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पत्री 60

सुगंध मग तो भरुन राहिला सा-या मज्जीवनी
पाहे प्रकटायालागुनी
सुंदरता रंगली अंतरी आत कळा लागती
प्रभुची सृष्टि पहायाप्रति
तरि मी आवरीत मानसा
उल्लू होउन जाइन कसा
होता प्रभुवर मम भरवंसा
अधीर होता कार्य बिघडते, अधीर होणे अंध
न कधी अधीर होई बघ।।

अधीर होउन अंडे फोडी विनता, मग पांगळा
लाभे अरुण तिला तो लुळा
सहस्त्र वर्षे वाट बघोमी दुसरे फोडी मग
प्रकटे गरुत्मान् सदा बघ
कर्मी रंगावे माणसे
फळ ते चिंतु नये मानसे
लाभेल परी भरले रसे
कष्ट संकटे सोसुन सतत सेवाकर्मी रमा
येइल चरण चुराया रमा।।

बाळ घालितो रुजत बी, बघे उकरुनिया सत्वर
येइल कैसा वरि अंकुर?
जरा जाहली नाही तुमची थोडी जी चळवळ
तोची मूर्ख विचारिति फळ
घालित जावे बीजा जळ
सेवेमध्ये न पडो खळ
सुंदर डोलेल वरी फळ
अधीर म्हणुनी मी ना झालो फुलविल परमेश्वर
होते सश्रद्ध मदंतर।।

रविकर आता प्रेमे स्नेहे मजलागी चुंबिती
वारे प्रदक्षिणा घालिती
अधीर जणु मज बघावयाला झाल्या दिशा
सरली जणु मज्जीवन-निशा
तरिही शांत राहिलो मनी
अधिकचि तपस्येत रंगुनी
बाळा! तपचि सुखाची खनी
तरस्येतची आनंद खरा तत्त्व धरावे उरी
फळ ते वांछु नये लौकरी।।

एके दिवशी सायंकाळी किरण वदति कोमळ
‘उदयिक विकास तव होइल’
ऐसे सांगुन, मोदे चुंबुन, गेले निघुनी कर
उत्सुक पवन करी भिरभिर
हळुहळु उषा जवळ येतसे
माझी पाकळी ती खुलतसे
दुसरी फुलते, तिसरी हसे
निशा संपली, अमृतत्वाची उषा झळकली वरी
अमृतसिंचन मजवर करी।।

उषा देविने मला चुंबिले धरणीमांडीवरी
भास्कर माझे जातक करी
आनंदाने कृतज्ञतेने मुके मदीयांतर
विश्वी देखे विश्वंभर
करुणा सकळ तयाची असे
प्रभु मदरुपे दावि जगा निज पवित्रता माधुरी
माझा हक्क नसे त्यावरी।।

सुगंध माझा सुंदरता मम त्याची ही देणगी
म्हणुनी ठेवित उघडी जगी
मला कशाला संचय- मति ती? माझे काहिच नसे
प्रभुचे प्रभुस समर्पीतसे
माझे लुटोत सारे धन
हेची वांछी माझे मन
त्यागे परमेश्वर पूजिन
सेवा करुनी सुकुनी जाइन, जाइन प्रभुच्या पदी
मग ती पतनभीति ना कधी।।

अशी मुला ही ऐकिलीस का माझी जीवनकथा
रुचेल तरि आदर मत्पथा
कल्याण तुझे होवो बाळा! अश्रु आपुले पुस
बेटा रडत असा ना बस
करि तू मुका पाहुन श्रम
साहुन दु:खे संकट तम
न शिवो मना निराशा भ्रम
पुरी तपस्या होता ठेवी प्रभु फळ हातावरी
न कधी अधीर हो अंतरी”।।

पवित्र सुमना नमना करुनी, सदगद साश्रू असा
होतो कापत मी वेलसा
सतेज सुंदर गंभीर मंगल विमल भावनाबुधि
हेलावे मम हृदयामधी
‘ही मम शेवटची आसवे
आता रमेन कर्मासवे
लागे विवाह श्रद्धेसवे
कर्म करावे सदा तपावे’ निश्चय धरिला उरी
‘आहे जगदंबा मग वरी’।।

-नाशिक तुरुंग, नोव्हेंबर १९३२

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पांडुरंग सदाशिव साने
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