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बालासुंदरम्

जैसी जिसकी भावना वैसी उसका फल , इस नियम को मैने अपने बारे मे अनेक बार घटते होते देखा हैं। जनता की अर्थात् गरीबो की सेवा करने की मेरी प्रबल इच्छा ने गरीबो के साथ मेरा सम्बन्ध हमेशा गी अनायास जोड़ दिया है।

यद्यपि नेटाल इंडियन कांग्रेस मे उपनिवेश में पैदा हुए हिन्दुस्तानियों ने प्रवेश किया था और मुहर्रिको का समाज उसमे दाखिल हुआ था, फिर भी मजदूरो ने, गिरमिटिया समाज के लोगो मे , उसमे प्रवेश नही किया था। कांग्रेस उनकी नही हुई थी। वे उसमे चंदा देकर और दाखिल होकर उसे अपना नही सके थे। उनके मन मे कांग्रेस के प्रति प्रेम तो तभी पैदा हो सकता था, जब कांग्रेस उनकी सेवा करे। ऐसा प्रसंग अपने-आप आ गया और वह भी ऐसे समय आया जब कि मैं स्वयं अथवा कांग्रेस उसके लिए शायद तैयार थी। मुझे वकालत शुरु किये अभी मुश्किल से दो-चार महीने हुए थे। कांग्रेस का भी बचपन था। इतने में एक दिन बालासुन्दरम् नाम का एक मद्रासी हिन्दुस्तानी हाथ मे साफा लिये रोता-रोता मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। उसके कपड़े फटे हुए थे , वह थर-थर काँप रहा था और उसके आगे के दो दाँत टूटे हुए थे। उसके मालिक ने उसे बुरी तरह मारा था। तामिल समझने वाले अपने मुहर्रिर के द्वारा मैने उसकी स्थिति जान ली। बालासुन्दरम् एक प्रतिष्ठित गोरे के यहाँ मजदूरी करता था। मालिक किसी वजह से गुस्सा होगा। उसे होश न रहा औऱ उसने बालासुन्दरम् की खूब जमकर पिटाई की। परिणाम-स्वरुप बालासुन्दरम् के दो दाँत टूट गये।

मैने उसे डॉक्टर के यहाँ भेजा। उन दिनो गोरे डॉक्टर ही मिलते थे। मुझे चोट-सम्बन्धी प्रमाण-पत्र की आवश्यकता थी। उसे प्राप्त करके मैं बालासुन्दरम् को मजिस्ट्रेट का पास ले गया। वहाँ बालासुन्दरम् का शपथ-पत्र प्रस्तुत किया। उसे पढकर मजिस्ट्रेट मालिक पर गुस्सा हुआ। उसने मालिक के नाम समन जारी करने का हुक्म दिया।

मेरी नीयत मालिक को सजा कराने की नही थी। मुझे तो बालासुन्दरम् को उसके पंजे से छुटाना था। मैंने गिकमिटियो से सम्बन्ध रखने वाले कानून की छान-बीन कर ली। यदि साधारण नौकर नौकरी छोडता , तो मालिक उसके खिलाफ दीवानी दावा दायर कर सकता था , पर उसे फौजदारी मे नही ले जा सकता था। गिरमिट मे और साधारण नौकरी मे बहुत फर्क था। पर खास फर्क यह था कि अगर गिरमिटिया मालिक को छोडे, तो वह फौजदारी गुनाह माना जाता था और उसके लिए उसे कैद भुगतनी होती थी। इसीलिए सर विलियम विल्सम हंटर मे इस स्थिति को लगभग गुलामी की सी स्थिति माना था। गुलाम की तरह गिरमिटिया मालिक की मिल्कियत माना जाता था। बालासुन्दरम् को छुटाने के केवल दो उपाय थे , या तो गिरमिटियो के लिए नियुक्त अधिकारी, जो कानून की दृष्टि से उनका रक्षक कहा जाता था , गिरमिट रद्द करे या दूसरे के नाम लिखवा दे, अथवा मालिक स्वयं उसे छोडने को तैयार हो जाये। मै मालिक से मिला। उससे मैने कहा, 'मैं आपको सजा नही कराना चाहता। इस आदमी को सख्त मार पडी हैं , सो तो आप जानते ही है, आप इसका गिरमिट दूसरे के नाम लिखाने को राजी हो जाये तो मुझे संतोष होगा।' मालिक यही चाहता था। फिर मैं रक्षक से मिला। उसने भी सहमत होना स्वीकार किया, पर शर्त यह रखी कि मैं बालासुन्दरम् के लिए नया मालिक खोज दूँ।

मुझे नये अंग्रेज मालिक की खोज करनी थी। हिन्दुस्तानियों को गिरमिटिया मजदूर रखने की इजाजत नहीं थी। मै अभी कुछ ही अंग्रेजो को पहचानता था। उन्होने मुझ पर मेहरबानी करके बालासुन्दरम् को रखना मंजूर कर लिया। मैने उनकी कृपा को साभार स्वीकार किया। मजिस्ट्रेट मे मालिक को अपराधी ठहराकर यह लिख दिया कि उसने बालासुन्दरम् का गिरमिट दूसरे के नाम लिखाना स्वीकार किया हैं।

बालासुन्दरम् के मामले की बात गिरमिटियों मे चारो तरफ फैल गयी और मै उनका बन्धु मान लिया गया। मुझे यह बात अच्छी लगी। मेरे दफ्तर में गिरमिटियों का तांता सा लग गया और मुझे उनके सुख-दुःख जानने की बड़ी सुविधा हो गयी।

बालासुन्दरम् के मामले की भनक ठेठ मद्रास प्रान्त तक पहुँची। इस प्रान्त के जिन-जिन हिस्सों से लोग नेटाल के गिरमिट मे जाते , उन्हे गिरमिटिया ही इस मामले की जानकारी देते थे। वैसे यह मामला महत्व का नही था , पर लोगो को यह जानकर आनन्द और आश्चर्य हुआ कि उनके लिए प्रकट रुप से काम करनेवाला कोई आदमी निकल आया हैं। इस बात से उन्हें आश्वासन मिला।

मै ऊपर लिख चुका हूँ कि बालासुन्दरम् अपना साफा उतारकर और उसे अपने हाथ मे रखकर मेरे पास आया था। इस घटना मे बड़ी करुणा भरी हैं, इसमें हमारी बेइज्जती भी भरी है। पगड़ी उतारने का मेरा किस्सा तो हम जान ही चुके हैं। गिरमिटिया और दूसरे अनजान हिन्दुस्तानी जब किसी भी गोरे के घर मे दाखिल होते, तो उसके सम्मान के लिए पगड़ी उतार लिया करते थे - फिर वह टोपी हो या बंधी हुई पगड़ी हो या लपेटा हुआ साफा हो। दोनो हाथ से सलाम करना काफी नही था। बालासुन्दरम् ने सोचा कि मेरे सामने भी इसी तरह आना चाहिये। मेरे निकट बालासुन्दरम् का यह दृश्य मेरा पहला अमुभव था। मै शरमाया। मैने बालासुन्दरम् को साफा बाँधने के लिए कहा। बड़े संकोच के साथ उसने साफा बाँधा। पर इससे उसे जो खुशी हुई, उसे मैं ताड़ गया। दूसरो को अपमानित करके लोग अपने को सम्मानित समझ सकते हैं, इस पहेली को मैं आज तक हल नही कर सका हूँ।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति