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पत्री 79

संसाराचे त्रिविध मनुजा दाविती ग्रंथरुप
नाना रुपे मनुजहृदया ज्ञान देती अमूप
छेडोनीया तरल हृदयी सूक्ष्म तारा अनंत
जीवात्म्याला परिसविति ते दिव्य संगीत ग्रंथ।।

जे जे काही घडत असते मानवी जीवनात
अंतर्बाह्य प्रकट करिती ग्रंथ सामर्थ्यवंत
अंत:सृष्टी गुरु किती तरी बाह्यसृष्टीपरीस
ते सदग्रंथांवरुन कळते होइ अंतर्विकास।।

केव्हाही दुर्मुख न दिसती ग्रंथ नित्य प्रसन्न
ना कोणाला कथितिल कधी गोष्टी त्या भिन्न भिन्न
ग्रंथांऐसे परमसुख ना देखिले या जगात
ग्रंथी होता निरत मज तो होउ दे मृत्यु प्राप्त।।

आदर्शाला, शुभ अशुभ वा स्वीय रुपा बघाया
देती ग्रंथ स्वकरि मनुजा, या मिषे उद्धाराया
‘सत्याचा तो विजय ठरला, सत्य पूजा सदैव’
सदग्रंथी हे सतत असते सूत्र हो एकमेव।।

माते ना ते विभव रुचते राजवाडे नको ते
नाते गोते मजसि नलगे नाम मोठे नको ते
वस्त्रांची ती तलम न रुची ना अलंकार काम
व्हावे माझ्या निकट परि हे ग्रंथ कैवल्यधाम।।

रात्री माझ्या निकट असु दे तैलसंपूर्ण दीप
इच्छा नाही इतर असु दे ग्रंथराजे समीप
कोठे रानी मग सदनि वा अन्य देशी तुरुंगी
आनंदाने परिहरिन मी काळ सदग्रंथ-संगी।।

-त्रिचनापल्ली तुरुंग, जानेवारी १९३१

गुढीपाडवा


नूतन संवत्सर आला। मोद मनाला बहु झाला
घालुन सुंदर सडे पथी। शोभा करिती लोक किती
उंच गुढी ही उभारली। चमके तेजे नभ:स्थळी
सुंदर पट सुंदर माळा। गुढी सजवली सुमंगला
मंद वायुने कशी डुले। जनमतिकलिका मुदे खुले
विसरा मागिल शुभाशुभ। नूतन करणे आरंभ
विसरा मागिल कलहाना। विसरा मागिल अपमाना
विसरा दुष्कृति मागील। टाका पुढती पाऊल
मागिल मंगल घेऊन। पुढेच जाऊ चालून
निर्मा उज्ज्वल आकांक्षा। निर्मा हृदयी शुभ वांछा
नूतन जीवन सजवावे। आशेने पुढती जावे
दु:ख दैन्य नैराश्य कथा। हरु संहरु जगदव्यथा
आनंदरसा निर्मू या। विपुल समस्ता देऊ या
आनंदाचे साम्राज्य। स्वातंत्र्याचे साम्राज्य
मांगल्याचे साम्राज्य। भूवर निर्मू या आज
चला सकल सवंगडे तुम्ही। आपणास ना काहि कमी
स्वर्ग धरित्रीवर आणू। पृथ्वी मोदाने न्हाणू
विजयध्वज उभवू दिव्य। स्वातंत्र्याचे ते भव्य
चला उभारा गुढी उंच। कुणी न राहो जगि नीच
करु वर अपुल्या या माना। घेऊ सन्मानस्थाना
गुढी नाचते गगनात। श्रद्धा नाचे हृदयात
सदैव आशा बाळगुन। सदैव विजयी होऊन
गुढीपाडवा शुभंकर। करु साजरा खरोखर।।

-अमळनेर छात्रालय, १९९९

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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