही निर्दोष होते हुए भी हमारे लिए त्याज्य हैं। इस फंदे में मैं भी फँस गया। पाँच-छह साल से विवाहित और एक लड़के का बाप होते हुए भी मैंने अपने आपको कुँआरा बताने में संकोच नहीं किया ! पर इसका स्वाद मैने थोड़ा ही चखा। मेरे शरमीले स्वभाव ने , मेरे मौन ने मुझे बहुत कुछ बचा लिया। जब मैं बोल ही न पाता था, तो कौन लड़की ठाली बैठी थी जो मुझसे बात करती ? मेरे साथ घूमने के लिए भी शायद ही कोई लड़की निकलती।

मैं जितना शरमीला था उतना ही डरपोक भी था। वेंटनर में जिस परिवार में मैं रहता था , वैसे परिवार में घर की बेटी हो तो वह , सभ्यता के विचार से ही सही, मेरे समान विदेशी को घूमने ले जाती। सभ्यता के इस विचार से प्रेरित होकर इस घर की मालकिन की लड़की मुझे वेंटनर के आसपास की सुन्दर पहाड़ियों पर ले गयी। वैसे मेरी कुछ धीमी नहीं थी, पर उसकी चाल मुझ से तेज थी। इसलिए मुझे उसके पीछे घसिटना पड़ा। वह तो रास्तेभर बातो के फव्वारे उड़ाती चली, जब कि मेरे मुँह से कभी 'हाँ' या कभी 'ना' की आवाज भर निकती थी। बहुत हुआ तो 'कितना सुन्दर हैं!' कह देता। इससे ज्यादा बोल न पाता। वह तो हवा में उड़ती जाती और मै यह सोचता रहता कि घर कब पहुँचूंगा। फिर भी यह करने की हिम्मत न पड़ती कि 'चलो, अब लौट चले।' इतने में हम एक पहाड़ की चोटी पर जा खड़े हुए। पर अप उतरा कैसे जाये ? अपने ऊँची एजीवाले बूटो के बावजूद बीस-पचीस साल की वह रमणी बिजली की तरह ऊपर से नीचे उतर गयी , जब कि मैं शरमिंदा होकर अभी यही सोच रहा था कि ढाल कैसे उतरा जाये ! वह नीचें खड़ी हँसती हैं, मुझे हिम्मत बँधाती हैं, ऊपर आकर हाथ का सहारा देकर नीचे ले जाने को कहती हैं ! मैं इतना पस्तहिम्मत तो कैसे बनता ? मुश्किल से पैर जमाता हुआ , कहीं कुछ बैठता हुआ, मैं नीचे उतरा। उसने मजाक मे 'शा..बा..श!' कहकर मुझ शरमाये हुए को और अधिक शरमिंदा किया। इस तरह के मजाक से मुझे शरमिंदा करने का उसे हक था।

लेकिन हर जगह मैं इस तरह कैसे बच पाता ? ईश्वर मेरे अन्दर से असत्य की विष निकालना चाहता था। वेंटनर की तरह ब्राइटन भी समुद्र किनारे हवाखोरी का मुकाम हैं। एक बार मैं वहाँ गया था। जिस होटल में मैं ठहरा था, उसमे साधारण खुशहाल स्थिति की एक विधवा आकर टीकी थी। यह मेरा पहले वर्ष का समय था , वेंटनर के पहले का। यहाँ सूची में खाने की सभी चीजों के नाम फ्रेंच भाषा में लिखे थे। मैं उन्हें समझता न था। मैं बुढियावाली मेंज पर ही बैठा था। बुढिया ने देखा कि मैं अजनबी हूँ और कुछ परेशानी में भी हूँ। उसने बातचीत शुरु की, 'तुम अजनबी से मालूम होते हो। किसी परेशानी में भी हो। अभी तक कुछ खाने को भी नहीं मँगाया हैं।'

मैं भोजन के पदार्थों की सूची पढ़ रहा था और परोसने वाले से पूछने की तैयारी कर रहा था। इसलिए मैने उस भद्र महिला को धन्यवाद दिया और कहा , 'यह सूची मेरी समझ में नही आ रही हैं। मैं अन्नाहारी हूँ। इसलिए यह जानना जरुरी हैं कि इनमे से कौन सी चीजे निर्दोष हैं।'

उस महिला ने कहा , 'तो लो, मैं तुम्हारी मदद करती हूँ और सूची समझा देती हूँ। तुम्हारे खाने लायक चीजें मैं तुम्हें बता सकूँगी।'

मैने धन्यवाद पूर्वक उसकी सहायता स्वीकार की। यहाँ से हमारा जो सम्बन्ध जुड़ा सो मेरे विलायत मे रहने तक और उसके बाद भी बरसों तक बना रहा। उसने मुझे लन्दन का अपना पता दिया और हर रविवार को अपने घर भोजन के लिए आने को न्योता। वह दूसरे अवसरों पर भी मुझे अपने यहाँ बुलाती थी, प्रयत्न करके मेरा शरमीलापन छुड़ाती थी , जवान स्त्रियों से जान-पहचान कराती थी और उनसे बातचीक करने को ललचाती थी। उसके घर रहने वाली एर स्त्री के साथ बहुत बाते करवाती थी। कभी कभी हमें अकेला भी छोड़ देती थी।

आरम्भ में मुझे यह सब बहुत कठिन लगा। बात करना सूझता न था। विनोद भी क्या किया जाये ! पर वह बुढ़िया मुझे प्रविण बनाती रही। मैं तालीम पाने लगा। हर रविवार की राह देखने लगा। उस स्त्री के साथ बाते करना भी मुझे अच्छा लगने लगा।

बुढिया भी मुझे लुभाती जाती। उसे इस संग में रस आने लगा। उसने तो हम दोनो का हित ही चाहा होगा।

अब मैं क्या करूँ ? सोचा, 'क्या ही अच्छा होता, अगर मैं इस भद्र महिला से अपने विवाह की बात कह देता ? उस दशा में क्या वह चाहती कि किसी के साथ मेरा ब्याह हो ? अब भी देर नहीं हुई हैं। मै सच कह दूँ, तो अधिक संकट से बच जाउँगा।' यह सोचकर मैंने उसे एक पत्र लिखा। अपनी स्मृति के आधार पर नीचे उसका सार देता हूँ:

'जब से हम ब्राइटन मे मिले, आप मुझ पर प्रेम रखती रही हैं। माँ जिस तरह अपने बटे की चिन्ती रखती हैं, उसी तरह आप मेरी चिन्ता रखती हैं। आप तो यह भी मानती हैं कि मुझे ब्याह करना चाहिये , और इसी ख्याल से आप मेरा परिचय युवतियों से कराती हैं। ऐसे सम्बन्ध के अधिक आगे बढने से पहले ही मुझे आपसे यह कहना चाहिये कि मैं आपके प्रेम के योग्य नहीँ हूँ। मैं आपके घर आने लगा तभी मुझे आप से यह कह देना चाहिये था कि मैं विवाहित हूँ। मैं जानता हूँ कि हिन्दुस्तान के जो विद्यार्थी विवाहित होते हैं , वे इस देश में अपने ब्याह की बात प्रकट नहीं करते। इससे मैने भी उस रिवाज का अनुकरण किया। पर अब मैं देखता हूँ कि मुझे अपने विवाह की बात बिल्कुल छिपानी नहीं चाहियें थी। मुझे साथ मे यह भी कह देना चाहिये कि मेरा ब्याह बचपन मे हुआ हैं और मेरे एक लड़का भी हैं। आपसे इस बात को छिपाने का अब मुझे बहुत दुःख हैं, पर अब भगवान मे सच कह देने की हिम्मत दी हैं , इससे मुझे आनन्द होता हैं। क्या आप मुझे माफ करेंगी ? जिस बहन के साथ आपने मेरा परिचय कराया हैं , उसके साथ मैने कोई अनुचित छूट नही ली , इसका विश्वास मैं आपको दिलाता हूँ। मुझे इस बात का पूरा-पूरा ख्याल हैं कि मुझे ऐसी छूट नहीं लेनी चाहिये। पर आप तो स्वाभाविक रुप से यह चाहती हैं कि किसी के साथ मेरा सम्बन्ध जुड़ जाये। आपके मन में यह बात आगे न बढे, इसके लिए भी मुझे आपके सामने सत्य प्रकट कर देना चाहिये।

'यदि इस पत्र के मिलने पर आप मुझे अपने यहाँ आने के लिए अयोग्य समझेंगी, तो मुझे जरा भी बुरा नहीं लगेगा। आपकी ममता के लिए तो मैं आपका चिरऋणी बन चुका हूँ। मुझे स्वीकार करना चाहिये कि अगर आप मेरा त्याग न करेंगी तो मुझे खुशी होगी। यदि अब भी मुझे अपने घर आने योग्य मानेगी तो उसे मैं आपके प्रेम की एक नयी निशानी समझूँगा और उस प्रेम के योग्य बनने का सदा प्रयत्न करता रहूँगा। '

पाठक समझ ले कि यह पत्र मैने क्षणभर में नहीं लिख डाला था। न जाने कितने मसविदे तैयार किये होगें। पर यह पत्र भेज कर मैने अपने सिर का एक बड़ा बोझ उतार डाला। लगभग लौटती डाक से मुझे उस विधवा बहन का उत्तर मिला। उसने लिखा था :

'खुले दिल से लिखा तुम्हार पत्र मिला। हम दोनो खुश हुई और खूब हँसी। तुमने जिस असत्य से काम लिया, वह तो क्षमा के योग्य ही हैं। पर तुमने अपनी सही स्थिति प्रकट कर दी यह अच्छा ही हुआ। मेरा न्योता कायम हैं। अगले रविवार को हम अवश्य तुम्हारी राह देखेंगी, तुम्हारे बाल-विवाह की बाते सुनेंगी और तुम्हार मजाक उड़ाने का आनन्द भी लूटेंगी। विश्वास रखो कि हमारी मित्रता तो जैसी थी वैसी ही रहेगी।'

इस प्रकार मैने अपने अन्दर घुसे हुए असत्य के विष को बाहर निकाल दिया और फिर अपने विवाह आदि की बात करने में मुझे कही घबराहट नहीं हुई।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति