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पत्री 46

अमोल मोती मजला दिलेस। धुळीत मी मेळविले तयास
अयोग्य हाती बहुमोल ठेवा। दिला किमर्थ प्रभु देवदेवा।।

अमोल लाभे नरजन्म देवा। परी घडेना तव अल्प सेवा
कशी तुला ही नरजन्ममाती। पहावते? सांग, जयास गाती।।

मलाच ठावी मम वेदना रे। न कल्पना येइल ती परा रे
किमर्थ मी ढाळित आसवांते। तुलाहि माहित नसेल का ते?।।

अनाथ दोषी दुबळा गरीब। सदैवत्याचे रडणे नशीब
न देव ना मानव त्या न कोणी। सदा रडावे तिमिरी बसोनि।।

सकाळ होवो अथवा दुपार। प्रभात किंवा रजनी गंभीर
मला असे एकच काम साचे। अखंडनेत्राश्रुविमोचनाचे।।

रडून रात्रंदिन दोन्हि डोळे। फुटून जावोत बनोत गोळे
तुला नसे भाग्य बघावयाचे। नुरे तरी कामच लोचनांचे।।

परोपरी मी तुज आळवीन। सदैव गीते रचुनी नवीन
तुझी घडो भेट न वा घडो रे। मुळी तुझे गीत तरी असो रे।।

मुखी असो नाम तरी निदान। तयास मी मानिन मन्निधान
न आठवी माय जरी मलास। न बाळ केव्हा विसरेल तीस।।

कितीहि झाले जरि खोडसाळ। तरी उराशी धरि माय बाळ
मदीय माता परि फार मानी। न पुत्रहाका परिसे हि कानी।।

सदैव माता जपती मुलांना। सदैव माद्या जपती पिलांना
जगात माता विसरेल बाळ। तरी जगाचा जवळीच काळ।।

मला न पोटी धरिशील आई। मला न नेत्री बघशील आई
कशास हा जन्म तरी दिलास। मला अहोरात्र रडावयास।।

न आत्महत्या करण्यास वीर। जरी बघाया तुजला अधीर
न रोगही मित्र बनेल पाही। न देव त्याला जगि कोणि नाही।।

रडे रडे सतत तू रडे रे। न जोवरी त्वत्तनु ही पडे रे
रडावयाचाचि तुझा स्वधर्म। रडावयाचे करि नित्य कर्म।।

निराश होतो बनतो भ्रमिष्ट। विनिंदतो व्यक्ति जगद्-गरिष्ठ
समस्त माते हसतात लोक। कुणा कळे आंतर आइ! शोक।।

असाच हा चंचल दुर्विचार। वदून ते हासती सान-थोर
तुझ्या मुलाची करिती टवाळी। मुका बिचारा परि अश्रु ढाळी।।

अनंत आनंद तुझ्या जगात। न मी रडावे कधिही मनात
सदैव देवा मजला हसू दे। कधी उदासीन न रे बसू दे।।

हसे सदा मद्वदनी असावे। मदास्य हे खिन्न कधी नसावे
असे जरी वाटतसे मनात। सदा उभे अश्रुच लोचनात।।

भरुन येती मम नेत्र देवा। मला कळेना मम पापठेवा
मला न तत्कारण ते कळेना। मदश्रुधारा कधिही सरेना।।

वसंत येई पिक गोड गाई। वनस्थली रम्य सजून राही
फुलाफळांना प्रभु ये बहार। मदीय नेत्री परि
अश्रुधार।।

शरद ऋतू ये सुखद प्रसन्न। धरा सधान्या सरिता प्रसन्न
प्रसन्न आकाश प्रसन्न तारे। मदीय नेत्री परि अश्रु बा रे।।

विषाद जाऊन विकास येवो। अकर्मता जाउन कर्म येवो
निशा सरोनी हसु दे उषेला। वरो सदा मन्मन जागृतीला।।

सरोनी अंधार उजेड येवो। निबद्ध माझी मति मुक्त होवो
स्वतंत्रतेच्या गगनी उडू दे। विचारनक्षत्रफुले खुडू दे।।

कधी न आता प्रभु मी रडावे। विशंक उत्साहभरे उडावे
स्वपंख आनंदुन फडफडावे। वरीवरी सतत मी चढावे।।

सदैव उत्साह असो मनात। सदैव सेवा असु दे करांत
असो सदा शांति मदंतरात। भरुन राही मम जीवनात।।

अखंड आकर्षुनिया ग्रहांस। सभोवती नाचवि त्या दिनेश
पदांबुजाभोवती इंद्रियांस। धरुनिया लावि फिरावयास।।

प्रदक्षिणा ती तुजला करोत। तव प्रकाशे विमल नटोत
हरेल अंधार सरेल रात्र। तुझ्या प्रसादा बनतील पात्र।।

सुचो रुचो ना तुजवीण काही। जडो सदा जीव तुझ्याच पायी
तुझाच लागो मज एक छंद। मुखात गोविंद हरे मुकुंद।।

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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