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पत्री 47

तुझाच लागो मज एक नाद। सरोत सारेच वितंडवाद
तुझा असो प्रेमळ एक बंध। मुखात गोविंद हरे मुकुंद।।

अनंत हे अंबर नीलनील। उभे न मागे जरि का असेल
तरी न ताराद्युति ती खुलेल। सुपार्श्वभूमी चढवीत मोल।।

समस्त मागे कृतिच्या मदीय। असो भवन्मूर्ति विलोभनीय
समस्त कर्मे पदकासमान। तुझ्या शुभांगी झळकोत छान।।

शुभकृतीची मम वजयंती। गळा तुझ्या घालिन भूषयन्ती
उरी तुझ्या सुंदर ती रुळेल। बघून त्वन्नेत्रनदी निघेल।।

मनोज्ञपुष्पासम गंधवंत। पवित्र तारांपरि दीप्तिमंत
सुरम्य मोत्यांपरि पाणिदार। असा कधी अर्पिन कर्महार।।

नसे मला ज्ञान खरी न भक्ति। नसे मला योग न ती विरक्ति
नसे तपस्या पदरात जाड। तरी तुझी मी करितोच चाड।।

कधी मदश्रु प्रभुजी पुसाल। कधी निजांकी निजबाळ घ्याल
तुम्हास मी मानित मायबाप। कधी बरे दूर कराल ताप।।

जरी मुलाला ढकलाल आज। जरी न राखाल तदीय लाज
जरी न पाजाल अनंत पान्हा। जगेल ना तो तरि दीन तान्हा।।

-नाशिक तुरुंग, मे १९३३

जीवनार्पण


जीवनसुमना मदीय देवा! त्वच्चरणी वाहिन
दुसरी आणिक इच्छाच न
मकरंद तू घे तूच गंध घे सुंदरता तू बघ
तव सेवेतचि सुकुंदे शुभ
आहे गंध काय तो परी
आहे सुंदरता का तरी
आहे रस तरि का तिळभरी
असो कसेही तुला आवडो, गोड करुन घेउन
सुखवी प्रभुवर माझे मन।।

जर भिकारी जीवन माझे तरि तुज ते अर्पिन
हृदयी धरिशिल ते तोषुन
रित्या जीवना तव हस्ताचा स्पर्श सुधामय घडे
तरि परिपूर्णतेस ते चढे
त्वस्त्मित-किरण जीवनांबरी
पडतील दोनचार ते जरी
तरि ते होइल रे भरजरी
स्वताच ते मग निजांगावरी बसशिल तू घालुन
जाईन देवा मी लाजुन

धृवपाळाच्या मुक्या कपोला शंख लाविला हरी
वेदोच्चारण मग तो करी
मदीय जीवन अरसिक रिक्त प्रभु तू भरिशिल रसे
जरि तुज देइन ते सौरसे
ये, ये, जीवन घे तू मम
मत्करधर्ता ना त्वत्सम
प्रकाश दे मज घेउनि तम
रिता घडा मी तुला देउनी क्षीरांबुधि मिळविन
मज मौत्किक परि तुज मृत्कण।।

सख्या अनंता मनोवसंता घे मम जीवनवन
आहे निष्फळ हे भीषण
विचारतरु तू फुलवी फळवी लाव भावनालता
स्फूर्ति-समीरे आंदोलिते
सदगानांचे कूजवि पिक
सत्कर्माचे हासवि शुक
येवो भावभक्तिला पुक
जगी न अन्या फुलवाया ये हे हन्नंदनवन
फुलवी तूच जगन्मोहन।।

प्रभु तव चरणी जीवनयमुना माझी ही ओतिन
तव शुभ चरण प्रक्षाळिन
त्वत्पद- धूलि स्पर्शायाला यमुना कशि तडफडे
वरवर धडपडुनी ती चढे
वसुदेवाच्या हातातला
पद लांबवुनि तुवा लाविला
आत्मा यमुनेचा तोषला
तुझ्या पदाच्या स्पर्शासाठी देवा मज्जीवन-
यमुना तडफडते निशिदिन।।

तनमन माझे तुला वाढले जीवनपर्णावरी
यावे प्रभुजि आता लौकरी
पांचाळीच्या पानास्तव त्या अधीर झाला कसे
या ह्या दीनास्तवही तसे
पांचाळीच्या पानी चव
मम तममनाहि ती ना लव
तरि करि बाळाचे गौरव
किति विनवू मी किति आळवु मी कंठ येइ दाटुन
यावे धावुन मनमोहन।।

आला आला कृष्णकन्हैय्या राधाधर- लोलुप
प्रिय ज्या भावभक्तिचे तुप
आला आला शबरीची ती खाणारा बोरके
आला तोषणार गोरसे
जीवनपात्र तयाच्या पुढे
केले तनमन वाढुन मुदे
माझी दृष्टि तत्पती जडे
जीवनयमुना गेली तत्पदगंगेमधि मिसळुन
गेला जीव शिवचि होउन।।

-नाशिक तुरुंग, मार्च १९३३

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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