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पत्री 77

परस्परांची वैरे विसरा विरोध ते मालवा
प्रेमे जीवन निज रंगवा
परस्परांची उणी न काढा परगुणगौरव करा
कर धारुनी सहकार्या करा
परस्परांच्या संस्कृतिमधले हितकर मंगल बघा
बघु दे दृष्टि सुंदर शुभा
होऊ प्रभुचे यात्रेकरु
सगळे सुपंथ आपण धरु
जग हे आनंदाने भरु
कधी परी हे होइल? कधि का होइना मी तरी
पूजिन प्रेमधर्म अंतरी।।

मोठे मोठे आग लावणे हाच धर्म मानिती
प्रेते उकरुन ती काढिती
इतिहासातिल जनांपुढे हे भुतावळिच मांडिती
मंगल शिव ना ते दाविती
विझवतील ना वणवे कोणी तेलच ते ओतिती
सार्थक ह्यांतच ते मानिती
खोट्या स्वाभिमान-कल्पना
खोट्या धर्माच्या कल्पना
करिती स्मशान नंदनवना
न अहंतेचे महंत व्हावे धर्म अहंता नसे
धर्म प्रेमी नांदत असे।।

धर्माचे सत्प्रेम हेचि हो सुंदर सिंहासन
दिसती धर्म तिथे शोभुन
द्वेषमत्सरांचे ते आहे धर्माला वावडे
धर्मा प्रेम एक आवडे
प्रेमरुप तो परमेश्वरही प्रेमे त्याला पहा
पूजा प्रेमाची त्या वहा
सकळही देवाची लेकरे
कोठे भेद तरी तो उरे
झाले पाप अता ते पुरे
जीवनपंथा उजळो आता प्रेमदीप शाश्वत
पावू मंगल मग निश्चित।।

-नाशिक तुरुंग, नोव्हेंबर १९३३

परी बाळाला सकळ ती समान

तीन वर्षांचा बाळ गोड आला। नसे सीमा जणु त्याचिया सुखाला
हास्य त्याच्या मुखि गोड किति साजे। मूर्ति गोंडस ती गोजिरी विराजे।।

अधर मधुर तसे गोड गाल डोळे। सुखानंदाने भरुन जणू गेले
काय झाले सुख एवढे अपूर्व। तया बाळा, ज्यापुढे तुच्छ सर्व।।

“काय सापडले? हससी का असा रे। लबाडा सांग सांग सारे”
प्रश्न ऐकुन लागला हसायाला। अधिक निज मोदा दाखविता झाला।।

खिशामाजी तो बाळ बघू लागे। “काय आहे रे त्यात मला सांगे”
फिरुन हसला मत्प्रश्न ऐकुनी तो। कौतुकाने परि पुन्हा तो पहातो।।

हास्य ओठांतुन दाबल्या निघाले। बाळकाने मग फूल काढियेले
खिशातूनी ते गोड गुलाबाचे। दिव्य सुंदर सदधाम सुगंधाचे।।

काढि बाळक ते प्रथम फूल एक। दुजे काढी मग त्याहुनी सुरेख
आणि तिसरे ते कण्हेरिचे लाल। सकल संपत्ति प्रकट करी बाळ।।

परी राहे सुम अजुन एक आत। खिशामाजि पुन्हा घालि बाळ हात
फूल चौथे बाहेर काढियले। सर्व सुकलेले वाळुन जे गेले।।

चार पुष्पे मज दाखवून हासे। चार पुष्पे मज दाखवून नाचे
पुन्हा चारीही ठेवि ती खिशात। हसुन बाळक तो दूर निघुन जात।।

तीन पुष्पे रमणीय गोड छान। परी चवथे ते गलित शुष्क दीन
तुम्ही म्हटले असतेच तया घाण। परी बाळाला सकळ ती समान।।

-अमळनेर, छात्रालय १९२९

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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