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पत्री 81

संक्रांत

मकर-संक्रांत
सुखाच्या सुकाळा
चला हलवा करु
या रे सारी जणे
कलह-मत्सर
शेगडी पेटवा
कळकळ तळमळ
शेगडीच्यावर
स्नेहाचे घ्या तिळ
भक्तीच्या शर्करे
औत्सुक्याच्या हाते
सुंदर हलवा
प्रेमाचे रोमांच
पितळी ती फुले
दयेचा श्रद्धेचा
रंग केशराचा
दिव्य हा हलवा
मने जोडणारा
चला एकमेकां
गोडीने या राहू
आली शुभ वेळा
चला करु
मोढ्या आनंदाने
श्रमावया
कोळसे जमवा
हृदयाची
पितळी सुंदर
द्या ठेवून
निर्मळ साजिरे
पाक करा
हळूच हलवा
होऊ लागे
काटा हाच खुले
हलव्याने
सहानुभूतीचा
हाच शोभे
मने मोहणारा
अभिनव
देऊ घेऊ खाऊ
संसारात

-अमळनेर छात्रालय, १९२७

लहान मित्राबद्दल!

असे माझा मित्र हो लहान। तदगुणांचे परि सकल करिति गान
ऐकुनीया किति सौख्य होइ माते। असे ठाव ते फक्त मन्मनाते।।

दृष्टी निर्मळ मुखमंडल प्रसन्न। दिसे न कधी तो कुणालाहि खिन्न
दु:ख निज लपवी, अन्य दु:ख जाई। हरायाते तो सदोदीत पाही।।

वीणिमाजी वाहते प्रेमगंगा। करि न कोणाच्या कधी मनोभंगा
हृदय हाळु त्यांचे फुलापरी रम्य। कार्यशक्ति परी तदीया अदम्य।।

शील त्याचे सर्वांशि निष्कलंक। करी जवळ सदा गोरगरिबरंक
गर्व चित्ताला नसेच तो ठावा। जगन्मित्र जणू कुणाशी न दावा।।

अंतरंगी खेळवी सद्विचार। घडे हातुन सर्वदा सदाचार
जरी घडली हातून अल्प चूक। अश्रु आणिल लोचनी करिल शोक।।

निज स्वल्पहि अपराध घोर मनी। परी दुस-याचा चित्ति कधी नाणी
जरी दुस-याचा अल्प गुण दिसेल। स्तवन त्याचे करुनिया मनि सुखेल।।

देशभक्तीचा तदंतरी पूर। देशसेवेचा हृदयि उठे सूर
वस्तु परदेशी सदा ठेवि दूर। तया स्वातंत्र्याचीच हूरहूर।।

स्वता वापरुनी शुद्ध साधि खादी। वळवि परमनही गोड वचें बोधी
कार्य करुनी जो ना कधी वदेल। निज स्तुति ऐकुन लाजुन जाईल।।

कार्य दुस-याचे सतत ये कराया। स्वयंसेवक तो स्रवदा सहाया
असा नाही पाहिला युवा अन्य। बघुनि त्याला वाटते धन्य धन्य।।

मुखी त्याच्या ते हास्य सदा गोड। शब्द अमृतासम नाहि तया जोड
प्रेमपूर्ण किती सरळ मधुर डोळे। दिव्य सुंदर ते तेज भाळि खेळे।।

दंत निर्मळ ते जणू मोतियांचे। अधर पातळ जणू वेल पोवळ्यांचे
नाक सरळ परी जरा बाकदार। दिसे मुद्रा दिलदार ती उदार।।

सदा गाठाया ध्येय उच्च पाही। सदा दिनदिन जो वरति वरति जाई
थोर त्याचे ते जीवन मज वाटे। तया पाहुन गहिवरे हृदय दाटे।।

असे त्याला शुभ नाम नामदेवष करो नामासम वर्तना सदैव
नाम अन्वर्थक देवराय होवो। तुझी त्याच्यावर सर्वदा दया हो।।

प्रभो! तुमच्या मी लागतसे पाया।  तयावर ठेवा सदा दया-छाया
मनोरथ त्याचे पूर्ण करा देवा। तच्छिरावरती वरदहस्त ठेवा।।

मदायुष्यहि हे तयालागि द्यावे। असे जे जे मत्सत् तयास द्यावे
प्रभो! सांभाळी त्यास तू कृपेने। सकल संकट मोहादि लयाते ने।।

दयासिंधो हे दीनबंधु देवा। असे माझी प्रार्थना एकमेवा
मित्र माझा मत्प्राण जणू अन्य। कृतार्थ करा तज्जीवनास धन्य।।

-अमळनेर छात्रालय, १९२७

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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