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पत्री 78

ग्रंथमहिमा

दु:खाला जे विसरवनिया दिव्य आनंद देती
एकांती जे परम निकट स्नेहि सप्रेम होती
चित्ती ज्यांच्या मुळि न शिवतो भेद हा साव चोर
सर्वांनाही सुखवित सदा ग्रंथ हे संत थोर।।

कोणी येवो पुरुष वनिता बालिका बाल वृद्ध
सर्वा देती सुरस, करिती बुद्धिते जे समृद्ध
गांभीर्याते किति तरि पहा जीवनी आणितात
आपन्मग्ना हत-जन-मना ग्रंथ हे तातमात।।

तुम्हां द्याया सतत असती ग्रंथराजे तयार
पावित्र्याची परम विमला ज्ञानपीयूष-धार
जी संसारी तृषित हृदये ग्रंथ हे ज्ञानसिंधु
त्यांना होती मधुर, निवती सेविता एक बिंदु।।

झाले गेले कितिक परि ते ग्रंथ आहेत नित्य
आनंदाला वितरुन जगा दाविताती सुपंथ
सेवा धामी विपिनि करिता ग्रंथ तैशीच कारी
नाही सा-या भुवनि असले मित्र नित्योपकारी।।

रात्री प्रात:समयि उघडा ग्रंथ केव्हाहि वाचा
युष्मत्सेवा विपुल करणे हाच आनंद त्यांचा
हिंडायाची अविचलमने काळसिंधूवरून
ज्याला इच्छा, फिरविति तया ग्रंथ हातात धरून।।

नानालापे रमविति मना ग्रंथ ही गोड वेणू
जे जे वांछी मन वितरिती ग्रंथ ही कामधेनू
मातीलाही कनक करिती लाजवीती परीस
नाही मोठा हितकर सखा अन्य ग्रंथापरीस।।

आयुष्याची हितकर दिशा ग्रंथ हे दाखवीती
जीवित्वाची शिकविति कला नूतना दृष्टि देती
उन्मत्तांना नमविति विपदग्रस्त त्या हासवीती
प्रज्ञावंत स्थिर करुनिया मूर्ख त्या लाजवीती।।

संबोधूनी करिति जगदुत्कर्ष हे ग्रंथ साधे
ग्रंथलोके मनुजमतिला कार्यकौशल्य लाधे
नि:स्वार्थी हे अखिल-भुवनाचार्य सदग्रंथ दिव्य
मानव्याला उचलिति वरी पंथ दावीत भव्य।।

माता भ्राता प्रियसख गुरु तात वा रम्य कांता
नानारुपे रमविति पहा ग्रंथ हे मानवाता
जे ना कोणाप्रतिहि कथिले ग्रंथकारे विचार
ते या ग्रंथी प्रकट, उघडे अंतरातील सार।।

सांगे ना जी प्रियतमजनापाशिही ग्रंथकार
ओती ती हो खळबळ इथे, विवृत स्वांतदर
पापुद्रे ते सकळ दिसती चित्तकंदावरील
येई सारे हृदय कळुनी गूढ गंभीर खोल।।

ग्रंथाकारे विमल अमरा दिव्यरंगा समाधी
लावण्याची परम मधुरा लेखक स्वीय बांधी
कैसे तेथे झळकति हि-यांसारखे सद्विचार
जैसे नानाविध मणि तसे भावनांचे प्रकार।।

ग्रंथामाजी अमर असती दिव्य चैतन्यरुप
कर्ते, विश्वा सुखविति सदा मोद देती अमूप
केव्हाही ना मृति शिवतसे थोर सदग्रंथकारा
लोकोद्धारा निशिदीन उभा द्यावया ज्ञानधारा।।

त्रैलेक्यी या फिरविति तुम्हां ग्रंथ देऊन पंख
तत्त्वज्ञानी कवि मुनि तसे भेटती राव रंक
अंतर्यामी उसळविति ते गोड आनंदपूर
केव्हा केव्हा रडविति किती गाउनी दु:खसूर।।

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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