ग़म खाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत है
ग़म खाने में बोदा[1] दिले-नाकाम बहुत है
यह रंज कि कम है मए-गुलफ़ाम बहुत है
कहते हुए साक़ी से हया आती है वरना
है यूं कि मुझे दुरद-ए-तह-ए-जाम[2] बहुत है
न तीर कमां में है, न सैयाद कमीं[3] में
गोशे[4] में क़फ़स[5] के मुझे आराम बहुत है
क्या ज़ुहद[6] को मानूं कि न हो गरचे रियाई
पादाश-ए-अ़मल[7] की तमअ़-ए-ख़ाम[8] बहुत है
हैं अहल-ए-ख़िरद[9] कि किस रविश-ए-ख़ास[10] पे नाज़ां
पा-बस्तगी-ए-रस्म-ओ-रह-ए `आम[11] बहुत है
ज़मज़म ही पे छोड़ो, मुझे क्या तौफ़-ए-हरम[12] से
आलूदा-ब-मै जामा-ए-अहराम[13] बहुत है
है क़हर गर अब भी न बने बात कि उन को
इनकार नहीं, और मुझे इब्राम[14] बहुत है
ख़ूं हो के जिगर आंख से टपका नहीं, ऐ मरग[15]
रहने दे मुझे यां, कि अभी काम बहुत है
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शायर तो वह अच्छा है पर बदनाम बहुत है
शब्दार्थ: