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पत्री 45

प्रकाश केव्हा भवनी भरेल?

मदीय या मानस-मंदिरात। तमोमयी सतत घोर रात्र
कुठे असे दीप? कसा मिळेल?। प्रकाश केव्हा भवनी भरेल?।।

जशी विजेची कळ दाबताच। प्रकाश सर्वत्र करीत नाच
कुठे असे ती कळ मंदिराची। सदैव हे धुंडित हात साची।।

मदीय हे हात दमून गेले। मदीय डोळे बनतात ओले
कधीच का ना कळ सापडेल। असाच का दास सदा रडेल?

तुझा सदा मी करितो पुकारा। पुन्हा पुन्हा दावितसा नकारा
असे प्रभो कोठवरी टिकेल। प्रकाश केव्हा भवनी भरेल?

रवी शशी अंबरी लाविलेस। निज प्रकाशे भरलेस विश्व
मदंतरी ज्योति न लावितोस। दिसे स्मशानासम गेह ओस।।

क्षणी परी येइ मनी विचार। उचंबळे तत्क्षणी मोदपूर
मना मुक्याने प्रभुपाय चेप। प्रकाश येईल पहा अपाप।।

असे विजेची कळ सत्पदांत। पदा धरी तेज भरे घरात
सदैव जो दाबिल पाय त्याचे। घरात नाचे बिजली तयाचे।।

अहा मला त्वत्कळ रे मिळाली। मदीय चिंता सगळी पळाली
अता न सोडीन कधीच पाय। चिर-प्रकाशे तम दूर जाय।।

प्रकाश येता मम मंदिरात। बसेन मी नाचत गीत गात
तव प्रभु! प्रेमसुधा पिऊन। खराखुरा पागल मी बनेन।

नुरेल माझे मज देहभान। न भूक लागेल न वा तहान
सुखाश्रु नेत्रांतुन चालतील। तनूवरी रोम उभारतील।।

प्रकाश नाचेल अनंतरंग। सुदास नाचेल डुलेल दंग
बनेल वेडाच बनेल मत्त। तुझ्यात जाईल मिळून भक्त।।

जलात जाती मिळुनी तरंग। सदैव एकत्रच अंग रंग
धरुन राही सुम नित्य वृंत। तुझ्यात जाईल मिळून भक्त।।

प्रकाश येवो सदनात थोर। हो समस्त प्रभु चित्तघोर
सदा प्रकाशास्तव मी भुकेला। प्रकाश द्यावा प्रणती पदाला।।

-नाशिक तुरुंग, एप्रिल १९३३

हृदयाचे बोल

मला तुझ्यावीण कुणी कुणी न। खरोखरी मी तुजवाण दीन
नसेच आधार मला कुणाचा। मला विसावा पद- सारसाचा।।

सख्या जिवाचा मम आसरा तू। उदार माता मज वासरा तू
गड्या दिलाचा मम दिलरुबा तू। म्हणेन मी संतत एक तू तू।।

मदीय तू बोध मदीय मोद। मदीय चित्ता प्रभु! तू विनोद
मदीय संगीत मदीय गान। त्वमेक रे जीवन मामकीन।।

मदीय तू खान मदीय पान। मदीय तू स्थान मदीय मान
मदीय तू सौख्य मदीय ठेवा। तुझ्याविणे काहि न देवदेवा।।

तुझाच आधार तुझा विसावा। तुझाच हे तात! करीन धावा
तुलाच मारीन सदैव हाका। कृपांबराने निज बाळ झाका।।

तुझ्यावरी सर्व मदीय भार। तुझ्यावरी सर्व सख्या मदार
तुझेच माते जरि बंद दार। मदीय दु:खास न अंत पार।।

तुझ्यावरी सर्व उड्या मदीय। सख्या जरि प्रेम नुरे त्वदीय
तरी न सत्कर्म घडेल हाती। समस्त हे जीवन होइ माती।।

न जीव पंखाविण पाखरास। न आस गायीविण वासरास
पतंग सूत्राविण ना तरंगे। तुझ्याविणे दास तुझा न रंगे।।

न मूल हासे जरि अंबिका न। चकोर दु:खी जरि चंद्रिका न
वने वसंताविण हासती न। तुझ्याविण दास तुझा सुदीन।।

सुचे वसेताविण ना पिकाला। सुके जरी पाऊस ना पिकाला
जळाविणे जाइ जळून मीन। सुके तसा दास भवद्विहीन।।

अनाथनाथा! उघडा जगात। दरिद्र दु:खी पडलो पथात
मदीय तू लाज न राखशील। तरी निज ब्रीद गमावशील।।

सख्या अनंता करुणावसंता। तुझ्याविणे कोण कलंकहंता
मदीय मालिन्य धुवावयाते। तुझ्याविणे कोण समर्थ माते।।

करी तुझे मूल धुवून नीट। करी मुलाला शिकवून धीट
तदीय घे हात तुझ्या करोत। पडेल ना तो न घडेल घात।।

असो तुझा हात मदीय माथा। न दूर लोटी मज दीननाथा
मदंतरंगी करुनी निवास। सुवास द्यावा मम जीवनास।।

दिला कशाला नरजन्म माते। जरी न तत्सार्थक होइ हाते
दिली कशाला तनु मानवाची। जरी असे वृत्ति सदा पशूची।।

पत्री

पांडुरंग सदाशिव साने
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