पत्री 67
जनात होवोत पवित्रनाम। पुरा करा हा जगदीश! काम
नसे मला रे मम जीवनाशा। तयार मी तो मम सर्वनाशा।।
मदर्थ मी प्रार्थिन ते न आता। मदर्थ ना मी नमवीन माथा
मदर्थ ना प्रार्थिन मी कधीही। परी सख्यांच्यास्तव याचना ही।।
प्रभो! सखे जे प्रिय प्रेमधाम। तदर्थ चिंता मज हेच काम
सुखात ठेवी प्रभु ते सदैव। पुन:पुन्हा मागत एकमेव।।
मदर्थ नाहे रडतील डोळे। तदर्थ होतील सदैव ओले
न जीवनाची मम आस माते। सदैव जावोत सखे सुपंथे।।
-त्रिचनापल्ली, सप्टेंबर १९३०
संत
भरो विश्वात आनंद। शांती नांदो चराचरी
म्हणून जळती संत। महात्मे भास्करापरी।।
असो विकास सर्वांचा। हरो दैन्य सरो तम
म्हणून जळती नित्य। महात्मे भास्करासम।।
नसे सौख्य विलासात। त्यात ना राम वाटत
हरावयाला जगत्ताप। तपती संत सतत।।
फळे लागोत मोदाची। लोकांच्या जीवनावरी
म्हणून जळती नित्य। महात्मे भास्करापरी।।
सुखासीन विलासात। पाही मरण तन्मन
मरण्यात तया मौज। जळण्यातच जीवन।।
पेटलेले होमकुंड। संताचे तेवि जीवन
परचिंता सदा त्यांना। करिती प्राण अर्पण।।
राम ना ऐषारामी। राम ना लोळण्यामध्ये
राम तो एका गोष्टीत। परार्थ जळण्यामध्ये।।
परार्थ जळती तारे। रविचंद्रहि तापती
परार्थ पळती वारे। नावेक न विसावती।।
परार्थ जगती मेघ। परार्थ तरु तिष्ठती
परार्थ पर्वत उभे। कदा काळी न बैसती।।
परार्थ सरितासंघ। परार्थ सुमने तृणे
परार्थ फळधान्यादी। परार्थ भवने वने।।
तसेच हे महा संत। परार्थ जळती सदा
तोच त्यांना सदानंद। प्रणाम शत तत्पदा।।
-नाशिक तुरुंग, नोव्हेंबर १९३२