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गोखले के साथ एक महीना-1

पहले ही दिन गोखले ने मुझे यह अनुभव न करने दिया कि मैं मेहमान हूँ। उन्होंने मुझे अपने सगे भाई की तरह रखा। मेरी सब आवश्यकताये जान ली और उनके अनुकूल सारी व्यवस्था कर दी। सौभाग्य से मेरी आवश्यकतायें थोड़ी ही थी। मैंने अपना सब काम स्वयं कर लेने की आदत डाली थी , इसलिए मुझे दूसरो से बहुत थोड़ी सेवा लेनी होती थी। स्वावलम्बन की मेरी इस आदत की , उस समय की मेरी पोशाक आदि की , सफाई की, मेरे उद्यम की और मेरी नियमितता की उनपर गहरी छाप पड़ी थी और इन सबकी वे इतनी तारीफ करते थे कि मैं घबरा उठता था।

मुझे यह अनुभव न हुआ कि उनके पास मुझसे छिपाकर रखने लायक कोई बात थी। जो भी बड़े आदमी उनसे मिलने आते , उनका मुझसे परिचय कराते थे। ऐसे परिचयो में आज मेरी आँखो के सामने सबसे अधिक डॉ. प्रफुल्लचन्द्र राय आते है। वे गोखले के मकान के पास ही रहते थे और कह सकता हूँ कि लगभग रोज ही उनसे मिलने आते थे।

'ये प्रोफेसर राय हैं। इन्हें हर महीने आठ सौ रुपये मिलते हैं। ये अपने खर्च के लिए चालिस रुपये रखकर बाकी सब सार्वजनिक कामों में देते हैं। इन्होंने ब्याह नही किया हैं और न करना चाहते हैं।' इन शब्दों में गोखले ने मुझसे उनका परिचय कराया।

आज के डॉ. राय औऱ उस समय के प्रो. राय में मैं थोड़ा ही फर्क पाता हूँ। जो वेश-भूषा उनकी तब थी, लगभग वहीं आज भी हैं। हाँ, आज वे खादी पहनते हैं , उस समय खादी थी ही नहीं। स्वदेशी मिल के कपड़े रहे होगें। गोखले और प्रो. राय की बातचीत सुनते हुए मुझे तृप्ति ही न होती थी, क्योंकि उनकी बातें देशहित की ही होती थी अथवा कोई ज्ञानचर्चा होती थी। कई दुःखद भी होती थी, क्योंकि उनमे नेताओं की टीका रहती थी। इसलिए जिन्हें मैने महान योद्धा समझना सीखा था, वे मुझे बौने लगने लगे।

गोखले की काम करने की रीति से मुझे जितना आनन्द हुआ उतनी ही शिक्षा भी मिली। वे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। मैने अनुभव किया कि उनके सारे देशकार्य के निमित्त से ही थे। सारी चर्चायें भी देशकार्य के खातिर ही होती थी। उनकी बातों में मुझे कही मलिनता , दम्भ अथवा झूठ के दर्शन नही हुए। हिन्दुस्तान की गरीबी और गुलामी उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी। अनेक लोग अनेक विषयों मे उनकी रुचि जगाने के लिए आते थे। उन सबको वे एक ही जवाब देते थे, 'आप यह काम कीजिये। मुझे अपना काम करने दीजिये। मुझे तो देश की स्वाधीनता प्राप्त करनी हैं। उनके मिलने पर ही मुझे दूसरा कुछ सूझेगा। इस समय तो इस काम से मेरे पास एक क्षण भी बाकी नही बचता।'

रानडे के प्रति उनका पूज्यभाव बात-बात में देखा जा सकता था। 'रानडे यह कहते थे' - ये शब्द तो उनकी बातचीत मे लगभग 'सूत उवाच' जैसे हो गये थे। मैं वहाँ था उन्हीं दिनों रानेडे की जयन्ती ( अथवा पुण्यतिथि , इस समय ठीक याग नही हैं ) पड़ती थी। ऐसा लगा कि गोखले उसे हमेशा मनाते थे। उस समय वहाँ मेरे सिवा उनके मित्र प्रो. काथवटे और दूसरे एक सज्जन थे, जो सब-जज थे। इनको उन्होंने जयन्ती मनाने के लिए निमंत्रित किया औऱ उस अवसर पर उन्होंने हमें रानेडे के अनेक संस्मरण सुनाये। रानडे, तैलंग और मांडलिक की तुलना भी की। मुझे स्मरण है कि उन्होंमे तैलंग की भाषा की प्रशंसा की थी। सुधारक के रुप में मांडलिक की स्तुति की थी। अपने मुवक्किल की वे कितनी चिन्ता रखते थे, इसके दृष्टान्त के रुप में यह किस्सा सुनाया कि एक बार रोज की ट्रेन छूट जाने पर वे किस तरह स्पेशन ट्रेन से अदालत पहुँचे थे। और रानडे की चौमुखी शक्ति का वर्णन करके उस समय के नेताओं मे उनकी सर्वश्रेष्ठता सिद्ध की थी। रानडे केवल न्यायमूर्ति नहीं थे , अर्थशास्त्री थे, सुधारक थे। सरकारी जज होते हुए भी वे कांग्रेस में दर्शक की तरह निडर भाव से उपस्थित होते थे। इसी तरह उनकी बुद्धिमत्ता पर लोगो को इतना विश्वास था कि सब उनके निर्णय को स्वीकार करते थे। यह सब वर्णन करते हुए गोखले के हर्ष की की सीमा न रहती थी।

गोखले घोड़ागाड़ी रखते थे। मैने उनसे इसकी शिकायत की। मैं उनकी कठिनाइयाँ समझ नहीं सका था। पूछा, 'आप सब जगह ट्राम में क्यो नहीं जा सकते ? क्या इससे नेतावर्ग की प्रतिष्ठा कम होती है ?'

कुछ दुःखी होकर उन्होंने उत्तर दिया, 'क्या तुम भी मुझे पहचान न सके? मुझे बड़ी धारासभा से जो रुपया मिलता हैं, उसे मैं अपने काम मे नहीं लाता। तुम्हें ट्राम मे घुमते देखकर मुझे ईर्ष्या होती हैं , पर मैं वैसा नही कर सकता। जितने लोग मुझे पहचानते हैं उतने ही जब तुम्हें पहचानने लगेंगे , तब तुम्हारे लिए भी ट्राम मे घूमना असम्भव नही तो कठिन अवश्य हो जायेगा। नेता जो कुछ करते हैं सो मौज-शौक के लिए ही करते हैं, यह मानने का कोई कारण नहीं हैं। तुम्हारी सादगी मुझे पसन्द हैं। मैं यथासम्भव सादगी से रहता हूँ। पर तुम निश्चिक मानना कि मुझ जैसो के लिए कुछ खर्च अनिवार्य है।'

इस तरह मेरी यह शिकायत तो ठीक ढंग से रद्द हो गयी। पर दूसरी जो शिकायत मैंने की, उसका कोई सन्तोषजनक उत्तर वे नहीं दे सके। मैने कहा, 'पर आप टहलने भी तो ठीक से नहीं जाते। ऐसी दशा में आप बीमार रहे तो इसमे आश्चर्य क्या ? क्या देश के काम मे से व्यायाम के लिए भी फुरसत नहीं मिल सकती ?'

जवाब मिला, 'तुम मुझे किस समय फुरसत में देखते हो कि मैं घूमने जा सकूँ ?'

मेरे मन मे गोखले के लिए इतना आदर था कि मैं उन्हें प्रत्युत्तर नहीं देता था। ऊपर के उत्तर से मुझे संतोष नहीं हुआ था , फिर भी चुप रहा। मैने यह माना है , और आज भी मानता हूँ कि कितने ही काम होने पर भी जिस तरह हम खाने का समय निकाले बिना नहीं रहते , उसी तरह व्यायाम का समय भी हमें निकालना चाहिये। मेरी यह नम्र राय है कि इससे देश की सेवा अधिक ही होती हैं, कम नहीं।

सत्य के प्रयोग

महात्मा गांधी
Chapters
बाल-विवाह बचपन जन्म प्रस्तावना पतित्व हाईस्कूल में दुखद प्रसंग-1 दुखद प्रसंग-2 चोरी और प्रायश्चित पिता की मृत्यु और मेरी दोहरी शरम धर्म की झांकी विलायत की तैयारी जाति से बाहर आखिर विलायत पहुँचा मेरी पसंद 'सभ्य' पोशाक में फेरफार खुराक के प्रयोग लज्जाशीलता मेरी ढाल असत्यरुपी विष धर्मों का परिचय निर्बल के बल राम नारायण हेमचंद्र महाप्रदर्शनी बैरिस्टर तो बने लेकिन आगे क्या? मेरी परेशानी रायचंदभाई संसार-प्रवेश पहला मुकदमा पहला आघात दक्षिण अफ्रीका की तैयारी नेटाल पहुँचा अनुभवों की बानगी प्रिटोरिया जाते हुए अधिक परेशानी प्रिटोरिया में पहला दिन ईसाइयों से संपर्क हिन्दुस्तानियों से परिचय कुलीनपन का अनुभव मुकदमे की तैयारी धार्मिक मन्थन को जाने कल की नेटाल में बस गया रंग-भेद नेटाल इंडियन कांग्रेस बालासुंदरम् तीन पाउंड का कर धर्म-निरीक्षण घर की व्यवस्था देश की ओर हिन्दुस्तान में राजनिष्ठा और शुश्रूषा बम्बई में सभा पूना में जल्दी लौटिए तूफ़ान की आगाही तूफ़ान कसौटी शान्ति बच्चों की सेवा सेवावृत्ति ब्रह्मचर्य-1 ब्रह्मचर्य-2 सादगी बोअर-युद्ध सफाई आन्दोलन और अकाल-कोष देश-गमन देश में क्लर्क और बैरा कांग्रेस में लार्ड कर्जन का दरबार गोखले के साथ एक महीना-1 गोखले के साथ एक महीना-2 गोखले के साथ एक महीना-3 काशी में बम्बई में स्थिर हुआ? धर्म-संकट फिर दक्षिण अफ्रीका में किया-कराया चौपट? एशियाई विभाग की नवाबशाही कड़वा घूंट पिया बढ़ती हुई त्यागवृति निरीक्षण का परिणाम निरामिषाहार के लिए बलिदान मिट्टी और पानी के प्रयोग एक सावधानी बलवान से भिड़ंत एक पुण्यस्मरण और प्रायश्चित अंग्रेजों का गाढ़ परिचय अंग्रेजों से परिचय इंडियन ओपीनियन कुली-लोकेशन अर्थात् भंगी-बस्ती? महामारी-1 महामारी-2 लोकेशन की होली एक पुस्तक का चमत्कारी प्रभाव फीनिक्स की स्थापना पहली रात पोलाक कूद पड़े जाको राखे साइयां घर में परिवर्तन और बालशिक्षा जुलू-विद्रोह हृदय-मंथन सत्याग्रह की उत्पत्ति आहार के अधिक प्रयोग पत्नी की दृढ़ता घर में सत्याग्रह संयम की ओर उपवास शिक्षक के रुप में अक्षर-ज्ञान आत्मिक शिक्षा भले-बुरे का मिश्रण प्रायश्चित-रुप उपवास गोखले से मिलन लड़ाई में हिस्सा धर्म की समस्या छोटा-सा सत्याग्रह गोखले की उदारता दर्द के लिए क्या किया ? रवानगी वकालत के कुछ स्मरण चालाकी? मुवक्किल साथी बन गये मुवक्किल जेल से कैसे बचा ? पहला अनुभव गोखले के साथ पूना में क्या वह धमकी थी? शान्तिनिकेतन तीसरे दर्जे की विडम्बना मेरा प्रयत्न कुंभमेला लक्षमण झूला आश्रम की स्थापना कसौटी पर चढ़े गिरमिट की प्रथा नील का दाग बिहारी की सरलता अंहिसा देवी का साक्षात्कार ? मुकदमा वापस लिया गया कार्य-पद्धति साथी ग्राम-प्रवेश उजला पहलू मजदूरों के सम्पर्क में आश्रम की झांकी उपवास (भाग-५ का अध्याय) खेड़ा-सत्याग्रह 'प्याज़चोर' खेड़ा की लड़ाई का अंत एकता की रट रंगरूटों की भरती मृत्यु-शय्या पर रौलट एक्ट और मेरा धर्म-संकट वह अद्भूत दृश्य! वह सप्ताह!-1 वह सप्ताह!-2 'पहाड़-जैसी भूल' 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया' पंजाब में खिलाफ़त के बदले गोरक्षा? अमृतसर की कांग्रेस कांग्रेस में प्रवेश खादी का जन्म चरखा मिला! एक संवाद असहयोग का प्रवाह नागपुर में पूर्णाहुति