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संसार-प्रवेश

बड़े भाई ने मुझे पर बड़ी-बड़ी आशायें बाँध रखी थी। उनको पैसे का, कीर्ति का और पद का लोभ बहुत था। उनका दिल बादशाही था। उदारता उन्हें फिजूलखर्ची की हद तक ले जाती थी। इस कारण और अपने भोले स्वभाव के कारण उन्हें मित्रता करने में देर न लगती थी। इस मित्र-मण्डली की मदद से वे मेरे लिए मुकदमे लाने वाले थे। उन्होंने यह भी मान लिया था कि मैं खूब कमाऊँगा, इसलिए घरखर्च बढ़ा रखा था। मेरे लिए वकालत का क्षेत्र तैयार करनें में भी उन्होंने कोई कसर नहीं रखी थी।

जाति का झगड़ा मौजूद ही था। उसमें दो तड़े पड़ गयी थी। एक पक्ष ने मुझे तुरन्त जाति में ले लिया। दूसरा पक्ष न लेने पर डटा रहा। जाति में लेने वाले पक्ष को संतुष्ट करने के लिए राजकोट ले जाने से पहले भाई मुझे नासिक ले गये। वहाँ गंगा-स्नान कराया और राजकोट पहुँचने पर जाति-भोज दिया।

मुझे इस काम में कोई रुचि न थी। बड़े भाई के मन में मेरे लिए अगाध प्रेम था। मैं मानता हूँ कि उनके प्रति मेरी भक्ति भी वैसी ही थी। इसलिए उनकी इच्छा को आदेश मानकर मैं यंत्र की भाँति बिना समझे उनकी इच्छा का अनुसरण करता रहा। जाति का प्रश्न इससे हल हो गया।

जाति की जिस तड़ से मैं बहिस्कृत रहा, उसमें प्रवेश करने का प्रयत्न मैंने कभी नहीं किया , न मैने जाति के किसी मुखिया के प्रति मन में कोई रोष रखा। उनमें मुझे तिस्कार से देखने वाले लोग भी थे। उनके साथ मैं नम्रता का बरताव करता था। जाति के बहिस्कार सम्बन्धी कानून का मैं सम्पूर्ण आदर करता था। अपने सास-ससुर के घर अथवा अपनी बहन के घर मैं पानी तक न पीता था। वे छिपे तौर पर पिलाने को तैयार होते, पर मैं जो काम खुले तौर से न किया जा सके, उसे छिपकर करने के लिए मेरा मन ही तैयार न होता था।

मेरे इस व्यवहार का परिणाम यह हुआ कि जाति की ओर से मुझे कभी कोई कष्ट नहीं दिया गया। यहीं नहीं, बल्कि आज भी मैं जाति के एक विभाग में विधिवत् बहिष्कृत माना जाता हूँ , फिर भी उनकी ओर से मैने सम्मान और उदारता का ही अनुभव किया हैं। उन्होंने कार्य में मदद भी दी हैं और मुझ से यह आशा तक नहीं रखी कि जाति के लिए मैं कुछ-न-कुछ करूँ। मैं ऐसा मानता हूँ कि यह मधुर फल मेरे अप्रतिकार का ही परिणाम हैं। यदि मैंने जाति में सम्मिलित होने की खटपट की होती, अधिक तड़े पैदा करने का प्रयत्न किया होता, जाति वालों का छेड़ा-चिढ़ाया होतास तो वे मेरा अवश्य विरोध करते और मैं विलायत से लौटते ही उदासीन और अलिप्त रहने के स्थान पर खटपट के फन्दे में फँस जाता और केवल मिथ्यात्व का पोषण करने वाला बन जाता।

पत्नी के साथ सम्बन्ध अब भी जैसा मैं चाहता था वैसा बना नहीं था। विलायत जाकर भी मैं अपने ईर्ष्यालू स्वभाव को छोड़ नहीं पाया था। हर बात में मेरा छिद्रान्वेषण और मेरा संशय वैसा ही बना रहा। पत्नी को अक्षर-ज्ञान तो होना चाहिये। मैंने सोचा था कि यह काम मैं स्वयं करुँगा, पर मेरी विषयासक्ति ने मुझे यह काम करने ही न दिया और अपनी इस कमजोरी का गुस्सा मैने पत्नी पर उतारा। एक समय तो ऐसा भी आया जब मैंने उसे उसके मायके भेज दिया और अतिशय कष्ट देने के बाद ही फिर से अपने साथ रखना स्वीकार किया। बाद में मैंने अनुभव किया कि इसमं मेरी नादानी के सिवा कुछ नहीं था।


बच्चों की शिक्षा के विषय में भी मैं सुधार करना चाहता था। बड़े भाई के बालक थे और मैं भी एक लड़का छोड़ गया था, जो अब चार साल का हो रहा था। मैंने सोचा था कि इन बालकों से कसरत कराउँगा, इन्हें अपने सहवास में रखूँगा। इसमें भाई की सहानभूति थी। इसमें मैं थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त कर सका था। बच्चों का साथ मुझे बहुत रूचा और उनसें हँसी-मजाक करने की मेरी आदत अब तक बनी हुई हैं। तभी से मेरा यह विचार बना हैं कि मैं बच्चों के शिक्षक का काम अच्छी तरह कर सकता हूँ।

खाने-पीने में भी सुधार करने की आवश्यकता स्पष्ट थी। घर में चाय-काफी को जगह मिल चुकी थी। बड़े भाई ने सोचा कि मेरे विलायत से लौटने से पहले घर में विलायत की कुछ हवा तो दाखिल हो ही जानी चाहिये। इसलिए चीनी मिट्टी के बरतन, चाय आदि जो चीजें पहले घर में केवल दवा के रुप में और 'सभ्य' मेहमानों के लिए काम आती थी, वे सब के लिए बरती जाने लगीं। ऐसे वातावरण में मैं अपने 'सुधार' लेकर पहुँचा। ओटमील पारिज (जई की लपसी) को घर में जगह मिली, चाय-काफी के बदले कोको शुरू हुआ। पर यह परिवर्तन तो नाममात्र को ही था , चाय-काफी के साथ के साथ कोको और बढ़ गया। बूट-मोचे घर में घुस ही चुके थे। मैंने कोट-पतलून से घर को पुनीत किया !

इस तरह खर्च बढ़ा नवीनताये बढ़ी। घर पर सफेद हाथी बँध गया। पर यह खर्च लाया कहाँ से जाय ? राजकोट में तुरन्त धन्धा शुरू करता हूँ, तो हँसी होती हैं। मेरे पास ज्ञान तो इतना भी न था कि राजकोट में पास हुए वकीस से मुकाबले में खड़ा हो सकूँ , तिस पर फीस उससे दस गुनी फीस लेने का दावा ! कौन मूर्ख मुवक्किल मुझे काम देता ? अथवा कोई ऐसा मूर्ख मिल भी जाये तो क्या मैं अपने अज्ञान में घृष्टता और विश्वासघात की वृद्धि करके अपने उपर संसार का ऋण और बढ़ा लूँ ?

मित्रों की सलाह यह रहीं कि मुझे कुछ समय के लिए बम्बई जाकर हाईकोर्ट की वकालत का अनुभव प्राप्त करना और हिन्दुस्तान के कानून का अध्ययन करना चाहियें और कोई मुकदमा मिल सके तो उसके लिए कोशिश करनी चाहिये। मैं बम्बई के लिए रवाना हुआ। वहाँ घर बसाया। रसोईया रखा। ब्राह्मण था। मैंने उसे नौकर की तरह कभी रखा ही नहीं। यह ब्राह्मण नहाता था, पर धोता नहीं था। उसकी धोती मैली, जनेऊ मैला। शास्त्र के अभ्यास से उसे कोई सरोकार नहीं। लेकिन अधिक अच्छा रसोईया कहाँ से लाता ?

'क्यों रविशंकर (उसका नाम रविशंकर था) , तुम रसोई बनाना तो जानते नहीं, पर सन्ध्या आदि का क्या हाल हैं ?'

'क्या बताऊँ भाईसाहब, हल मेरा सन्ध्या-तर्पण हैं और कुदाल खट-करम हैं। अपने राम तो ऐसे ही बाम्हन हैं। कोई आप जैसा निबाह ले तो निभ जाये, नहीं तो आखिर खेती तो अपनी हैं ही।'

मैं समझ गया। मुझे रविशंकर का शिक्षक बनना था। आधी रसोई रविशंकर बनाता और आधी मैं। मैं विलायत की अन्नाहार वाली खुराक के प्रयोग यहाँ शुरू किये। एक स्टोव खरीदा। मैं स्वयं तो पंक्ति-भेद का मानता ही न था। रविशंकर को भी उसका आग्रह न था। इसलिए हमारी पटरी ठीक जम गयी। शर्त या मुसीबत, जो कहो सो यह थी कि रविशंकर ने मैल से नाता न तोड़ने और रसोई साफ रखनें की सौगन्ध ले रखी थी !

लेकिन मैं चार-पाँच महीने से अधिक बम्बई मे रह ही न सकता था , क्योंकि खर्च बढता जाता था और आमदनी कुछ भी न थी। इस तरह मैने संसार में प्रवेश किया। बारिस्टरी मुझे अखरने लगी। आडम्बर अधिक, कुशलता कम। जवाबदारी का ख्याल मुझे दबोच रहा था।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति