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धार्मिक मन्थन

अब फिर ईसाई मित्रो के साथ अपने सम्पर्क पर विचार करने का समय आया हैं।

मेरे भविष्य बारे मे मि, बेकर की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। वे मुझे वेलिंग्टन कन्वेन्शन में ले गये। प्रोटेस्टेंट ईसाइयों में कुछ वर्षों के अन्तर से धर्म-जागृति अर्थात आत्मशुद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किये जाते हैं। ऐसा एक सम्मेलन वेलिंग्टन मे था। उसके सभापति वहाँ के प्रसिद्ध धर्मनिष्ठ पादरी रेवरेंड एंड्रमरे थे। मि. बेकर को यह आशा थी कि इस सम्मेलन मे होनेवाली जागृति, वहाँ आने वाले लोगो के धार्मिक उत्साह और उनकी शुद्धता की मेरे हृदय पर ऐसी गहरी छाप पड़ेगी कि मैं ईसाई बने बिना रह न सकूँगा।

फिर मि. बेकर का अन्तिम आधार था प्रार्थना की शक्ति। प्रार्थना मे उन्हें खूब श्रद्धा थी। उनका विश्वास था कि अन्तःकरण पूर्वक की गयी प्रार्थना को ईश्वर सुनता ही हैं। प्रार्थना से ही मूलर (एक प्रसिद्ध श्रद्धालु ईसाई) जैसे व्यक्ति अपना व्यवहार चलाते हैं, इसके दृष्टान्त भी वे मुझे सुनाते रहते थे। प्रार्थना की महिमा के विषय में मैने उनकी सारी बाते तटस्थ भाव से सुनी। मैने उनसे कहा कि यदि ईसाई बनने का अन्तर्नाद मेरे भीकर उठा तो उसे स्वीकार करने मे कोई वस्तु मेरे लिए बाधक न हो सकेगी। अन्तर्नाद के वश होना तो मैं इसके कई वर्ष पहले सीख चुका था। उसके वश होने में मुझे आनन्द आता था। उसके विरुद्ध जाना मेरे लिए कठिन और दुखःद था।

हम वेलिंग्टन गये। मुझ 'साँवले साथी' को साथ मे रखना मि. बेकर के लिए भारी पड़ गया। मेरे कारण उन्हें कई बार अड़चने उठानी पड़ती थी। रास्ते मे हमें पड़ाव करना था, क्योकि मि. बेकर का संघ रविवार को यात्रा न करता था और बीच में रविवार पड़ता था। मार्ग में और स्टेशन पर पहले तो मुझे प्रवेश देने से ही इनकार किया गया और झक-झक के बाद जब प्रवेश मिला तो होटल के मालिक ने भोजन -गृह में भोजन करने से इनकार कर दिया।। पर मि. बेकर यो आसानी से झुकने वाले नही थे। वे होटल मे ठहरने वालो के हक पर डटे रहे। लेकिन मैं उनकी कठिनाईयों को समझ सका था। वेलिंग्टन मे भी मैं उनके साथ ही ठहरा था। वहाँ भी उन्हें छोटी-छोटी अड़चनो को सामना करना पड़ता था। अपने सद्भाव से वे उन्हे छिपाने का प्रयत्न करते थे, फिर भी मैं उन्हे देख ही लेता था।

सम्मेलन मे श्रद्धालु ईसाइयों का मिलाव हुआ। उनकी श्रद्धा को देखकर मैं प्रसन्न हुआ। मै मि. मरे से मिला। मैने देखा क कई लोग मेरे लिए प्रार्थना कर रहे है। उनके कई भजन मुझे बहुत मीठे मालूम हुए।

सम्मेलन तीन दिन चला। मैं सम्मेलन मे आने वालो की धार्मिकता को समध सका, उसकी सराहना कर सका। पर मुझे अपने विश्वास में, अपने धर्म में, परिवर्तन करने का कारण न मिला। मुझे यह प्रतीति न हुआ कि ईसाई बन कर ही मैं स्वर्ग जा सकता हूँ अथवा मोक्ष पा सकता हूँ। जब यह बात मैने अपने भले ईसाई मित्रो से कहीं तो उनको चोट तो पहुँची, पर मैं लाचार था।

मेरी कठिनाइयाँ गहरी थी। 'एक ईसा मसीह ही ईश्वर के पुत्र है। उन्हें जो मानता है वह तर जाता हैं।' --यह बात मेरे गले उतरती न थी। यदि ईश्वर के पुत्र हो सकते हैं, तो हम सब उसके पुत्र हो। यदि ईसा ईश्वर तुल्य है, ईश्वर ही है तो मनुष्य मात्र ईश्वर से समान हैं, ईश्वर बन सकता हैं। ईसा की मृत्यु से और उनके सक्त से संसार के पाप धुलते हैं, इसे अक्षरशः सत मानने के लिए बुद्धि तैयार नही होती थी। रुपक के रुप में उसमें सत्य चाहे हो। इसके अतिरिक्त, ईसाईयो का यह विश्वास है कि मनुष्य के ही आत्मा हैं, दूसरे जीवो के नहीं, और देह के नाश के साथ उनका संपूर्ण नाश हो जाता हैं, जब कि मेरा विश्वास इसके विरुद्ध था। मै ईसा को एक त्यागी, महात्मा, दैवी शिक्षक के रुप मे स्वीकार कर सकता था, पर उन्हे अद्वितीय पुरुष के रुप में स्वीकार करना मेरे लिए शक्य न था। ईसा की मृत्यु से संसार को एक महान उदाहरण प्राप्त हुआ। पर उनकी मृत्यु मे कोई गूढ़ चमत्कारपूर्ण प्रभाव था, इसे मेरा दृदय स्वीकार नही सक सकता था। ईसाइयों के पवित्र जीवन में मुझे कोई ऐसी चीज नहीं मिली जो अन्य ध्र्मावलम्बियों के जीवन में न मिली हो। उनमे होने वाले परिवर्तनो जैसे परिवर्तन मैने दूसरो के जीवन में भी होते देखे थे। सिद्धान्त की दृष्टि से ईसाई सिद्धान्तो मे मुझे कोई अलौकिकता नही दिखायी पड़ी। त्याग की दृष्टि से हिन्दू धर्मावलम्बियों का त्या मुझे ऊँचा मालूम हुआ। मै ईसाई धर्म को सम्पूर्ण अथवा सर्वोपरि धर्म के रुप में स्वीकर न कर सका।

अपना यह हृदय-मंथन मैने अवसर आने पर ईसाई मित्रो के सामने रखा। उसका कोई संतोषजनक उत्तर वे मुझे नहीं दे सके।

पर जिस तरह मैं ईसाई धर्म को स्वीकार न कर सका, उसी तरह हिन्दू धर्म की सम्पूर्णता के विषय मे अथवा उसकी सर्वोपरिता के विषय में भी मैं उस समय निश्चय न कर सका। हिन्दू धर्म की त्रुटियाँ मेरी आँखो के सामने तैरा करती थी। यदि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अंग हैं, तो वह सड़ा हुआ और बाद में जुड़ा हुआ अंग जान पड़ा। अनेक सम्प्रदायों की, अनेक जात-पाँत की हस्ती को मैं समझ न सका। अकेले वेदों के ईश्वर-प्रणीत होने का अर्थ क्या है ? यदि वेद ईश्वर प्रणित हैं तो बाइबल और कुरान क्यो नहीं ?

जिस तरह ईसाई मित्र मुझे प्रभावित करने के लिए प्रयत्नशील थे, उसी तरह मुसलमान मित्र भी प्रयत्न करते रहते थे। अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के लिए ललचा रहे थे। उसकी खूबियो की चर्चा तो वे करते ही रहते थे।

मैने अपनी कठिनाईयाँ रायचन्द भाई के सामने रखी। हिन्दुस्तान के दूसरे धर्मचारियों के साथ भी पत्र-व्यवहार शुरु किया। उनकी ओर से उत्तर मिले। रायचन्द भाई के पत्र से मुझे बड़ी शान्ति मिली। उन्होने मुझे धीरज रखने और हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन करने की सलाह दी। उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था, 'निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई हैं कि हिन्दू धर्म मे जो सूक्षम और गूढ़ विचार हैं, आत्मा का निरीक्षण है, दया हैं, वह दूसरे धर्मो मे नही हैं।'

मैने सेल का कुरान खरीदा और पढ़ना शुरु किया। कुछ दूसरी इस्लामी पुस्तके भी प्राप्त की। विलायत में ईसाई मित्रो से पत्र व्यवहार शुरु किया। उनमे से एक ने एडवर्ड मेटलैंड से मेरा परिचय कराया। उनके साथ मेरा पत्र-व्यवहार चलता रहा। उन्होने एना किंग्सफर्ड के साथ मिलकर 'परफेक्ट वे' (उत्तम मार्ग) नामक पुस्तक लिखी थी। वह मुझे पढ़ने के लिए भेजी। उसमे प्रचलित ईसाई धर्म का खंड़न था। उन्होने मेरे नाम 'बाइबल का नया अर्थ' नामक पुस्तक भी भेजी। ये पुस्तकें मुझे पसन्द आयी। इनसे हिन्दू मत की पुष्टि हुई। टॉस्सटॉ की 'वैकुंठ तेरे हृदय मे हैं' नामक पुस्तक ने मुझे अभिभूत कर लिया। मुझ पर उसकी गहरी छाप पड़ी। इस पुसतक की स्वतंत्र विचार शैली, इसकी प्रौढ नीति और इसके सत्य के सम्मुख मि. कोट्स द्वारा दी गयी सब पुस्तके मुझे शुष्क प्रतीत हुई।

इस प्रकार मेरा अध्ययन मुझे ऐसी दिशा मे ले गया, जो ईसाई मित्रो की इच्छा के विपरीत थी। एडवर्ड मेटलैंड के साथ मेरा पत्र व्यवहार काफी लम्बे समय तक चला। कवि (रायचन्द भाई) के साथ तो अन्त तक बना रहा। उन्होने कई पुस्तके मेरे लिए भेजी। मैं उन्हें भी पढ़ गया। उनमें 'पंचीकरण', 'मणिरत्नमाला', 'योगवसिष्ठका', 'मुमुक्षु-प्रकरण', 'हरि-मद्रसूरिका', 'षड्दर्शन-सम्मुचय' इत्यादि पुस्तके थी।

इस प्रकार यद्यपि मैंने ईसाई मित्रों की धारणा से भिन्न मार्ग पकड़ लिया था, फिर भी उनके समागम मे मुझमे जो धर्म-जिज्ञासा जाग्रत की, उसके लिए तो मैं उनका सदा के लिए ऋणी बन गया य़ अपना यह संबंध मुझे हमेशा याद रहेगा। ऐसे मधुर और पवित्र संबंध बढ़ते ही गये, घटे नहीं।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति